Monday, August 31, 2015

कृष्ण का जादू


आज पूरा एक महीना हो जायेगा बच्चों को आये हुए, कल ननद-ननदोई जी यानि उनके माँ-पापा आ रहे हैं, घर में गहमा-गहमी और बढ़ जाएगी. एक हफ्ता वे रहेंगे. दोपहर को किचन साफ करवाना है. कल व परसों जून ने भी घर की सफाई पर विशेष ध्यान दिया. मौसम अपेक्षाकृत गर्म है, नये कमरे की छत परसों डाल दी गयी, वर्ष के अंत तक सम्भवतः कमरा तैयार हो जायेगा. टीवी पर गुरूजी बता रहे हैं, ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों साथ-साथ चलते हैं. वह यह भी कह रहे हैं कि think globally and buy locally.
फिर एक अन्तराल.. आज सभी वापस चले गये, सासु माँ यहीं हैं. उसे लगा था कि उन सबके जाने पर एक क्षण के लिए भी उसे कोई दुःख नहीं होगा, पर एक पल को मन भारी हो गया, बस एक पल को ही. पिछले एक-सवा महीने से घर में चहल-पहल थी, अब फिर पहले की सी शांति है. वह साक्षी है मन की इस दुर्बलता की, इसका अर्थ हुआ कि वह उनके होने से सुख पा रही थी, तो भीतर का अनंत सुख कहाँ चला गया ? लेकिन विरह का दुःख तो कृष्ण को भी सताता था. प्रेम में विरह स्वाभाविक है ही, सम्भवतः यह विशुद्ध प्रेम है जो हल्की सी कसक बन कर उसे सता रहा है, पर उसे पता है यह क्षणिक है. अभी कुछ देर में वह टहलने जाएगी तथा लौटकर अलमीरा सहेजनी है. टीवी पर एक वक्ता ओजस्वी प्रवचन दे रही है.. ओज और तेज के पुंज बनकर उन्हें समाज में क्रांति लानी है, संबंधों में गर्मी को पैदा करना है. पिछले महीने वह सेवा कार्य में जा सकी, एक दिन ईर्ष्या ने ग्रसित किया तथा एक दिन क्रोध की हल्की अग्नि ने भी, पर इस वक्त जो भीतर घट रहा है वह इस सबसे अलग है, वह है हल्की सी पीड़ा..उसके भीतर यह भी एक दोष है कि दूसरों की गलतियाँ बहुत देखती है. छोटों की तो दूर, बड़ों की भी. मुस्कान पर भी पहरे लगा दिए हैं. गुरूजी कहते हैं, ‘हँसों और हँसाओ’ उनकी बात पर चलना तो उसका फर्ज है, तब जीवन कितना सरल हो जायेगा. चार दिनों का यह जीवन उन्हें इसलिए तो नहीं मिला है कि दूसरों की पुलिस बनें तथा अपने सिर पर कर्जा चढ़ाएं, बल्कि मुस्कुराते-मुस्कुराते जीवन के पथ पर आगे बढ़ने के लिए मिला है. गाना, नाचना, मुस्काना और कविता करना..ध्यान तो इन सबकी परिणति होगा तब ! कल शाम नन्हा भी दो-तीन दिनों के लिए बाहर जा रहा है. 
टीवी पर भजन आ रहा है. तिरछी चितवन, बांकी मुस्कन मेरे नन्द गोपाल, संग में राधा रानी सोहें शोभा बड़ी कमाल ! कान्हा को याद न करना पड़े वह अपने आप ही याद आता रहे तब जो रस आता है..उसकी कोई तुलना नहीं..पर कृष्ण को याद करना पड़े या वह याद आए लाभ तो दोनों ही स्थितियों में है. फिर उसे याद करे, यह प्रेरणा भी तो भीतर से वही देता है न..भगवान भी भक्त से दूर नहीं रह सकता, जब उसे याद न करो तो उसे भी ही उतना ही खलता है. दरअसल वह एक बार जिसे अपना बना लेता है या मान लेता है तो वह अनंत जीवन तक उसका साथ नहीं छोड़ता. तभी तो जब उसका मन संसार में उलझ जाता है तो वह मनमोहन भीतर से कोहनी मारता है, चुटकी काटता है. परमात्मा से प्रेम करो तो वह सौ गुना लौटाता है. वह होगा अनंत ब्रह्मांडों का नियंता..पर भक्त के लिए तो वह उसका अपना है, जिसके गीत गाते-गाते वह थकता नहीं है. जो प्रीत की साकार प्रतिमा है, ऐसा कान्हा उसका मीत है..



Friday, August 28, 2015

फूलों का गुलदस्ता


आज का दिन विशेष है. अख़बारों में लिखा है कि इस तिथि को जब तारीख, महीना तथा वर्ष तीनों एक ही हैं तो कोई दुखद घटना घट सकती है. पर उसके लिए तो यह दिन, बल्कि हर दिन ही शुभ दिन है क्योंकि भीतर ज्योति जली है, भीतर संगीत जगा है तथा भीतर प्रेम की कली खिली है. मन के सिंहासन पर सद्गुरु सम भगवान को और भगवान सम सद्गुरु को प्रतिष्ठित किया है. जीवन एक शांत धारा के समान प्रवाहित हो रहा है पर उसमें नीरसता नहीं है, सरसता है !  

आज एकादशी है, जून आज भी फील्ड गये हैं. टीवी पर गुरूजी को देखा सुना. वह गूढ़ ज्ञान को जिस तरह सरल शब्दों में व्यक्त कर देते हैं, वह अतुलनीय है. आज उन्हें सुनकर हर बार की तरह उनके चरणों में शीश झुक गया. कल भी उन्हें सुना तो प्रायश्चित तथा पश्चाताप का नया अर्थ सुना. जब चित्त पहले का सा हो जाये तो प्रायश्चित घटता है. किसी से कोई भूल हुई, हृदय ग्लानि से भर गया, भीतर पीड़ा हुई, पश्चाताप हुआ तब प्रायश्चित किया और हृदय पूर्ववत हो गया तब वह उस भूल से छूट जाता है. वे हर शब्द में नया अर्थ भर देते हैं. रक्तबीज का उदाहरण देकर कहा कि ध्यान की गहराई में जाने पर जीवन में परिवर्तन हो जाता है. कोई बार-बार होने वाली भूलों से बच जाता है, वरना रक्तबीज की तरह एक विकार को दूर करते ही दूसरा सर उठाकर खड़ा हो जाता है. कोई पूर्ण मुक्त होकर जीना चाहता है तो गुरू की शरण से बढ़कर कोई उपाय नहीं है. उसे लगता है ज्ञान जीवन की सबसे अमूल्य निधि है, उसका होना तभी सार्थक है जब हृदय में परमात्मा का वास हो, आँखों में उसकी छवि हो और श्वासों में उसके ज्ञान की खुशबू हो. परमात्मा ही परम पुरुष हैं, वही तो वह हैं जिन्हें वेदों में पुराण पुरुष कहा गया है. और ऐसे भगवान कितने सहज प्राप्य हैं, उन्हें एक बार प्रेम से पुकारो तो सही.. वे तत्क्षण उत्तर देते हैं.

आज शाम को सत्संग मे जाना है. फूलों का गुलदस्ता लिए, अनौपचारिक ढंग से मुख से हरिनाम का उच्चारण करते हुए स्वयं को पाने के लिए, जो स्वयं को भुलाकर ही सम्भव है. झूठी पहचान जब मिटती है तो सच्ची पहचान जगती है. खुद को खोकर ही कोई खुद को पाता है. आज उसके भीतर कैसी पीड़ा ने जन्म लिया है, यह कुछ खोने का अहसास है. कोई प्रिय जैसे बिछड़ा जा रहा हो, यह पीड़ा भीतर की है, इसका समाधान भी भीतर ही मिलेगा ! यह पीड़ा मुक्ति का साधन बनेगी !

दोपहर के तीन बजने को हैं, आज कई दिनों के बाद उसने पढ़ाया नहीं बल्कि स्वयं पढ़ा है. कल सुबह बच्चों को सिखाने जाना है. कल सत्संग में आर्ट ऑफ़ लिविंग की एक स्थानीय टीचर ने ब्लेसिंग कोर्स के अपने अनुभव कहे. चार एडवांस कोर्स करके कोई भी यह कोर्स कर सकता है तथा इसे करने के बाद दूसरों को आशीष दे सकता है, गुरूजी उसके माध्यम से दूसरों को ब्लेस करेंगे, उसके बदले में कुछ दान-दक्षिणा देनी होगी, जो सीधे आश्रम जाएगी. उसे पहले-पहल तो अटपटा सा लगा कि कृपा का भी कोई मूल्य हो सकता है क्या ? फिर बुद्धि ने कहा कि यह बात उसकी समझ से बाहर है अतः वह उसका भरोसा न करे, जब वह भी इस कोर्स को कर लेगी तभी इसका अनुभव होगा, अभी तो मात्र कल्पना ही कर सकती है. सद्गुरु के प्रति यदि मन में संशय जगेगा तो हानि स्वयं की ही होगी, अतः अब उसने इस बारे में सोचना छोड़ दिया है. संतों-महापुरुषों के आचरण के बारे में उन्हें टिप्पणी करने का क्या अधिकार है, उन्हें तो उस राह पर चलना है जो बतायी गयी है. योग और ध्यान की राह पर चलने से उनका लाभ ही लाभ है. श्रद्धा उन्हें निज स्वरूप तक ले जाएगी और अश्रद्धा कहीं भी नहीं, तो अच्छा यही है कि वह अपने काम से काम रखे और उन बातों के बारे में व्यर्थ ही न सोचे जो उसकी समझ से बाहर हैं !


आज एक सखी का जन्मदिन है, शाम को वे जायेंगे. इस समय दोपहर के साढ़े बारह बजे हैं, वर्षा लगातार पिछले कई दिनों से हो रही है, ठंड हो गयी है. निर्माणाधीन कमरे में मजदूर काम कर रहे हैं. वर्षा में भीगते हुए पंछी भी किसी तरह अपना दाना जुटा रहे होंगे !  तिनसुकिया में बम ब्लास्ट की खबर अभी एक सखी ने सुनी, तब उसे बतायी. 

Wednesday, August 26, 2015

हवा चली..


धन्य है भारतवर्ष और धन्य हैं वे कि उनके पास ज्ञान का अतुल भंडार शास्त्रों के रूप में विद्यमान है. वे इसकी महिमा को समझें और इसके अनुसार चलें. अपने से बड़ों की सेवा करना तथा उनका सम्मान करना तथा छोटों को स्नेह देना..आज पुनः उसने बेवजह शब्द मुँह से निकाले, फिर भी स्थिति पहले से बेहतर हुई है. कल रात जून ग्यारह बजे आए. नन्हे से बहुत दिनों के बाद अध्यात्म पर चर्चा की. ध्यान किया. इस समय वह किताब पढ़ रहा है, शेष सभी सो रहे हैं, बाहर तेज धूप है, भीतर एसी के कारण ठंडक है, इस बार वर्षा कम हो रही है वर्ष के इस हिस्से में. दोनों भांजे अपेक्षकृत शांत तथा सुधरे हुए बच्चे हैं, बात मानते हैं तथा खाने-पीने में भी ज्यादा नखरे नहीं करते हैं. शाम को सत्संग में जाना है, निकट ही एक परिचित के यहाँ है. सुमिरन बना रहता है आजकल, अनुभव यदि एक बार हो जाये तो विस्मृत हो भी कैसे सकता है. जैसे किसी को अपने होने का अहसास हर क्षण रहता है, वैसे ही उसके होने का ज्ञान भी सदा रहता है. उसका प्रेम भीतर रिसता रहता है और वही भीतर से उदित होकर बाहर बिखरता है. उन्हें सजग होकर उसके रूप को अशुद्ध होने से बचाना है. मन उसमें कुछ जोड़ने या घटाने लगता है तो वह प्रेम दूषित हो जाता है.

कल रात को गर्मी बहुत थी और थोड़ी देर के लिए बिजली गुल हो गयी, सभी परेशान थे, पर वह इसका लुत्फ़ उठा रही थी. गर्मी का असर नहीं हो रहा था भीतर की जीवंतता और मुखर हो उठी थी. जून आज फ़ील्ड गये हैं शाम को छह बजे तक आयेंगे. कल सुबह उसे दो सखियों के साथ बच्चों से मिलने जाना है, वे भी उतने ही उत्सुक होंगे जितनी उत्सुकता उन्हें है. बाहर सम्भवतः तेज हवा चल रही है, दरवाजे की आवाज से उसने अनुमान लगाया है, पिछले कई दिनों से हवा जैसे बंद थी. सुबह सद्गुरु को सुना था, अब कुछ याद नहीं है, आजकल वह धर्म को सुन नहीं पा रही पर जी रही है. हर समय भीतर एक ऊर्जा के प्रवाह को अनुभव करती है. ‘उसकी’ उपस्थिति का अहसास हर क्षण होता है. वह है तो वे हैं. अब लगता है जैसे मन की समता पहले से कहीं देर तक टिकी रहती है और यदि मन कभी एक क्षण के लिए विचलित होता भी है तो कोई भीतर है जो उसका साक्षी रहता है अर्थात होश तब भी कायम रह पाता है. इसी महीने उसका जन्मदिन भी आ रहा है, इस वर्ष उसने जाना यदि कभी कोई उसके बारे में लिखे तो लिख सकता है. सद्गुरु कहते हैं जो जानता है वह कहता नहीं किन्तु वह जिस जानने की बात कह रही है वह तो निज स्वभाव है.


फिर एक अन्तराल..कभी प्रमाद तो कभी व्यस्तता..आज नये महीने का पहला दिन है. पुनः संगीत का अभ्यास भी शुरू किया है और लिखना भी. परसों जन्मदिन था, अच्छा रहा. मौसम पिछले हफ्ते से ही सुहावना हो गया है. वर्षा दिन-रात नहीं देखती कभी भी शुरू हो जाती है, इस समय थमी है. पिछले हफ्ते सत्संग में उसने ‘अंकुर बाल योजना’ के लिए सभी को निमंत्रित किया. उसने इस प्रोजेक्ट का नाम अंकुर रखा है, इसमें वे छोटे-छोटे बच्चों को, जो अभी अंकुर हैं और भविष्य में वृक्ष बनेंगे, अध्यात्म के मार्ग पर प्रेरित कर रहे हैं. जिनके माता-पिता के पास उन्हें देने को संस्कार नहीं हैं, घरों का माहौल दूषित है, नशा आदि जहाँ रोज की बात है. प्राणायाम, ध्यान, सत्संग तथा योगासन के माध्यम से उन्हें एक सन्मार्ग पर ले जाने को प्रेरित कर रहे हैं.   

Tuesday, August 25, 2015

केलों का गुच्छा


आज गुरू माँ ने पुनर्जन्म की एक घटना कही, जिसमें उन्होंने कहा कि यदि किसी की यात्रा एक जन्म में अधूरी रह जाये तो वह अगले जन्म में पूरी हो सकती है. इसमें सद्गुरु मदद करते हैं. अगले जन्म में गुरू उसे प्रेरित करते हैं. सुनते ही उसे लगा कि सद्गुरु ने ही प्रेरित किया है और वह उसके मार्ग का निर्देशन कर रहे हैं, तभी पहली बार जब गौहाटी में उनके दर्शन किये तो चित्रलिखित सी खड़ी रह गयी और आज तक वह असर कम नहीं हुआ है. कितने अभागे होते हैं वे लोग जो गुरू कृपा से अछूते रह जाते हैं, कुछ तो वहाँ पहुंच कर भी और कुछ पहुंच भी नहीं पाते. आज सुबह मौसम अच्छा था जो दिन चढ़ते-चढ़ते गर्म होता गया है. दोनों भांजे जो परसों सुबह यहाँ आये थे, पूरी तरह रच-बस गये हैं. उनका साथ अच्छा लग रहा है. माँ-पिता के बिना बच्चे कितने मुक्त हो जाते हैं. माँ-पिता चौबीस घंटे उनके पहरेदार बन कर रहते हैं तो वे ठीक से स्वयं को व्यक्त नहीं कर पाते. सासु माँ टीवी देख रही हैं, दोपहर के तीन बजे हैं. आज एक और केले के पेड़ पर लगे फल तोड़ कर पकने के लिए घर में रखे, विशाल गुच्छा है सौ से अधिक होंगे शायद डेढ़ सौ. छोटा भांजा कितना छोटा सा है पर कितना साहसी, पौधों को पार करता केले के झुरमुट तक गया और उसे उत्साहित करने लगा. वह इतना मासूम है. तभी सद्गुरु कहते हैं बच्चों जैसे बनो. उसकी बातें दिल को छू लेती हैं. उसमें नन्हा कान्हा दिखाई देता है. सद्गुरु का ही यह प्रयास रहा होगा, तभी तो वह नन्हा बच्चा उसे प्रेम का पाठ सिखाने के लिए आया है.

आज उसने पुनः कठोर शब्दों का प्रयोग किया. सुबह नींद खुली उसके पहले एक स्वप्न देख रही थी. गुरू माँ को पुनः देखा, वह कितने अपनेपन से बात कर रही थीं. वह नाम लेकर बुलाती हैं, लोगों का जिक्र करती हैं. वह स्वप्न में किसी ग्रुप को निकट से निर्देशित कर रही थीं. आज सद्गुरु को भी सुना. वह थोड़े दूर से लगते हैं अपने होकर भी, वह खुदा की तरह हैं, वह तो स्वयं को भगवान कहते हैं, वह मिलकर भी नहीं मिलते और दूर होकर भी दूर नहीं होते. वह तो उसकी आत्मा हैं पर गुरू माँ उनकी सहायिका हैं, पथ प्रदर्शिका..उसके डायरी में उनका जिक्र ज्यादा हो रहा है, पता नहीं इसके पीछे क्या राज है. आज एक सखी की बेटी का रिजल्ट आया है, ९५% अंक हैं, दो विषयों में १००% हैं. उसने अपने माता-पिता को गौरव दिलाया है, वे भी उसको पूरा सहयोग देते आये हैं पढ़ाई में. आज शाम को वे उनके यहाँ जायेंगे. धूप बहुत तेज है, लॉन में पुनः झूला लगाने के लिए खंभे आज गाड़े गये हैं. नये कमरे का काम यूँ ही ठप पड़ा हुआ है. आजकल सुबह किचन में गुजर जाती है, दोपहर बच्चों के साथ तथा शाम को पुनः घूमना, नाश्ता और डिनर..पढ़ने का समय नहीं निकाल पाती. आज से प्रयास करेगी कि कुछ देर पढ़ सके. इस समय दोनों पेंटिंग कर रहे हैं. बच्चों के साथ ऊर्जा काफी व्यय होती है, वे तो ऊर्जा से भरपूर होते हैं, बड़ों को प्रयास करना पड़ता है. मन होता है कि..यह सोचते ही वह सजग हो गयी, जहाँ मन में कामना उठी कि शांति का हनन हुआ. जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकारना होगा, हर क्षण अपने आप में अमूल्य है, हर क्षण पूर्ण है, जो इस क्षण में तृप्त नहीं हुआ, वह कभी नहीं होगा !


दोपहर के डेढ़ बजे हैं, आज भी धूप तेज है. उन्हें उठने में आज थोड़ी देर हो गयी. रात को स्वप्न तो नहीं देखे, देखे भी होंगे तो याद नहीं, नन्हे ने कहा कि उसने एक स्वप्न में स्वयं को जलते हुए देखा, आत्महत्या करते हुए स्वयं को देखना.. कितना अजीब सा स्वप्न था, इस समय वह फुफेरे भाई को कम्प्यूटर पर बेसिक पढ़ा रहा है. छोटा रंग भर रहा है. सासु माँ के साथ वह अभी भी घुलमिल नहीं पा रही है. अज सद्गुरु ने कहा सभी के साथ घुलमिल कर रहना चाहिए, तो उन्होंने सुना और कहा, ठीक हो तो कह रहे हैं. लगा जैसे उसे लक्ष्य करके कह रही हैं. उसे लगता है जो हर वक्त कुछ चाहता है, उससे लोग दूर भागते हैं. किसी से कुछ भी पाने की इच्छा न हो तो सब कुछ अपने आप झोली में आने लगता है. आज उन्होंने ‘ध्यान’ भी किया, धीरे-धीरे वह अपने आप पर निर्भर रहना सीख लेंगी. वे सभी उन्हें प्यार करते हैं, उनका भला ही चाहते हैं, शायद पिछले जन्म का कुछ प्रभाव हो जो..पर उसे प्रतिक्रमण करना होगा और सारे हिसाब समाप्त करने होंगे, नये हिसाब तो शुरू ही नहीं करने हैं. कल शाम वे उस छात्रा से मिलने गये मिठाई खाने. इस हफ्ते उसने बच्चों को पुनः बुलाया है, वे महीने में दो बार उन्हें सिखायेंगे. उस दिन भोजन माँ बना लेंगी. उसने स्थान के लिए बात की तो सम्बन्धित महिला फौरन तैयार हो गयीं. आर्ट ऑफ़ लिविंग का यह प्रोजेक्ट अब यहाँ चलता रहेगा. गुरूजी का आशीर्वाद उन्हें मिल रहा है, मिलता रहेगा. वह इसे नारायण सेवा कहते हैं. बच्चों के रूप में भी स्वयं ईश्वर ही तो है !  

पॉवर ऑफ़ नाउ


परसों वह दोपहर बारह बजे एयरपोर्ट गयी, चार बजे लौटी, नन्हा खुश था, सामान काफी लाया है, ढेर सारे कपड़े कल धोये, प्रेस किये. उस दिन शाम को पौने छह बजे ही उत्सव स्थल पर पहुंच गयी, बच्चे पहले ही आ चुके थे. कार्यक्रम ठीकठाक हो गया, एक सखी ने रंगोली बनाई थी, सभी का सहयोग रहा, साढ़े नौ बज गये वापस आते. कल दिन भर कपड़े ठीक करने तथा मेहमानों( जो नन्हे से मिलने आये थे ) की देख-रेख में ही लग गया आज सुबह जल्दी उठ गयी, नन्हा दस बजे उठा, रात को तीन बजे वह सोया, उसे समझाना व्यर्थ है, भगवान भी शायद उसे नहीं समझा सकते. भगवान ने बन्दों को पूरी आजादी है, जैसे चाहें वे निर्णय लें, लेकिन उसका फल भुगतने को भी तैयार रहें. इस समय दो बजे हैं, अभी दो छात्राएं पढ़ने आएँगी, दोपहर के भोजन के बाद कुछ देर सो गयी, अभी भी तमस छाया है, पर काम में जुट जाओ तो सब चला जाता है. जीवन में एक लक्ष्य हो, ज्ञान हो तो ऊर्जा भीतर से मिलने लगती है.

जून कल आ रहे हैं, कल सुबह ही फोन करेंगे, कल ‘पटाया’ से उन्होंने बताया. नन्हे ने कम्प्यूटर में कुछ फेरबदल कर दी है, सुबह से ही उसे ठीक करने में लगा है. उसकी सुबह ग्यारह बजे शुरू होती है जैसे उसकी रात दो बजे शुरू होती है. पता नहीं आज की पीढ़ी को क्या हो गया है. वे निरे व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं, अकेले पड़ जायेंगे वे इस तरह. वह कहता है कि कोई अच्छा दोस्त नहीं है, शायद लगाता है एकाध नाम के आगे, शायद यह उम्र ही ऐसी है, इस साल वह बीस का हो जायेगा. वह भी जब बीस की थी अब से कितनी अलग थी. जीवन उन्हें कई पाठ पढ़ाता है और उम्र के साथ वे परिपक्व होते जाते हैं. कल शाम लाइब्रेरी से दो किताबें लायी है, पॉवर ऑफ़ नाओ तथा टिप्स फॉर 366 डेज, दोनों अच्छी हैं. किताबें सच्ची मित्र हैं, कितना साथ देती हैं वे हर परिस्थिति में. सुबह गुरूजी को सुना, एक ने पूछा कि क्या वे सूक्ष्म शरीर से साधक के साथ रहते हैं और उनका id भी माँगा. दोनों ही सवालों के जवाब उन्होंने गोल-मोल दिए, पहले में कहा कि आप क्या मानते हैं, यदि संशय है तो भ्रम है, यदि विश्वास है तो सत्य है अर्थात यह साधक के मानने पर निर्भर करता है कि गुरू उसके साथ हैं, और दूसरे में कहा कि उनकी आईज डिवाइन हैं, यह उनका id है, अर्थात वे ईमेल का जवाब नहीं देते. उनके पास जो रहते हैं, शायद वही उनसे अपने सवालों के जवाब पा सकते हैं, शेष तो सत्संग में सबके सम्मुख ही रहकर उनसे प्रश्न पूछ सकते हैं. उसे तो लगता है कि संतजनों के दर्शन मात्र से वे जितना पा सकते हैं उतना उनसे सवाल पूछकर भी नहीं, वे अपने जीवन के माध्यम से ही संदेश दे रहे हैं. गुरूजी ने कहा, मन तथा इन्द्रियां फ्रीक्वेंसी एनालाइजर हैं.   

आज एक सेल्समैन से घर बैठे मेजपोश अदि खरीदे. सभी का एक सा रवैया होता है कि किस तरह ग्राहक को अधिक से अधिक बुद्धू बनाया जाये. अब वह पहले कई बार बन चुकी है बुद्धू सो आज थोड़ा मोलभाव किया, पर आज भी कुछ तो कमाया ही होगा, घर-घर धूप में जाकर सामान बेचते हैं, शहर-शहर घूमते हैं, उन्हें भी कई तरीके आते हैं..खैर जो भी हो..वे भी तो उसी परमात्मा का एक रूप हैं, तो कौन किसे ठगेगा.? जून की फ्लाइट ढेढ़ घंटा लेट है. रात को एक बार नींद खुली, ढाई बजे थे, नन्हे को सोने के लिए कहा और स्वयं की नींद गायब, उसके पूर्व एक स्वप्न देखकर नींद खुली थी. कितना अजीब सा स्वप्न था, अचेतन मन में क्या-क्या छिपा रहता है, जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होता. न जाने कितने जन्मों के संस्कार दबे हुए हैं. पॉवर ऑफ़ नाउ अब ज्यादा समझ में आ रही है. शुद्ध वर्तमान में केवल ईश्वर है और कुछ नहीं, आदमी जो होता है या तो भूत के कारण या भविष्य की कल्पनाओं के कारण. शुद्ध वर्तमान में मन रहता ही नहीं. जिस क्षण मन की आवश्यकता हो उसे ले आयें और शेष समय स्वयं में रहें.   

Monday, August 24, 2015

नीला नभ उजला पाखी


सेवा का जो इतना गुणगान किया गया है, वह यूँ ही नहीं है. आज बच्चों को उन्होंने अपना जो समय दिया वह कितना शांति प्रदायक रहा उनके स्वयं के लिए. गुरूजी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में उन्होंने एक सेवा का प्रोजेक्ट लिया है. अभी तो यह शुरुआत है, धीरे-धीरे वे इसे और बढ़ाएंगे. कल रात को उसे नींद ही नहीं आ रही थी. शाम को वर्षा में भीगते हुए बच्चों के घर जाकर उन्हें बुलाने का दृश्य बार-बार आ रहा था हृदय पटल पर. गुरूजी लाखों लोगों को एक साथ लेकर कार्य करते हैं और शांत रहते हैं, इधर वे हैं कि छोटा सा भी कार्य उन्हें उद्वेलित करने को पर्याप्त है. उसे थोड़ी सी थकान का अनुभव हो रहा है, कल शाम दो घंटे और आज दो घंटे जो नया कार्य किया शायद उसके कारण, पर उसका मन बहुत शांति में है. आज सुबह बंद आँखों के सम्मुख गुरूजी का चेहरा अपने –आप ही आ रहा था, जैसे वह दूर से ही आशीष दे रहे हों. अभी नन्हे से बात हुई, वह यात्रा में हैं, परसों इस समय तक घर पर होगा, जून उसके और नन्हे के घर में..जब वह छोटा सा था तो वे तीनों एक साथ मिलकर कहा करते थे – ‘वे तीनों’. जून को कल बैंकाक जाना है उसके बाद सम्भवतः वे उनसे बात नहीं कर पाएंगे. आज भी मौसम सुहावना है, प्रकृति भी उनके साथ है, सभी कुछ धुला-धुला स्वच्छ है. भीतर भी कोई विचार नहीं उठ रहा. गुरू माँ कहती हैं जिसके मन में विचारों की दौड़ नहीं है वह मुक्त है. उसने प्रार्थना की, सद्गुरु का जन्मदिन मनाने का सौभाग्य उन्हें ऐसे ही मिलता रहे बरसों बरस,  वे स्वयं को जानने की तरफ कदम बढ़ाते रहें, भीतर प्रेम का दरिया बहता रहे और कविताओं के रूप में उसके मन के भाव प्रकट होते रहें, अहंकार का नाश हो !

उनकी स्वतन्त्रता का मोती चमकता रहे, साधना का यही तो लक्ष्य है. जहाँ बंधन है, वहाँ दुःख है, जब उन्हें अपनी सीमाओं का बोध होता है तो भीतर कैसी पीड़ा होती है, साधना के द्वारा वे वहाँ पहुँच जाते हैं, जहाँ कोई सीमा नहीं, कोई बंधन भी नहीं. आत्मा नित मुक्त है और वे आत्मा हैं, अनंत ऊर्जा और प्रेम का भंडार ! उनके भीतर प्रेम का दरिया अविरत रूप से बह रहा है, उनकी खुद की प्यास की तो बात ही क्या, वे अपने आस-पास भी एक सुंदर गुलिस्तां बना सकते हैं, उनके प्रेम की महक से जहाँ को महका सकते हैं. जो कार्य उन्होंने शुरू किया है उसे अवश्य ही जारी रखना होगा. आज सुबह साढ़े चार बजे नींद खुल गयी, नन्हे को फोन किया वह कोलकाता पहुंच चुका है. कल इस समय वह उसे लेने जाएगी, कल शाम को उसे कुछ देर के लिए अकेले रहना होगा, जब वह जन्मदिन के उत्सव में जाएगी. आज टीवी पर सुना कि वस्तु से ज्यादा महत्वपूर्ण है व्यक्ति, व्यक्ति से विचार, विचार से विवेक और विवेक से से भी ज्यादा महत्व परमात्मा का है, तो वह परमात्मा के लिए यदि व्यक्ति को कुछ देर के लिए छोड़ती है तो यह कत्तई गलत नहीं होगा. नन्हा इसे अवश्य समझेगा, बच्चे बड़ों से कई मामलों में अधिक विवेकी होते हैं. उपरोक्त बात सुनकर उसे अपने द्वारा की गई व्यक्ति की उपेक्षाएं स्मरण तो आयीं पर कारण वस्तु कदापि नहीं था, परमात्मा ही था, ध्यान, सत्संग ही वे कारण थे.

वर्षों पूर्व उसने अपनी एक डायरी के कवर पर लिखा है – “नीलवर्णी स्वच्छ गगन में विचरते श्वेत वर्णी पक्षी के उज्ज्वल पंखों की आभामयी ज्योति उसके मन को प्रकाशित कर दे”.. और उसकी वह पुकार अनसुनी नहीं गयी. गुरूजी कह रहे हैं भयरहित होने के चार कारण हो सकते हैं, अहंकार, घृणा, प्रेम और ज्ञान. रावण अहंकारी था, उसकी निडर अवस्था में जड़ता है पर ज्ञानी सबको सरंक्षण देता है, उसमें एक मस्ती होती है. थोडा बहुत भय यदि किसी के भीतर रहे तो वह अहंकारी होने से बचा लेता है, प्रकृति उनका बचाव करने के लिए भय देती है. आज ही उत्सव है, शाम को सत्संग तथा भोजन का आयोजन किया गया है. उसे बारह बजे नन्हे को लेने जाना है, अभी साढ़े नौ बजे हैं. भोजन बनाना है, तैयार होना है. सुबह ध्यान नहीं कर पायी, फोन आते रहे, बाहर से फूल तोड़े, नन्हे का कमरा ठीक किया. रास्ते में ध्यान कर लेगी, नैनी ने कहा है वह भी जाएगी, तब तो शायद बातचीत भी होती रहे. एक दक्षिण भारतीय सखी ने फोन किया वह बहुत उत्साहित थी. आज ‘बुद्ध पूर्णिमा’ भी है, गोयनका जी के साथ ही थोड़ी देर ध्यान हो जायेगा. ध्यान उसके जीवन का अभिन्न अंग बनता जा रहा है, परमात्मा तब स्वयं आते हैं उससे बातें करने, वे क्या सोचेंगे, इसके पास सारी दुनिया से बातें करने के लिए समय है पर मेरे साथ बातें करने के लिए वक्त की कमी पड़ गयी. सद्गुरु ने आज बताया कि जिस क्षण यह पूर्ण विश्वास हो जाता है कि एक माँ को जैसे बच्चे की फ़िक्र रहती है, उसी तरह परमात्मा को उसकी फ़िक्र है, वह उससे वैसे ही प्रेम करता है तो जीवन में कोई दुःख नहीं रहता, प्रेम ही प्रेम भर जाता है, सद्गुरु भी उनकी चिंता करते हैं !  


Friday, August 21, 2015

मलेशिया का मौसम


अभी-अभी नैनी ने कुछ कहा पर वह ठीक से सुन नहीं सकी और कुछ और समझ कर उस बात का जवाब दिया. उसका ध्यान पूरी तरह से उस पत्र में था जो वह सद्गुरु को लिख रही थी. आज सुबह एक परिचित का फोन आया, तीन दिनों के लिए उन्हें स्थान मिल जायेगा. कोई शुभ कार्य करने जब कोई निकलता है तो प्रकृति उसमें सहायता करने को आ जाती है. उसे लगता है उनका यह सेवा प्रोजेक्ट बहुत सफल होगा. ईश्वर के लिए किया गया कार्य कभी असफल हो ही नहीं सकता. कुछ देर पहले जून का फोन आया था, सुबह ससुराल से पिताजी का फोन भी आया, टिकट कराने की बात कह रहे थे. आज सुबह चिड़ियों की आवाज ने जगाया, स्वप्न में देखा( या वह तंद्रा थी) कि नीले आकाश में गुरूजी आगे-आगे तथा वह पीछे-पीछे चल रही है. मौन है प्रकृति ! मौन से ही ओंकार की उत्पत्ति हुई, उस दिन यह बात सुनी, यह बात सीधे दिल में उतर गयी है, मौन भाने लगा है..भीतर का मौन, कभी-कभी जब कोई विचार नहीं रहता वह इस मौन को सुनती है. यही वह शांति है, जिसे वह अनुभव करती आई है उसमें से फिर आनंद फूटता है, सभी क्यों नहीं इस आनंद को चख पाते, कितना सहज है यह पर जिसे नहीं मिला उसके लिए उतना ही कठिन ! तभी तो कहते हैं ईश्वर निकटतम है और दूरस्थ भी ! वह तो जैसे कृत-कृत्य हो गयी है. कृतज्ञता से कभी-कभी आँखें भर आती हैं. शास्त्रों के वचन कितने सच्चे लगते हैं. संतजन प्रिय लगते हैं और परमात्मा अपने लगते हैं, यही तो भक्ति है न !
बाहर तपन है पर भीतर शीतलता है ! जिसे तृष्णा की आग नहीं जलाती वह सदा ही शीतलता का अनुभव करता है. आज सुबह उठी तो मन-प्राण ध्यान से पूर्ण थे, आज एकादशी है, मन भोजन का ध्यान तो कर रहा है पर फलाहार का ही. मन का निरोध करना तो सम्भव नहीं लगता हाँ उसकी धारा को एक गति अवश्य दी जा सकती है. कल ध्यान करते समय मन में वह घटनाएँ मुखर हुईं जिनमें अन्यों का दोष देखा था. अपनी गलती तब नजर नहीं आई थी, पर अब स्पष्ट दिखी. भीतर की गंदगी को बाहर कर ध्यान पवित्र कर देता है. उस दिन जून जो इतना क्रोधित हुए तो बिलकुल सही था. उसने श्रद्धा का दामन छोड़ दिया था, अपनी अस्वस्थता से कितनी शीघ्र घबरा गयी थी. धैर्य का साथ छोड़ देने से वे बाहरी वस्तुओं, व्यक्तियों, परिस्थितियों को अपने सुख-दुःख के लिए दोषी मानने लगते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि उनके स्वयं के कर्म ही उन्हें सुखी-दुखी बनाते हैं, फिर जिन्हें वे स्वयं से भी अधिक प्रेम करते हैं, उन्हें अपनी पीड़ा के लिए ( अपनी तुच्छ पीड़ा के लिए ) दोषी ठहराना तो निहायत ही घटिया काम है. वह कितना नीचे गिर गयी थी, ईश्वर ने सब देखा होगा, हंसा होगा वह कि उससे प्रेम का दम भरने वाली स्वयं का दर्द नहीं सह पायी. इस जन्म में जिस किसी को भी उसने जितनी भी बार दुखी किया है, सबमें उसका दोष स्पष्ट रूप से था, वह सभी से क्षमा मांगती है ! अपने उस दोष के कारण ही उसने स्वयं भी बहुत दुःख उठाया है, अब और नहीं..बस..यह बात सदा याद रहे !

हँसी आती है अपनी मूर्खता पर कि अपने जिस दुःख को वह इतना महत्व दे रही थी, वह तो कुछ था ही नहीं, उसकी तुलना में औरों के दुःख कितने बड़े थे पर वे तब भी मुस्कुरा रहे थे. उसका अहंकार ही तुच्छ से दुःख को बड़ा करके दिखाता है बल्कि जहाँ नहीं भी होता वहीं खड़ा कर लेता है. आज ब्यूटी पार्लर में काम करने वाली एक लड़की की बातें सुनकर लगा कि वह अपने सारे दुखों के बीच कितनी शांत है. उसके पिता कैंसंर के मरीज हैं, मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं. कल उसने जून से कहा कि ठीक ही चल रहा है, वह सोच रहे होंगे ऐसा क्या हो गया, आज फोन आने पर कहेगी कि सब कुछ बिलकुल ठीक है. वहाँ का मौसम कैसा है ? खाना कैसा मिलता है ? शाम को क्या करते हैं? तथा तबियत कैसी है ? उसने उनके बारे में कुछ पूछा ही नहीं, अपने तथा नन्हे के बारे में ही बताती रही. जून घर से दूर हैं, उन्हें उससे ज्यादा सम्भल कर चलना होता होगा. आज ध्यान में अद्भुत अनुभव हुआ, उससे पहले सद्गुरु का स्मरण हुआ और मन कृतज्ञता से भर  गया, कितना विश्वास है उनके भीतर, कितनी सहजता, कितना अपनापन, कितना प्रेम..उन्हें सुनना एक अनोखा अनुभव है, वह शांति का सागर हैं, सुबह उठी तो कैसी बेचैनी थी कि अभी तक सत्य का भान नहीं हुआ, पर उन्होंने बताया कि जो भी विकार हैं उन्हें देखते रहें, निर्मूल करने जायेंगे तो वे और दृढ़ होंगे, भीतर अपने आप से जुड़ते जाना है तो जो व्यर्थ है वह छूटता जायेगा अपने आप ही ! क्रोध के प्रति क्रोध का आना भी बंद करना होगा. प्रकाश, प्रवृत्ति तथा मोह के उत्पन्न होने पर भी जो न तो हर्षित होता है न उद्ग्विन होता है, वही कृष्ण के शब्दों में स्थिरमति है ! 

Thursday, August 20, 2015

गोपी गीत


आज उनके यहाँ सत्संग है. सुबह सवा पाँच बजे नींद खुली, उसके कुछ देर पूर्व प्रार्थना की तब तंद्रा  थी, गुरूजी कहते हैं वह संध्याकाल है, तब वे आत्मा के निकट होते हैं. जिस तरह वे जागृत, सुषुप्ति तथा स्वप्नावस्था का अनुभव करते हैं, वैसे ही तुरीयावस्था का भी कर सकते हैं. जब वे ध्यान की  गहराई में होते हैं. पिछले कई दिनों से जैसे वह ध्यान ठीक से नहीं कर पाती अथवा तो अब वह उसकी सामान्य दिनचर्या बनता जा रहा है, अथवा तो ध्यान अब अलग से करने जैसी कोई विधि नहीं रह गया है. उसे हर क्षण ही मन पर नजर रखनी है, न व्यर्थ का चिन्तन न व्यर्थ की कल्पनाएँ ही, तभी भीतर की शांति को ऊपर आने का अवसर मिलेगा. अभी एक परिचिता से बात हुई उन्होंने एक अन्य महिला के बारे में बताया, जिनके पति को बोन मैरो का अंतिम स्टेज का कैंसर है. आज ही मद्रास से वे लोग आ रहे हैं. स्वामी रामदेव कहते हैं कि प्राणायाम से कैंसर भी ठीक होता है, आज उनकी बात पर विश्वास करने का मन होता है. आbज सुबह से कुछ नहीं सुना, लगा कि बाहर से अधिक ज्ञान भरने से कहीं अपच न हो जाये, जो सुना है उस पर मनन भी तो करना चाहिए. सभी संत तथा सभी शास्त्र एक ही बात कहते हैं कि स्वयं को देह मानना मोह है. जड़ प्रकृति के साथ अपनी एकता मानना भूल है. स्वयं को परमात्मा का अंश मानना तथा असीमता का अनुभव करना ही उनका ध्येय है. जड़ तथा चेतन के संयोग से उनका जन्म हुआ है, तो वे जड़ को ही क्यों अपना रूप मानें क्यों न चेतन से जुड़ें, क्योंकि जड़ तो मिटने वाला है पर चेतन सदा रहता है वह पुनः जड़ से मिलकर नया शरीर धरेगा. यदि मुक्त हो गया तो विदेह हो जायेगा अन्यथा उसे विवश होकर आना पड़ेगा भिन्न-भिन्न योनियों में !

उसकी एक सखी के पैरों व लोअर बैक में दर्द है, वह अपने इस दर्द को हिम्मत से सह रही है. ठीक ही कहा गया है यह संसार दुखों का घर है, यहाँ वे अपने ही किये पूर्व कर्मों का फल भुगतने को बाध्य हैं. ज्ञान उन्हें सचेत करता है कि आगे ऐसे कर्म न बांधें जो दर्द का कारण बनें. ईश्वर कृपा ही करता है जब कष्ट भेजता है. वे ज्यादा सहिष्णु बनें, सजग बनें और दूसरों के दुःख-दर्द को समझें ऐसा वह उन्हें सिखाना चाहता है. वे उसके इशारे को समझ नहीं पाते, वे सोये रहते हैं, वह चाहता है वे उसके साथ आनंद में नाचें झूमें गएँ ! वह कहाँ चाहता है कि वे दुखी हों, उसने तो मानव को अपने जैसा बनाया था, वह तो उनके साथ खेलना चाहता था, वे ही उसकी ओर पीठ करके बैठ गये और अपने छोटे-छोटे सुखों को.. कांच के टुकड़ों को सहेजने में लग गये, उन्हें हीरे और कांच में भेद करना कहाँ आता है, उन्हीं टुकड़ों को सहेजने में वे कर्म बांधते रहे फिर दुखों के भागी हुए, दोष दूसरों को दिया, अपने ही बनाये जाल में वे बार-बार फंसते रहे. ईश्वर सब देखता है और सद्गुरु को उनके पास भेजता है !


दोपहर के डेढ़ बजने वाले हैं, जून अब तक मलेशिया पहुंच चुके होंगे, शायद कुछ देर में उनका फोन आये. नन्हे से बात हुई, उसके टीचर से भी बात हुई कैमिस्ट्री में उसकी हाजिरी कम है इस सिलसिले में, लापरवाही के कारण उसने मेडिकल सर्टिफिकेट पहले नहीं दिखाया, खैर ! मौसम ठंडा हो गया है, रात भर वर्षा होती रही, सुबह से भी रुक-रुक कर हो रही है, रात को सोने में देर हुई, सखी के यहाँ से आते-आते ही दस बज गये थे. काफी देर नींद नहीं आई, बाद में स्वप्न देखती रही, गुरुमाँ को देखा, उनके घर आई हैं, खूब बातें कर रही हैं, बिलकुल अपनों जैसी. एक बार देखा कि उसके हाथों-पैरों पर लाल रंग के कोई जीव चिपक गये हैं पर वह भय व्यक्त नहीं कर रही, आराम से उन्हें निकाल रही है, स्वप्न की दुनिया कितनी झूठी होती है, वास्तविकता से उसका जरा भी संबंध नहीं, ऐसी ही बाहर का संसार हैं, भीतर की शांति से उसका जरा भी संबंध नहीं. वह शन्ति जो मौन में है, ध्यान में है, मन से भी पार है, जो बस ‘है’, जिसका बोध तब होता है तो बोध करने वाला भी खो जाता है, वह स्वयं बोध ही हो जाता है. कल शाम को एक सखी की प्रतीक्षा करते हुए भक्तियोग पर एक प्रवचन सुना, सगुण साकार ईश्वर की भक्ति से जो आनंद मिलता है वह निराकार की भक्ति से नहीं मिल सकता. भागवत में ‘गोपीगीत’ पढ़ा था, गोपियों का प्रेम कृष्ण के लिए कितना अधिक था, वे उनके प्राण थे. पर उनकी पूजा तो सुविधा पर निर्भर करती है. भगवान भी जानते हैं कि यदि अभी वे उनके पास नहीं गये तो कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा, वे सोचते हैं अभी तो बहुत वक्त है, आराम से बाद में भक्ति-पूजा कर लेंगे ! जून का फोन आया है, उन्होंने उसके लिए एक स्टिल डिजिटल कैमरा खरीदा है. नन्हा इलेक्ट्रोनिक्स की परीक्षा की तैयारी कर रहा है. कल दीदी और बड़ी ननद से भी फोन पर बात की. 

Wednesday, August 19, 2015

नोकिया का फोन


मई महीने का आरम्भ कितनी तेज धूप और गर्मी से हुआ है. दोपहर के एक बजने वाले हैं, आज जून ने उसे नोकिया का सेल फोन लाकर दिया, जो दिल्ली से एक मित्र द्वारा मंगवाया है. उसका गला अब काफी ठीक है.  पिछले दिनों जून ने उसका उसका बहुत ध्यान रखा, वह उसका हितैषी है. उनके प्रेम में कामना है वह स्वयं को जानते नहीं और अभी जो वे जानते हैं उसी को सत्य मानते हैं. कामना वैराग्य को दृढ़ होने नहीं देती. उसे गर्मी ने सताया तो एसी की आवश्यकता महसूस हुई. इसी तरह हर क्षण इस शरीर, मन को संतुष्ट करने के लिए कितने ही साधनों की आवश्यकता होती है. अपनी क्षमता के अनुसार हर कोई उसकी पूर्ति भी करता है. बस इसी में सारा जीवन चला जाता है. परमात्मा की ओर बढ़ते कदम वहीं थम जाते हैं और जगत की चकाचौंध में खो जाते हैं. सुख की तलाश में वे सुख के स्रोत को ही भूल जाते हैं. उसका जीवन एक शांत धारा की तरह अनवरत बह रहा है, इसकी मंजिल प्रभु है, इसका जल आत्मज्ञान है. उसके भीतर की शांति अखंड है, सभी कामनाओं से परे !  

उसका मोबाइल फोन काम करने लगा है, अभी उसे बहुत कुछ सीखना है, sms करना, game खेलना उसमें प्रमुख है. जून आज दिल्ली चले गये, उन्हें मलेशिया जाना है अगले हफ्ते. नन्हे के आने तक उसे अकेले रहना है. उसके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दो व्यक्ति. यह सही है कि माँ-पिता के बिना तो भौतिक अस्त्तित्व इस देह में होना कठिन है, माँ जाने कहाँ होंगी, जहाँ भी होंगी, अवश्य ही प्रसन्न होंगी. पिताजी से परसों ही बात हुई, उन्हें ख़ुशी है कि वे शीघ्र ही उनसे मिलने जायेंगे. जून को उसने जानबूझ कर कभी भी दुखी करना नहीं चाहा, पर अनजाने में वह उसके कारण बहुत दुखी हुए हैं. वह दिल से पश्चाताप करती है और उनके प्रेम का आदर भी. जून के मन में उसके लिए बहुत प्रेम है, वह शरीर, मन, बुद्धि से परे जा नहीं पाये हैं सो नूना की बातें उनकी समझ में नहीं आतीं, पर वह उनके प्रति कृतज्ञता अनुभव करती है. उनके कारण ही उसकी साधना तीव्रतर हुई है. जो भी अनुभव उसे हुए हैं, उसमें उनका बहुत योगदान है. उसने प्रार्थना की कि उसके अंतर की शुभकामना उस तक पहुंचे. नन्हे को भी उसने मूर्खतावश दंडित किया होगा, पर उसके पीछे ममता रही होगी. उसे भी उसके जीवन में आकर मातृत्व प्रदान करने के लिए बहुत-बहुत प्रेम.. और कोटि-कोटि प्रणाम उसके सद्गुरु को जिन्होंने उसे दूसरा जन्म दिलवाया !


आज से नन्हे की परीक्षाएं आरम्भ हो रही हैं, आज गणित की परीक्षा है जो उसे कठिन लगने लगा है. जून ने वीसा के लिए अप्लाई कर दिया है. योग वसिष्ठ में सत्य ही कहा गया है कि इस जगत में कुछ भी बिना पुरुषार्थ के नहीं मिलता और ऐसा कुछ नहीं जो पुरुषार्थ से न मिले. प्रमोद महाजन यह मानते थे कि जगत में कुछ भी पहले से तय नहीं किया गया है अर्थात वे स्वयं ही अपने भाग्य के निर्माता हैं. उनकी मृत्यु आज बाहरवें दिन हो गयी, एक भाई के हाथों अपने भाई की नृशंस हत्या का यह मामला कितने सवाल उठाता है. ऊंचाई पर जाकर भी अपने परिवार को उपेक्षित नहीं करना चाहिए, पहले अपने इर्द-गिर्द के लोगों के चेहरे पर मुस्कान आए फिर दुनिया और समाज की चिंता कोई करे. लेकिन जो भी आगे बढ़ता है वह अपने पीछे कितनों को रुलाता ही है. हर वस्तु की कीमत चुकानी पड़ती है. यदि व्यक्ति हर समय सजग रहे तो वह सभी को साथ लेकर चल सकता है. आज क्लब में दो टॉक सुनने को मिलीं. प्लास्टिक का बढ़ता हुआ प्रकोप तथा अपनी सेहत के प्रति लापरवाही. एक डांस  का प्रोग्राम बेहद आकर्षक था तथा गीत भी. कल की तरह आज भी सोते समय कमरे के दरवाजों को अंदर से बंद करना उसके मन के भय को दर्शाता है. जहाँ भय है वहाँ प्रेम हो ही नहीं सकता और जहाँ प्रेम नहीं है वहाँ परमात्मा कैसे आ सकते हैं ! परमात्मा तो प्रेम से ही प्रकट होते हैं, तभी उसका मन सूना-सूना सा रहता है, आँखें मुस्कुराती नहीं, होंठ गाते नहीं, कदम थिरकते नहीं ! जैसे कुछ खो गया है, आज पता चला कि जो खो गया है वह और कहीं नहीं उसके ही मन में छुपा है, उस डर के पीछे, उस डर को निकाल दे तो वह उजागर हो जायेगा ! 

Tuesday, August 18, 2015

पंछियों का संसार


उसका गला हल्का सा खराब है, देह को स्वस्थ रखना कितना आवश्यक है सभी के लिए. सुबह-सुबह चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दी और नींद खुल गयी, पंछी दिन भर बिना थके बोलते रहते हैं, उस दिन animal planet पर सुंदर पक्षियों को देखा था, अच्छा लगा. प्रकृति के निकट आते ही वे अपनी आत्मा के निकट चले जाते हैं. इस क्षण वह अपनी आत्मा के निकट ही है ऐसा अनुभव हो रहा है. अब मन पहले जैसा नहीं रहा जो हर वक्त बीच में अपनी टांग अड़ाता था, अब कहना मानता है. आखिर मन है क्या, कुछ आशा कुछ निराशा, पर जब वे अपने सही स्वरूप में होते हैं कुछ पाने की आशा नहीं, कुछ खोने की निराशा नहीं.. पीड़ा या दर्द होता भी हो तो वह सात्विक है, इस बात के लिए कि वे किसी के काम नहीं आ पा रहे. आत्मा के निकट होने पर ईश्वर से उनकी दूरी मिटती नजर आती है. उसके प्रेम को वे अनुभव करते हैं, उसका प्रेम ही स्वयं को समर्पित करने को प्रेरित करता है. वे जीवन को पूरी गहराई से जीना चाहते हैं, सच्चाई से..उनके वचनों, कर्मों तथा विचारों में एकता आने लगती है. कल सत्संग में उसने जो कहा वह पूरे दिल से कहा था और उसको साकार होने में कोई रुकावट नहीं है उसकी तरफ से. सत्य की ही जय होती है, उसे हर कीमत पर सत्य का ही आश्रय लेना होगा, अपने जीवन के हर मोड़ पर !

आजकल उसे लगता है कि उसके जीवन की कहानी का सूत्रधार कहीं बैठा-बैठा इसके पन्नों को खोल रहा है, बाद में कुछ घटने वाला है इसके लिए वह पहले पृष्ठभूमि तैयार करता है. सदा ही ऐसा होता आया होगा पर पहले सजगता नहीं थी. ‘संजय घोष’ की पुस्तक पढ़कर उसे सेवा करने का प्रोत्साहन तो मिला ही तरीका भी पता चला. उस दिन जून के दफ्तर में भी सामाजिक कार्यों के बारे में पढ़ा था, इसका लाभ गुरूजी के जन्मदिवस के अवसर पर किये जाने वाले सेवा कार्य में उसे अवश्य मिलेगा. जून को जब दिल्ली से वापस आकर अस्वस्थ देखा तो उसे ठीक से भोजन का ध्यान न रखने के लिए टोका, पर कान्हा को अपने भक्तों का अहंकार जरा भी पसंद नहीं. उसके गले में दर्द है, यह इसका प्रमाण है. प्रकृति को उनका प्रमादी रहना पसंद नहीं है. यह भी समझ में आया कि दूसरों के अस्वस्थ होने पर उनसे सहानुभूति प्रकट करनी चाहिए न कि उनके दोष बताने चाहिए. जून के माध्यम से जीवन में कितने ही पल आते हैं जब उसे यह जांचने का मौका मिलता है कि भीतर समता बनी है अथवा नहीं.


आज सुबह साढ़े चार बजे नींद खुली, पहला विचार प्रार्थना का था, रात का जो अंतिम विचार था वही ! क्रिया करते-करते अंत में खांसी के कारण उठाना पड़ा. सम्भवतः उसका गाने का अभ्यास फेफड़ों को स्वस्थ रखने में सहायक था, सो आज से पुनः नियमित अभ्यास करेगी. प्रभु का नाम गाने से फेफड़ों के स्वास्थ्य के साथ-साथ मन भी पवित्र होता है. आज नन्हे के कमरे में रंग-रोगन होने के बाद सामान दोबारा ठीक-ठाक करके रखा, कुछ अभी शेष है. टीवी पर बाबाजी बच्चों को कहानियाँ सुन रहे हैं. कैसे सरल होते हैं संत, जो अपने ज्ञान को छिपाए बच्चों के साथ बच्चे बन जाते हैं. जब वे सारे आग्रह छोड़ देते हैं तो जीवन अपने-आप चलने लगता है. सारे कार्य वैसे भी हो रहे हैं, वे व्यर्थ ही स्वयं को कर्ता मानकर अभिमान का भार ढोते हैं !       

Monday, August 17, 2015

प्रकृति के नियम


उसने प्रभु से जो माँगा है, वह उसने उसे प्रदान किया है. उसने उससे ‘सदगुरू’ मांगे थे जो सहज ही उसे मिले, स्वयं ही उसके जीवन में आये. उसने उससे भक्ति मांगी जो प्रेम के रूप में उसके रग-रग में समाई है. उसके भीतर अनंत प्रेम उस परमात्मा ने भर दिया है कि उसके लिए उसका अंतर छोटा पड़ता है, तो उसने उससे सेवा का अवसर माँगा और अब उन्हें एक दिन गुरूजी के जन्मदिन के उपलक्ष में सेवा का कार्य करना है. अवश्य ही उनका प्रयास सफल होगा. वे अपने साधनों के द्वारा तथा अपने प्रेम के द्वारा उन लोगों तक पहुंचेंगे जो एक तरह से उनके समाज का अंग होते हुए भी  उनसे कटे हुए हैं. उनके घरों में काम करने वाली महिलाओं के घरों की वास्तविक स्थिति से वे अनभिज्ञ ही हैं. उनके दिलों में झांककर कभी देखा ही नहीं. उन्हें भी उनका प्रेम व ज्ञान मिले तो वे अपने परिवारों को अच्छा पोषण दे पाएंगी. उसका इरादा नेक है और सद्गुरु की कृपा है. सेवा करने का भाव भीतर प्रकट हो तभी से सफलता का आरम्भ हो जाता है. वे अपना आप देना चाहते हैं, सामुदायिक चेतना का विकास करना चाहते हैं. जो भी धर्म के मार्ग पर चलता है उसकी मंजिल लोक संग्रह ही होती है, सभी के भीतर उसे परमात्मा की छवि दिखाई पड़ती है. परमात्मा से प्रेम करने का अर्थ ही है उसके बन्दों के काम आना.

आज सुबह वे उठे तो वर्षा हो रही थी, वर्षा होने में कर्ता तो कोई भी नहीं, फिर भी कार्य तो हुआ, कृष्ण कहते हैं जो कर्म में अकर्म को देखता है अर्थात कर्तापन से मुक्त है और जो अकर्म में कर्म को देखता है अर्थात कुछ न करते हुए भी करता है, उसके द्वारा सहज ही कृत्य हो रहे हैं. वे कर्म तो करें पर फल की इच्छा न हो तो कितनी परेशानियों से बचे रहते हैं, जब कुछ भी न करें तो न करने के अपराध बोध से भी ग्रसित न हों, क्योंकि सहज रूप से जो सामने आये वही करना तथा विशेष कर्म का आग्रह न रखना भी साधक के लिए आवश्यक है. उसने सोचा नहाना-धोना, भोजन आदि कर्म तो सहज ही होते हैं, लिखना-पढ़ना भी होता रहे, सामने कोई पत्थर आ जाये तो हाथ उसे उठाते रहें, कोई दुखी आये तो हाथ उसके आँसूं पोछते रहें, पर करने का अभिमान न आये, तभी वह कर्मों के बंधन से मुक्त रहेगी. मन खाली रहेगा और खाली मन में प्रभु आकर बसते हैं. पता नहीं कौन सा पल होगा जब उसे ऐसा अनुभव होगा.

आजकल वह एक नई पुस्तक पढ़ रही है. अच्छी है, प्रकृति के नियमों की जानकारी यदि उन्हें हों और वे उसके अनुसार जीना शुरू कर दें तो जीवन एक उत्सव बन जाता है, उनका हर क्षण एक अमूल्य अनुभव ! वे इस धरा पर मानव देह पाकर एक अनोखी यात्रा पर निकले हैं, वह यात्रा है उनके भीतर की यात्रा, अनंत सम्भावनाएं उनके भीतर छुपी हैं. अनंत ऊर्जा, आनंद तथा शांति का खजाना उनके भीतर है. वे जब इस धरा पर आये थे तो निर्दोष थे. जगत के प्रभाव में आकर दिन-प्रतिदिन अपने मूल स्वरूप पर आवरण चढ़ाते गये, वे असहज होकर जीने लगे और परिणाम हुआ कि वे अपने भीतर एक दर्द और तथा डर को जगह देते गये. जब-जब वे अपने मूल स्वरूप से खिलाफ कार्य करते हैं, तब-तब एक दर्द भीतर उत्पन्न होता है. उनके भीतर जो परमात्मा है वह साक्षी है उनके कृत्यों का. वे ऊपर-ऊपर से अपनी गलतियों पर भले पर्दा डाल दें या उन्हें उचित सिद्ध कर दें, भीतर जो सही है वही सही है, जो गलत है वह गलत है. उनके भीतर जो डर हैं, वे भी उन्हें सच बोलने से रोकते हैं. वे डरते हैं कि यदि लोगों से ज्यादा प्रेमपूर्ण व्यवहार करेंगे तो फंस जायेंगे, डर के कारण ही वे अपने भीतर के प्रेम को घुट-घुट कर खत्म हो जाने पर विवश कर देते हैं. प्रेम करना उनका स्वभाव है, सत्य बोलना भी उनका स्वभाव है, दया, करुणा तथा अपनत्व.. ये भी उनका मूल स्वभाव है इसके विपरीत जो भी है, वह झूठ है, ओढ़ा हुआ है और वह उन्हें नुकसान पहुँचाता है !  

Friday, August 14, 2015

टिंडे की सब्जी


आज सुबह चार बजे ही नींद खुल गयी, रात को जल्दी सो गयी थी. मन अपेक्षाकृत शान्त है, किन्तु अभी भी पहले की सी स्थिरता नहीं आई है. यात्रा में ध्यान में जो व्यवधान पड़ा उसका असर स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है. मन में बेवजह ही विचार चलते रहते हैं, कभी भूत के, कभी भविष्य के, कभी आत्मग्लानि के, कभी अहंकार के, वह साक्षी भाव से सभी को देखा करती है. उनके भीतर कितना कुछ भरा पड़ा है. एक ब्रहमांड बाहर है तो एक उनके भीतर भी है. कभी-कभी ध्यान में कुछ चेहरे दीखते हैं, कौन हैं वे, शायद उसके किसी पिछले जन्म के परिचित या उसके स्वयं के चेहरे ! उस दिन कैसा अजीब स्वप्न देखा था, एक पौधे के तनों के सिरों पर जानवरों के चेहरे, पौधा और जन्तु एक साथ. पौधा जैसे कीट बन गया था या कीट जैसे पौधा बन गया था. उसे यह बताने के लिए स्वप्न आया होगा कि द्वैत नहीं है. सब एक ही है. उस दिन आश्रम में भी तो यही विचार बार-बार मूर्त होता हुआ लग रहा था कि सभी कुछ एक ही तत्व से बना है, एक ही तत्व भिन्न-भिन्न रूपों में प्रगट हो रहा है. सब उसी एक आत्मा का विस्तार है. दृष्टिकोण यदि विशाल हो तो सारे छोटे-छोटे भेद, दुःख, दर्द खत्म हो जाते हैं. सद्गुरु उन्हें इसी विशाल दृष्टि को अपनाने को कहते हैं. मेरे-तेरा का झगड़ा अब बहुत हो चुका, अब तो उत्सव की बेला है, अमृत बरस रहा है, ज्योति जल रही है, प्रकाश में नहाना है तथा अमृत छकना है. भीतर तृप्ति तभी मिलेगी, नहीं तो जगत के सामान भरते-भरते उम्र निकल जाएगी और हाथ कुछ भी नहीं आएगा. उनके सम्मुख हर क्षण दो रास्ते होते हैं, एक प्रेय दूसरा श्रेय, चुनाव उन्हें करना है तभी कल्याण होगा !

जून आज आ गये हैं, उनका गला खराब है, इस समय आराम कर रहे हैं. आज सुबह वह देर से उठी, रात को देर तक पढ़ती रही फिर कुछ देर ध्यान किया और सुबह स्वप्न देखती रही. सद्गुरु कहते हैं जैसे ही नींद खुले उठ जाना चाहिए, सोये रहना ठीक नहीं है, तमस बढ़ता है, प्रमाद ही मृत्यु है. आज पढ़ा कि आयु मिली है ईश्वर की प्राप्ति के लिए, वे व्यर्थ ही सोकर गंवा देते हैं, उतनी देर ध्यान –भजन करें तो यह कमाई होगी. उसे ईश्वर ने कितनी सुविधाएँ दी हैं ध्यान-भजन के लिए, आजकल तो विशेष रूप से, थोड़ा सा घर का काम और हाथ में ढेर सारा समय परमात्मा को याद करने के लिए. आज दो घंटे ध्यान करने का प्रयत्न किया, पता नहीं कितनी देर वास्तव में ध्यान घटित हुआ. मन आजकल वश में नहीं रहता, यहाँ तक कि क्रिया के वक्त भी इधर-उधर भाग जाता है, वह शेष समय उस पर ध्यान नहीं देती शायद इसीलिए ! गुरुमाँ ने कहा था कि जो विचारों से मुक्त है वही  मुक्त है. अब से मन पर ज्यादा ध्यान रखेगी. आज यहाँ कई दिनों बाद धूप निकली हाई. पहली बार एसी चलाया इस वर्ष. पहली बार टिंडे बने हैं. जून दिल्ली से लाये हैं, भिस, टिंडे तथा बेबी कॉर्न. कल दीदी का फोन आया था, परसों जीजाजी से बात की उन्हें लगा कि उसके भीतर वैराग्य ज्यादा ही जाग रहा है. उसकी एक सखी का भी यही विचार है उसकी सासूजी ने बताया और इधर उसे लगता है कि राग छूटता ही नहीं, राग-द्वेष से मुक्त मन ही तो ध्यानस्थ हो सकता है. सद्गुरु कहते हैं कुछ जान के चलो, कुछ मान के चलो, वे साधना के पथ पर प्रगति कर रहे हैं यह मानना ही चाहिए तभी प्रेरणा मिलेगी.     


Thursday, August 6, 2015

नन्ही नन्ही चिड़ियाँ


आज सुबह पाँच बजे से थोड़ा पहले चिड़ियों की चहचहाहट से उठी. कल शाम सत्संग से लौटी तो जून क्लब में ही थे, उन्हें रात को देर से घर आना था. अकेले भोजन किया और जन्मदिन की कविता लिखी. तेजपुर में एडवांस कोर्स होने वाला है, उसने पूछने से पहले ही कल्पना कर ली थी कि जून का जवाब नकारात्मक रहने वाला है, सो सुबह उनकी सहज रूप से कही बात कि कोई और जा रहा है या नहीं, उसे नागवार गुजरी, उसने कहा किसी के जाने या न जाने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. मन ने प्रतिक्रिया की और शायद उसी का असर है कि मन उत्साहित नहीं है, अब जो वस्त्र बिलकुल स्वच्छ हो उस पर हल्का सा दाग भी चुभता है, जो मन पूरी तरह शांत रहने का आदी हो उसे जरा सी भी बेचैनी नहीं सुहाती. उसके भीतर जो डर है कि उन्हें नाराज करके वह नहीं जी सकती, शायद इस बेचैनी का कारण वही है. जहाँ प्रेम होता है वहँ डर नहीं होना चाहिए, जहाँ डर है वहाँ प्रेम नहीं है. यह डर उसके अवचेतन में बैठ गया है. उसे यदि मुक्त होना है तो इससे छुटकारा पाना होगा. ईश्वर है, सद्गुरु है, ज्ञान है, पर भीतर तब भी अँधेरा है तो इसका अर्थ है कि वे सब कुछ नहीं कर सकते, अपने भीतर का अंधकार स्वयं ही दूर करना है, उन्हें देखकर प्रेरणा ले सकते हैं पर यदि कोई यह सोचे कि उनके सारे दुखों का अंत कृपा से ही हो जायेगा तो यह भूल है.

भीतर ही भीतर ऐसा लगता है कि कहीं कुछ अधूरा रह गया है. सद्गुरु ने जो कहा वह उस पर नहीं चल रही. लेकिन यह आत्मग्लानि तो सेवा न करने से ज्यादा घातक है. इससे बचने को तो उन्होंने विशेष तौर पर कहा है. जब अवसर मिले तब सेवा के कार्य से पीछे न हटना भी तो सेवा है. स्वयं से परे जो भी है उसका कार्य करना संसार की सेवा ही कही जाएगी, ध्यान भी उसमें आ जायेगा. आज योग वसिष्ठ में उद्दालक का चरित्र पढ़ा, कितनी अद्भुत पुस्तक है यह, स्वामी रामसुखदास ने कहा कि जड़ता से संबंध तोडना है तो चित्र से मोह क्यों ? अब भविष्य में फोटो नहीं खिंचाएगी ?
‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले, तेरा साहिब है घर माहिं बाहर नैना क्यों खोले ?’ जब तक संसार के अच्छे-बुरे कहने की परवाह थी तब तक भीतर की मस्ती का पता नहीं था. उसकी एक सखी ने कहा, अब उसके जीवन में सब स्पष्ट है..वह इसी वर्ष एक सन्तान को गोद ले रही है. उसे खुश देखकर नूना को बहुत ख़ुशी हुई, उसका ज्ञान टिका तरहे ऐसा उसने प्रार्थना की.

आज सुबह भी चिड़ियों ने जगाया, रात सोने में देर हुई. कल दोपहर लेख लिख लिया आज उसे टाइप करना आरम्भ किया है. शाम को एक परिचित वृद्ध महिला आने वाली हैं, उससे पहले शाम के सब काम खत्म करने हैं. अभी चार बजने को हैं, कुछ देर पहले दीदी से बात की, जीजाजी का स्वास्थ्य कुछ दिन पहले बिगड़ गया था, अब ठीक है. उन्होंने याद दिलाया कि सद्गुरु के प्रति उसके मन में कितनी भक्ति से भरी भावनाएं हैं. आजकल वह अपने मन को देख रही है, वह ज्यादा समय जगत में खोया रहता है, वैसे उसे परेशान नहीं कर रहा और न ही स्वयं है. भीतर एक अलग ही वातावरण बन गया है, जहाँ अब दो नहीं हैं. गुरू और ईश्वर जो पहले जुदा प्रतीत होते थे कि उनसे प्रेम किया जाये अब कोई भेद ही नहीं लगता, जैसे कोई तलाश पूरी हो गईं है. जैसे जो जानना था जान लिया है. एक तृप्ति का अहसास हो रहा है. यह भावना बिलकुल अलग है, पहले भी तृप्ति का अहसास होता रहा है पर वह भिन्न भाव था. सद्गुरु ने ही उसके मन पर कोई जादू किया है, कोई असर डाला है. विरह के दिन जैसे समाप्त हो गये हैं और मिलन की शांत धारा में मन बह रहा है. जून और नन्हा दोनों से रात को बात होगी. वे उसे छोड़ने गये हैं. आज बहुत दिनों बाद धूप निकली है, दो-दो माली बगीचे में काम कर रहे हैं, आज मजदूर कमरा बनाने नहीं आये. लग रहा है जैसे जीवन में एक ठहराव आ गया है, पर सुबह सद्गुरु को भजन गाते देखकर कदम थिरके जरूर थे !    


Tuesday, August 4, 2015

कान्हा संग होली


पिछले दिनों घर में काम चलता रहा और होली की तैयारी भी, कल ‘होली’ भी होली ! होली के लिए जो हास्य कविता लिखी उसके अतिरिक्त कुछ नहीं लिखा पिछले दिनों, पढ़ा भी नहीं. बस कानों में प्रभु का नाम अवश्य पड़ने दिया. कृष्ण के प्रेमावतार, रसावतार की चर्चा कल होली उत्सव में सुनी तो हृदय द्रवित होकर बहने लगा. यह कमरा अब बहुत साफ-सुथरा लग रहा है, धुले हुए पर्दे, दीवारों पर नया-नया डिस्टेम्पर तथा फर्श पर पॉलिश. परसों उन्हें यात्रा पर निकलना है. उसे विश्वास है बैंगलोर प्रवास के दौरान गुरूजी से भेंट होगी. उसके जीवन की यह पहली यात्रा है जब वह किसी आश्रम में कुछ समय व्यतीत करने के उद्देश्य से जा रही है. उसका मन गहन शांति का अनुभव कर रहा है, हृदय प्रेम और श्रद्धा से भरा है. आज शाम को साप्ताहिक सत्संग में जाना है. आज ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ की एक महिला टीचर से बात की, जो उम्र में उससे छोटी है. बात करते ही लगा वह कितनी स्थिरमना है. वह सद्गुरु के निकट रह चुकी है, कितनी साधना उसने की है, वह परिपक्व है. उसने सोचा क्लब की मीटिंग में उसे बुलाएगी, वह अन्य महिलाओं को कोर्स करने के लिए प्रेरित कर सकती है. सेवा के इस कार्य में वह उसकी सहायता करेगी.

आज उन्हें यात्रा पर जाना है. उसके अंतर की इच्छा ने ही फल का रूप लिया है अब इससे जुड़े सारे सुख-दुःख की निर्मात्री वह स्वयं है. सारे दुखों का कारण व्यक्ति स्वयं होता है यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाये उतना ही अच्छा है, अध्यात्म का साधक स्वयं की जिम्मेदारी स्वयं उठाना जानता है. मन को असंग रखकर यदि द्रष्टा भाव से जीये तो बिना किसी बाधा के यात्रा फलीभूत होगी. यात्रा से कोई फल मिले ऐसी भी आशा नहीं है, बस कृतज्ञता स्वरूप की जा रही है यह यात्रा, सद्गुरु के प्रति कृतज्ञता और उस परमात्मा के प्रति कृतज्ञता जो कण-कण में व्याप्त है !


उन्हें यात्रा से आये कई दिन हो गये हैं, उन दिनों मन एक अद्भुत लोक में ही जैसे विचरण करता था. इस समय दोपहर के सवा दो बजने को हैं. उसने अभी-अभी योग निद्रा का अनुभव लिया. कैसे अद्भुत दृश्य और ध्वनियाँ, वह स्वप्न था अथवा.. सुबह ध्यान किया गुरूजी के नये सीडी के साथ. कभी-कभी लगता है कि मंजिल अभी भी उतनी ही दूर है, यह मार्ग बहुत कठिन है फिर उनका हँसता हुआ चेहरा याद आता है. उनकी कृपा अवश्य उसपर है, किसी भी कीमत पर उसे अपने को उस कृपा के योग्य बनाना है. उसे कल्पनाओं की दुनिया से निकलकर ठोस धरातल पर आना है. जीवन को उसकी पूर्णता में जीना है. जीवन केवल बाहर ही नहीं भीतर भी है और जीवन केवल भीतर ही नहीं बाहर भी है, दोनों का समन्वय करना होगा. सत्संग में पढ़ने के लिए एक कविता लिखनी है. दीदी के मेल का जवाब भी लिखना है. सद्गुरु को उस डायरी में पत्र लिखना है और इतवार को एक सखी की बिटिया का जन्मदिन है उसके लिए कविता लिखनी है. लेडीज क्लब के लिए एक लेख लिखना है, लिखने का इतना कार्य सम्मुख हो तो कैसा प्रमाद. ध्यान के समय किसी की उपस्थिति का अनुभव श्वासों के रूप में होता है, यह भी एक रहस्य है, कौन है जो उसके दाहिने कान के पास आकर गहरी सांसे भरता है मगर प्रेम से !

Monday, August 3, 2015

खून की होली


उसे इस बात का पता तो चल गया है कि कर्मों की गठरी जितनी छोटी होगी मुक्ति उतनी ही जल्दी मिलेगी और जितनी बड़ी होगी, उतनी ही देर लगेगी. यह तो तय है कि साधक की गठरी बढ़ती नहीं है, धीरे-धीरे खाली हो जाती है, तब अहंकार जो पहले सजीव था, निर्जीव हो जाता है. उसके बाद ही वास्तविक पुरुषार्थ आरम्भ होता है. मुक्ति के बिना भक्ति भी नहीं होती, जब मन क्षुद्र बातों से मुक्त होगा तभी न अनंत की ओर जायेगा.

कल रात स्वप्न में अपने हाथों पर, बाँहों पर खून लगा देखा. बनारस में कुछ दरिंदों ने बम विस्फोट किये भीड़ भरी जगहों पर, उनसे तो समाचार भी देखे नहीं जा रहे थे, जो लोग शिकार हुए होंगे, उनकी हालत का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है. वर्तमान समाज को कितने हमले झेलने पड़ रहे हैं, पहले बाहर से आक्रमण होते थे तो लोग उसके लिए तैयार रहते थे लेकिन आज के युग में हिंसा कितनी घिनौनी हो गयी है, हिंसा सदा से ही घृणित है लेकिन उसका यह रूप वीभत्स है. निर्दोष लोग, बेखबर अपने कामों में लगे लोग इस बेरहमी से उड़ा दिए जाते हैं मानो कोई खिलौना हों. यह एक बड़ी साजिश है, या नियति का चक्र, यह प्रारब्ध है अथवा मानव की हैवानियत. मानव के भीतर का पशु जागता है तो वह खून का प्यासा हो उठता है. उसके भीतर उन आतताइयों के प्रति भी सहानुभूति जगती है, उन्हें किस कदर अंधकार ने अपनी गिरफ्त में ले रखा है. वे अनजान हैं इसके परिणाम से. कर्मों के खेल में क्या वे बचे रह पाएंगे ? एक साधक ऐसी स्थिति में क्या करे, क्या वह हाथ पर हाथ धर कर बैठा रहे अथवा तो सब कुछ परमात्मा पर छोड़ दे. आए दिन देश में कहीं न कहीं बम फटते रहते हैं, काश्मीर, असम था अब बनारस भी नहीं बचा. उसके भीतर भी एक विषैला कारखाना है जहाँ कटु शब्दों के बम बनते हैं. विपासना करते-करते उसका उसका पता चला है. उन कारखानों को ही उड़ाना है, ताकि उसकी भाषा संयत हो, मधुर हो, उसके लायक हो तथा प्रेम से भरी हो !


आज का दिन और दिनों से कुछ अलग है. सुबह नाश्ता भी नहीं किया था, अभी व्यायाम ही करके उठी थी कि मिस्त्री/ मजदूर आ गये, नये कमरे के लिए द्वार तो भीतर से ही बनेगा, कमरे को फटाफट खाली किया. शोर में ही पाठ किया और नाश्ता. तब तक हेयर ड्रेसर आ गयी. जून की पसंद के बाल काटे हैं हैं उसने, छोटे-छोटे कर दिए हैं, अब तीन-चार महीनों तक कटवाने की जरूरत नहीं, शायद साल भर तक ही. घर कैसा फैला-फैला लग रहा है, मौसम भी गर्म हो गया है, बाहर बगीचा भी बिखरा-बिखरा सा पड़ा है, माली कई दिनों से नहीं आया. बाहर जो तीसरा कमरा बन रहा है उसके कारण भी लॉन गंदा हो गया है. कल शाम जून ने कहा कि मई में वह मलेशिया जा सकते हैं, दो हफ्ते लगेंगे, चाहे तो वह घर जा सकती है, पर उसका बैरागी मन इसके लिए तत्पर नहीं है, बल्कि इन दिनों का उपयोग वह साधना के लिए कर सकती है. एडवांस कोर्स या विपश्यना का दस दिनों का कोर्स, यही उन दिनों का सबसे अच्छा होगा. इस समय दोपहर के तीन बजे हैं, वह अभी दायें तरफ की पड़ोसिन से बात करके आई है उसके माली के लिए जो फ़िलहाल तो बुखार में पड़ा है.  

Sunday, August 2, 2015

बारिश के बाद


आज शिवरात्रि है, शिवतत्व की महिमा का वर्णन सद्गुरु ने किया. वह शिवतत्व सृष्टि के कण-कण  में है. उसे भीतर जगाना ही वास्तविक पूजा है. खाली मन में वह स्वतः ही प्रकट हो जाता है. वह कल्याणकारी है, शाश्वत है. उसे एक बार अनुभव कर लेने के बाद वह कभी विस्मृत नहीं होता. उसके रहस्य धीरे-धीरे खुलते हैं पर कभी समाप्त नहीं होते. वह जान कर भी नहीं जाना जाता’. उसने मन ही मन सद्गुरु से कहा वे अगले महीने आश्रम आ रहे हैं, वे उन्हें मिलेंगे न !
फिर एक अन्तराल..पहले तीन दिन एक सखी की बिटिया को गणित पढ़ाया, फिर शनि-इतवार. वैसे कोई कार्य यदि करना है तो समय निकाला जा सकता है पर आजकल सहज प्रेरणा होने पर ही कुछ कर पाती है, अब किसी भी कार्य से कुछ पाना है, ऐसी भावना नहीं रह गयी है, बस जैसे प्रकृति के सभी कार्य अपने-आप ही हो रहे हैं, वैसे ही मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रियों के कार्य सहज रूप से होते हैं, क्योंकि वे भी प्रकृति का ही अंग हैं, और वह है चेतन, जो स्वयं में पूर्ण है ! उसे लगने लगा है कि अब से उसके जीवन में जो भी घटने वाला है, वह अपने आप ही घटेगा. उसे उसमें न तिलमात्र भी बढ़ाना है न तिल मात्र भी घटाना है.
आज बाहर गिट्टियां डाली गयी हैं, नया कमरा बनने वाला है, नींव के लिए तैयारी हो रही है, पिछले हफ्ते ही काम शुरू हुआ फिर वर्षा के कारण रुक गया. अगले महीने उन्हें यात्रा पर जाना है, बंगलुरु में आश्रम, तथा नन्हे के कालेज, उसके आगे केरल भी. कल घर पर बात हुई तो पता चला छोटे भाई को पीलिया हो गया है, उसे कुछ दिन घर पर रहकर आराम करना होगा. कल उन्होंने व्रत भी रखा था पर दिन भर फलाहार चलता रहा. जून का व्यवहार फिर पूर्ववत हो गया है. इंसान कितना भी बड़ा क्यों न हो जाये उसके भीतर का बच्चा हमेशा वैसा ही बना रहता है. यदि कोई बड़ा होना ही न चाहे तो कोई क्या कर सकता है !
जून ने यात्रा का सारा कार्यक्रम तय कर लिया है. सद्गुरु ने इतना बड़ा आयोजन किया है, उनका उद्देश्य महान है, वह सारे जगत की चिंता कर सकते हैं पर उसे न तो अपनी चिंता करनी है न ही जगत की, वैसे सद्गुरु भी सभी कुछ अविशिष्ट रहकर नहीं कर सकते. जब तक यह देह है तब तक प्रारब्ध के अनुसार जो फल मिलने वाला है, उन्हें भी कर्म तो करने ही पड़ेंगे, हाँ वे उन कर्मों के भोक्ता नहीं बनेंगे.

मार्च का पहला सोमवार, मौसम सुहाना है बाहर भी और भीतर भी. रात को तूफान आया था वर्षा हुई गर्जन-तर्जन के साथ और अब सभी कुछ धुला-धुला सा लग रहा है, शीतलता का अहसास लिए पवित्रता जैसे घर करती जा रही है. आजकल नियमित लिखने का क्रम छूटता जा रहा है, मन सदा मस्ती में डूबा रहता है, ऐसी खुमारी में.. जिसको कहा तो जा नहीं सकता, वह ऐसी अछूती है इतनी निर्दोष कि उसको महसूस ही किया जा सकता है. आजकल उसके मन की तरह तन भी बिलकुल खुला-खुला अनुभव करता है, कोई बंधन नहीं, कोई आत्मग्लानि नहीं, कोई अपराध भावना नहीं, कोई उलाहना नहीं, कोई शिकायत नहीं, भीतर कोई बाधा नहीं, मन के दरवाजे जैसे पूरी तरह खुल गये हैं. वह आर-पार देख सकती है, मन के पार विस्तीर्ण आत्मा है पावन, आनंद से भरी और मन के इधर तन है, निष्पाप, कोई कलंक नहीं है. मन स्वयं कभी-कभी पूर्व संस्कारों के कारण पल भर के लिए भटकता भी है तो वह झट उसे पार कर आत्मा में चली जाती है और बस जैसे जादू हो जाता है, उसके भीतर की इस अनोखी भावदशा को उसका ईश्वर जानता है या उसका सद्गुरु ! आज सुबह नींद से उसने उसे जगाया, उसे अपनी बाँह को ठेले जाने का अहसास हुआ और वह जाग गयी. कोई नहीं था, सो वही होगा उसकी आत्मा का मीत, मन का मीत तो स्वयं सो रहा था !