Monday, March 30, 2015

चित्रों की प्रदर्शनी


आज बाबाजी अपने विट्ठल को याद करते-करते भाव समाधि में प्रविष्ट हो गये हैं, और उन्हें इस तरह परम आनंद में मगन देखकर हजारों की भीड़ भी भाव विभोर हो गयी है. परम भाग्य होता है तभी संत या सद्गुरु मिलते हैं और उनकी कद्र हृदय जानता है. वास्तव में सद्गुरु क्या है ? कौन है ? कोई नहीं जान पाता. उनकी कृपा का एक अंश ही मिल जाये तो कल्याण हो जाता है लेकिन उसे पाने के लिए अहम् को पूरी तरह नष्ट करना होगा. जहाँ प्रेम होता है वहाँ परमात्मा तत्क्षण जवाब देते हैं, हृदय के सच्चे प्रेम को वह अस्वीकार नहीं कर पाते और धीरे-धीरे भक्त के हृदय से अहंकार नष्ट होने लगता है. कल शाम वह सत्संग में गयी, बाद में भोजन का भी इंतजाम था, पर चना-पूरी खाने की जरा भी इच्छा नहीं थी सो वह लौट आयी. कल सुबह दोनों ननदों को पत्र लिखे, अब यह प्रतीक्षा नहीं करनी है कि उनका जवाब भी आये और ऊपर से यह भी कि वह उसके अनुकूल हो, यह तो अहंकार को पोषने वाली बात होगी. आज सुबह वे उठे तो देखा नन्हा रात को कम्प्यूटर चलाकर बिना मच्छरदानी लगाये, बत्ती जलाये ही सो रहा था. दूध भी ऐसे ही पड़ा था. शायद वह सोने नहीं गया था नींद ने उसे घेरे में ले लिया. कल उसकी किताबें भी दिल्ली से आ गयीं. इस वर्ष कोचिंग के कारण उसे नूना से पढ़ने की जरूरत नहीं है, यानि उसे साधना के लिए समय मिलेगा. आत्मिक बल बढ़ेगा, सहनशीलता बढ़ेगी, उपेक्षा जगेगी, अपेक्षा कमेगी !

आज सुबह चार बजे उठी, वातावरण में निस्तब्धता छायी थी. ढेर सारे अमरूद गिरे हुए थे. पका हुआ फल स्वयं ही झर जाता है ऐसे ही परिपक्व मन स्वयं ही झुक जाता है, अपरिपक्व मन हठी होता है. आज नन्हा स्कूल नहीं गया है. कल बड़ी ननद की राखी मिली, पत्र भी नहीं है और जल्दी में भेजी गयी लगती है. ईश्वर ही सबका रखवाला है और वही तो अपनों के माध्यम से सबकी सहायता करवाता है. कल एक सखी के यहाँ गये वे, उसके पतिदेव का जन्मदिन था. उसकी सासूजी से बातें किन. वह इस उमर में भी काफी संयत लगती हैं. एक सुसंस्कृत महिला..वह भी वृद्धावस्था में ऐसी ही रहेगी. सजग अपने स्वास्थ्य के प्रति था अपने व्यवहार, अपनी बातों के प्रति भी.

मन पुनः उद्ग्विन हुआ. कारण वही है इच्छा’. कल शाम वे कला प्रदर्शनी देखने गये. मन ललक उठा कि इनमें से एक तो उनके घर की शोभा बढ़ाए. जून को येन, केन, प्रकारेण मनाया कि वे एक पेंटिंग खरीदेंगे. लेकिन आज सुबह विचार आया कि अभी तक वस्तुओं के प्रति आकर्षण कम तो नहीं ही हुआ है सो मुक्त कैसे होगा मन ? जून को जैसे ही कहा कि इतना जरूरी नहीं है कि पेंटिंग ली ही जाये लेकिन जैसे ही ये शब्द कहे, मन ने फिर एक दांव फेंका कि छोटी ही ले ली जाये. यानि आकर्षण इतना प्रबल था कि..मन को समझना बहुत मुश्किल है. पर उसे उस पर नजर रखनी ही है. जून ने जब ऐसा कुछ कहा जो उसे पसंद नहीं था तो उसे भी समझाने लगी. नैनी देर से आयी तो उस पर भी झुंझलाई. अर्थात मन पर नियन्त्रण नहीं था. प्रेय और श्रेय दो प्रकार के कर्म होते हैं. जो कार्य तत्पल सुख दें वे प्रेय है लेकिन भक्त को, साधक को तो श्रेय का मार्ग अपनाना होगा. पहले तो उसे यह निर्णय कर लेना चाहिए कि वह एक सांसारिक व्यक्ति है अथवा एक साधिका, यदि साधिका है तो उसे सजग रहना ही होगा. किसी के दोष देखना बंद करना होगा औरों को सुधारने से पूर्व अपने अंदर की हजारों कमियों को दूर करना होगा. व्यर्थ का चिन्तन, व्यर्थ की वाणी और व्यर्थ के कार्यों से भी स्वयं को दूर करना होगा, और ऐसा करना ही अंतत सुख का कारण होगा. क्षणिक सुख का नहीं ऐसा सुख जो बाद में पछतावे का कारण बने. श्रेयस कार्यों को करने के बाद पछताना नहीं पड़ता. परम लक्ष्य को प्राप्त करना ही उसका ध्येय होना चाहिए. सदा उसके सम्मुख आदर्श रहे, क्योंकि मन को तृप्त करना वैसा ही है जैसे अग्नि को ईंधन देना, मन को तृप्त करते करते वे चुक जायेंगे पर इसे तृप्त नहीं कर सकते जबकि ईश्वर को पाने की इच्छा ही अपने आप में शांतिदायक है. यह प्रारम्भ में, मध्य में और अंत में भी सुखद है ! यह मुक्त करती है जैसे वह परमात्मा मुक्त है, हर तरफ व्याप्त  ऐसे ही वह उन्हें बनाना चाहता है पर वे हैं कि देह के घेरे से बाहर आना ही नहीं चाहते !     



Friday, March 27, 2015

दिल का ताला




ईश्वर उनका अन्तरंग है, उसकी उपासना करने के लिए विधि विधान की नहीं भाव भरे हृदय की आवश्यकता है. सहज रूप से जब अंतर में उसके प्रति प्रेम की हिलोर उठे तो उसी वक्त पूजा हो गयी, फिर धीरे-धीरे यह प्रेम उसकी सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के प्रति उत्पन्न होने लगता है, सभी में उसी के दर्शन होते हैं. कल शाम को उसे सड़क पर साइकिल पर जाते एक हॉकर को देखकर उसे बुलाकर कुछ देने का मन हुआ, शुद्ध प्रेम के कारण, पर उसने स्वयं को रोका क्योंकि बिना कुछ काम कराए वह शायद कुछ लेना पसंद भी नहीं करता और जून को उसकी इस बात के पीछे की भावना भी समझ में नहीं आती. ...और आज सुबह एक दिवास्वप्न देखा कि उसे ईश्वर प्राप्ति हो गयी है और..खैर, दिवास्वप्नों की बात यहीं छोड़ दे. अभी बहुत सफर तय करना है. एकांत में रहे तो ज्ञान सदा साथ रहता है. मन प्रसन्न व मस्तिष्क उद्वेग रहित, स्पष्ट..लेकिन जब इस ज्ञान को व्यवहार में लाने का समय आता है तो मन पुराने संस्कारों के कारण विक्षेपित हो जाता है. सारा ज्ञान कुछ पल के लिए तो धरा ही रह जाता है, इतना अवश्य है कि शीघ्र ही कोई सचेत करता है पर तब तक वह क्षण गुजर चुका होता है. यह भी सही है कि पहले की तरह बाद में मन शीघ्र संयत हो जाता है, रेत पर पड़ी लकीर की तरह..पर उसे तो अपने मन को पानी की धार सा बनाना है जिस पर कोई लकीर पड़े ही न. अपने मन के विश्वास को, सरलता को बचाकर रखना है. आज भी वर्षा बदस्तूर जारी है. ‘जागरण’ में नारद भक्ति सूत्र पर चर्चा हो रही है. उसका भी अनुभव है कि जब कोई ईश्वर को याद करता है उसी क्षण वह जवाब देता है. पर जब कोई अभिमान वश या अन्य किसी कारण से उसे भुला देता है और दुःख में होता है तो वह नहीं आता अर्थात मन उसे ग्रहण नहीं करता. इसका अर्थ हुआ कि यदि लगातार उसका सान्निध्य चाहिए तो ध्यान भी अनवरत चलना चाहिए. एक पल का भी विस्मरण पुनः उसी स्थिति में ला देता है.

आज सुबह छोटी बहन को फोन किया उसका जन्मदिन है, बड़ी बिटिया को स्कूल छोड़ने जा रही थी सो थोड़ी देर ही बात हो सकी. दोनों ननदों से भी बात हुई, छोटी का स्वास्थय ठीक नहीं है. बड़ी ने बताया ननदोई जी मुम्बई में रहने लगे हैं, शनिवार को घर आते हैं. घर-बाहर के सारे कार्य उसे खुद ही करने होते हैं. सासु माँ आजकल आयी हुई हैं, इस वक्त टहलने गयी हैं. कल क्लब में लेडीज क्लब की चेयर परसन से मिलना हुआ, उनकी बातें सुनीं, आत्म विश्वास से परिपूर्ण ! कल उसने पत्र लिखने शुरू किये थे, अभी कुछ शेष हैं, कुल नौ पत्र लिखने हैं. आज सुबह ‘जागरण’ में दिल का ताला खोलने की चर्चा हुई, ताला जो ममता का है और जिसे खोलना वैराग्य से है. उसने प्रार्थना की, कृष्ण सदा उसकी स्मृति में रहें, वह उसे न भूले और साधना के पथ पर आगे बढ़े, ऐसा संकल्प करे. संकल्प उसका और बल परमात्मा का. उसी की कृपा होती है तो साधना का सामर्थ्य जगता है !


Thursday, March 26, 2015

गुरू पूर्णिमा का चाँद


गुरू पूर्णिमा’ में कुछ ही दिन शेष हैं. उस दिन वह उपवास व मौन व्रत भी रखने का विचार रखती है. गुरू से उसका मानसिक सम्पर्क बना हुआ है इसका आभास कल दोपहर को हुआ जब हृदय में से उसके नाम का उच्चारण स्पष्ट सुनाई पड़ा. वह दर्द में थी उस पीड़ा में गुरू की आवाज जैसे मरहम लगाती हुई आयी. बहुत अच्छा लगा. वासनाएं मिटती जा रही हैं, क्रोध आने से पूर्व ही शांत होने लगा है. जाने कौन आकर समझा जाता है, जो कहने वाली थी वह न कहकर कुछ ऐसा कहती है जो प्रेम को दर्शाता है, अर्थात प्रेम की पकड़ क्रोध से ज्यादा हो गयी है. सभी के प्रति बस एक ही भाव उसे अपने हृदय में दिखायी पड़ता है, प्रेम और स्नेह का भाव. सभी उस परमात्मा के ही तो हैं जिसे वह इतना चाहती है. कभी-कभी दोनों आँखें भर जाती हैं. आँसू बहते हैं पर इनमें भी कैसी प्रसन्नता है. वह कृष्ण भी जैसे उसका साथ पसंद करने लगा है. वह उसे छोड़कर कहीं नहीं जाता. उस कृष्ण के नाम के साथ भाव की हिलोरें उठती हैं. समझ नहीं आता कौन ज्यादा प्रिय है सद्गुरु या कान्हा. कभी लगता है दोनों एक ही हैं और वह अपना मन उन्हें अर्पित कर देती है. her ordinary mind merges with their wisdom mind.

आज जागरण में ‘श्रद्धा’  के बारे में सुना. श्रद्धा जितनी दृढ होगी सात्विक भाव भी उतना ही दृढ़ होगा. आज सुबह वे उठे तो उमस बहुत थी, इस वक्त भी धूप न होते हुए भी उमस युक्त गर्मी है, पर उनकी सुबह ‘योग’ से होती है, ऐसे में मौसम की प्रतिकूलता या अनुकूलता का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता. ईश्वर ने, उसके कान्हा ने भी तो कहा है कि शीत-उष्ण, सुख-दुःख सभी में समान भाव से रहते हुए अपने कर्त्तव्यों का पालन करते रहना होगा. सुख बाहरी परिस्थितयों पर नहीं बल्कि उनके सच्चे स्वरूप पर निर्भर करता है जो सदा एक सा है, आकाश के समान मुक्त, विक्षेप रहित !

आज गुरू पूर्णिमा है. सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठी. स्नान-ध्यान किया फिर नन्हे और उसके मित्र के लिए नाश्ता बनाया. आजकल वह लाइब्रेरी से लायी The Gospel of Buddha पढ़ रही है. शाम को aol के फॉलो अप में जाना है. कल शाम को मन उद्ग्विन था, ध्यान किया सोने से पूर्व. काफी समय बाद लगा कि अब सो जाना चाहिए. मन एक छोटे बालक की तरह व्यवहार करता है उसे उसी तरह मनाना, पुचकारना और कभी-कभी फटकारना भी पड़ता है. गुरुमाँ कहती हैं जिसके विचारों की श्रंखला टूट गयी है वही मुक्त है, सो वह हर क्षण मन पर नजर रखती है कि कहीं कोई बिन बुलाये मेहमान सा अनचाहा विचार तो प्रवेश नहीं कर रहा. उसे क्षण भर देखें तो जैसे समुन्दर में लहर स्वयं शांत हो जाती है वह विचार स्वयं समाप्त हो जाता है. पर देखना पड़ेगा अन्यथा पता ही नहीं चलता और एक से दूसरा शुरू होते होते श्रंखला सी बन जाती है. आज सुबह पिताजी व छोटी बहन से बात की, जो आजकल मुम्बई में है. पिता ने कहा राखियाँ अच्छी बनी होंगी. उसके लिए तो वह अध्याय समाप्त हो गया है. सिर्फ यह क्षण यानि वर्तमान का क्षण जीवित है. जो छूट गया वह चला गया और अब मृत प्रायः है. उन्हें हर क्षण को अंतिम क्षण मानकर जीना आ जाये तो मन क्यों अतीत व भविष्य के चक्कर लगाए. यही बुद्ध कहते हैं, यही योग वसिष्ठ में कहा गया है यही श्री श्री कहते हैं.




Wednesday, March 25, 2015

तरबूज की ठंडक


आज बाबाजी ने बताया, ‘अहंता’ और ‘ममता’ ही दुखों का कारण है. उन्होंने एक सरल साधन भी बताया जिससे भीतर विश्रांति का जन्म होता है. शनिवार को जून उसे ऑफिस ले गये. eSatsang से श्री श्री की एक छोटी सी टॉक डाउनलोड की Ultimate relationship पर बोल रहे थे. वह इतने प्यार से इतनी अच्छी बातें बताते हैं, उनका ज्ञान अनंत है. कल शाम को एक परिचिता आयीं, उनकी सास icu में हैं, वह उनके दुःख को अनुभव कर पा रही थी. अंतर में प्रेम हो तभी यह सम्भव हो सकता है अन्यथा तो दूसरों की पीड़ा ऊपर से छूकर ही निकल जाती है. स्वयं को यदि ज्ञान में स्थिर करना है तो उसका लक्ष्य प्रेम ही रखना होगा, अन्यथा यहाँ भी स्वार्थ ही है. अपनी आत्मा का विकास मात्र स्वयं के लिए, अपने सुख के लिए... नहीं, अपने ‘स्व’ का विस्तार करते जाना है, सबको अपना सा देखना है. तभी मुक्ति सम्भव है. जितने-जितने उदार वे होते जायेंगे, जितनी देने की प्रवृत्ति बढ़ती जाएगी, लेने की, संग्रह की प्रवृत्ति घटती जाएगी उतने ही स्वाधीन वे होते जायेंगे.     

आज नन्हे का जन्मदिन है. सुबह ससुराल से फोन आया. बड़ों का आशीर्वाद मिले तो जीवन का पथ सरल हो जाता है. भाई-भाभी व पिताजी का फोन भी आया. सभी परिवार जन आपस में प्रेम के धागों से ही तो जुड़े हैं. यह सूक्ष्म भावना बहुत प्रबल है. यही प्रेम उन्हें बार-बार इस जगत में खीँच लाता है, लेकिन जब इस प्रेम की धारा ईश्वर की ओर मुड़ जाती है तो मुक्त कर देती है, क्योंकि उसके सान्निध्य में रहने के लिए उन्हें इस तन में आने की क्या आवश्यकता, वे जहाँ कहीं भी हों उसे चाह सकते हैं. आज अमावस्या है, ईश्वर का स्मरण करते हुए दिन का आरम्भ हुआ. उसे लगता है जिससे उन्हें ममता है उन्हें सुखी वे इसलिए करते हैं कि वे स्वयं सुखी हों. अपनी ख़ुशी के लिए ही वे दूसरों को कुछ देते हैं. ममता में स्वार्थ है पर प्रेम निस्वार्थ है. प्रकृति के गुणों के वशीभूत होकर ही ममता में बंधते हैं. ईश्वर को प्रेम करने में वे स्वतंत्र हैं. ईश्वर के नाते ही सारे सम्बन्ध हों तभी मुक्ति है.

आज सुबह बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ कि वह ‘क्रिया’ नहीं कर पायी. नन्हे के एक मित्र के लिए भी टिफिन बनाना था सो जून ज्यादा सचेत थे. कल शाम को बड़ी बुआ का फोन आया, उनकी बेटी के बड़े पुत्र का चुनाव एयर फ़ोर्स में हो गया है. वह सत्संग में गयी थी, जून ने बताया. वहाँ शुरू में उसका मन स्थिर नहीं रह पा रहा था पर धीरे धीरे गुरूजी से मानसिक प्रार्थना करने के बाद अच्छा लगा. कुछ देर पहले दीदी से बात हुई, जीजाजी के जन्मदिन पर उन्होंने घर पर उगाया हुआ तरबूज काटा. बड़ी भांजी CA बन गयी है, उसकी पांच साल की पढ़ाई पूरी हो गयी. कल छोटे भांजे को लेकर वे दिल्ली जा रहे हैं. परसों उसे हास्टल ज्वाइन करना है. पूजा की छुट्टियों में फिर घर आयेगा. नन्हा भी एक दिन ऐसे हॉस्टल जायेगा. दीदी खुश थीं, वह भी ईशप्रेम में सदा खुश रहती आयी हैं.

कल रात सिर दर्द के कारण उसकी नींद खुली, कुछ देर बैठी रही फिर धीरे-धीरे शवासन में लेटे हुए कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला. आज छोटी ननद का फोन आया, ननदोई जी ने aol के एडवांस कोर्स का फार्म भरा है, उन्हें अभी इसके लिए काफी लम्बा इंतजार करना होगा. ‘क्रिया’ वे नियमित करते हैं और जून को लगता है यह बहुत है.



Tuesday, March 24, 2015

राखी का उत्सव


पांच शरीर हैं उनके, पाँचों के पार वह चिदाकाश है जहाँ पहुंचना है. ईश्वर की स्मृति सदा बनी रहे तभी वे अपने पद से नीचे नहीं गिरेंगे अन्यथा मन के पुराने संस्कार सदा मोहित करते रहेंगे. ईश्वर जो इस सृष्टि का रचेता है, जिसका सभी के प्रति सहज स्वाभाविक प्रेम है, जो आत्मा का हितैषी है, प्रेम वश जो सदा सन्मार्ग पर ले जाने की व्यवस्था करता है. वह उन्हें सुख-दुःख के द्वन्द्वों से अतीत देखना चाहता है. जब वे उसकी निकटता में रहते हैं, उसके सामीप्य का अनुभव करते हैं तभी आकाश की भांति पूर्ण मुक्त, स्वच्छ, अलिप्त रहेंगे, यही उनका सच्चा स्वभाव है. उसकी उपस्थिति का अहसास सुबह ध्यान में हुआ, हर रोज ही होता है और यही उसकी आंतरिक प्रसन्नता का कारण है. मन कितना शांत है आज ! कल उन्होंने राखियाँ बनायीं, वह सखी आयी थी. अभी कुछ काम शेष है.

आज सुबह वे पौने चार बजे उठे, नन्हा उसके पूर्व ही उठ चुका था. उन्होंने ‘क्रिया’ की, योगासन आदि किया. ब्रह्म मुहूर्त में साधना करने का सुयोग भी ईश्वर ने ही बनाया है, वह जो भी करता है उनकी भलाई के लिए ही करता है. वे जो भी करते हैं वह ईश्वर प्राप्ति हेतु ही तो. शरीर स्वस्थ रखने का प्रयास, मन स्वस्थ रखने का प्रयास, सभी तो आत्म साक्षात्कार हेतु ही न. भक्ति के अनुकूल जो भी कार्य हों वही उन्हें अपनाने हैं और जो प्रतिकूल हों उन्हें छोड़ देना होगा. अज गुरू माँ ने बताया, जिनकी आज्ञा चक्र तक की यात्रा पूरी हो जाती है, वह ‘आत्म साक्षात्कार’ की ओर कदम बढ़ा चुके हैं अर्थात निकट आ चुके हैं. आज शाम को क्लब में मीटिंग है, उसे कविता पाठ  करना है. कल ऑयल-किरण के लिए लेख लिखकर दे दिया है.  

जीते जी अगर परमात्म सुख का अनुभव करना हो तो औदार्य सुख का अनुभव करना चाहिए, उदार बनना चाहिए. जो उदार होता है, वह प्रेमी भी होता है, वह सामर्थ्य भी रखता है. आज बाबाजी अपने गुरू की स्मृति आ जाने से भावुक हो रहे हैं. गुरू की याद ऐसी ही होती है. वह भी कितनी भाग्यशाली है कि एक बार ही सही उसने निकट से सद्गुरु के दर्शन किये हैं. भौतिक दूरी अथवा निकटता का उनके लिए कोई महत्व नहीं. श्रद्धा से उन्हें याद करो तो तत्क्षण वे उपस्थित हो जाते हैं. ईश्वर के प्रति प्रेम वही हृदय में उत्पन्न करते हैं. ईश्वर के प्रति हृदय में सहज और स्वाभाविक प्रेम होना चाहिए पर वे अपनी सहजता तो स्वार्थ के कारण पहले ही खो चुके होते हैं, सहज स्वभाव हो तो भक्ति को उदय होते देर नहीं लगती. सहज स्वभाव ही उनका शुद्ध रूप है जटिल तो उनका मन उसे बना देता है. व्यर्थ की कल्पनाओं, विचारों और भावनाओं में डूब कर जो अपने आपको बड़ा ज्ञानी समझता है पर होता नहीं है, अरे, उसे तो यह भी नहीं पता कि कब क्या सोचना है, कब कौन सा विचार कहाँ से आने वाला है, वह अपने को ही नहीं जान पाता तो संसार की समस्याओं का निदान कैसे सोच सकता है, तो मन को ठीक करना होगा !


ज्ञान का अंत भक्ति है, भक्ति रसमय, आभामय, मकरंद मय बनाती है. प्रेम हो जाता है जब गुरू से, ईश्वर से तो प्रेम तारने वाला बन जाता है. देर-सबेर ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है. मोहनिद्रा से सदा के लिए जागृति हो जाती है. सद्गुरु की कृपा मिले बिना ज्ञान टिकता नहीं ! ...और आज सुबह क्रिया के दौरान व उसके बाद उसने गुरुवाणी सुनी, “लगा रह” उस दिन सुना था ‘अभिमानी मत बन’, अर्थात उसे अपने प्रयासों को त्यागना नहीं चाहिए बल्कि पूरे विश्वास के साथ उसमें लगा रहना होगा. कल शाम को यह अनुभव हुआ कि only now is eternal ! वर्तमान का साक्षात् अनुभव हुआ, हर क्षण जैसे शाश्वत हो गया था. वर्तमान में रहने के लिए सबसे अच्छा उपाय है कि वे क्षण-क्षण में जीना सीखें अन्यथा मन कब भूत या भविष्य के झकोरे में झूलना शुरू कर देता है पता ही नहीं चलता. कल दोपहर राखियाँ बन गयीं पचास से कुछ अधिक ही बन गयी हैं. अब २१ जुलाई को होने वाले उत्सव में इन्हें रखना है. सेवा के इस कार्य में कितना सुख मिला है यह सात्विक सुख है पर इससे भी उसे बंधना नहीं है. अब उसके सामने एक स्पष्ट लक्ष्य है और जिस रास्ते से उस पर जाना है वह रास्ता भी पूरी तरह स्पष्ट है. अब चलने की देर है. आत्म साक्षात्कार के उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सद्गुरु का आशीर्वाद भी उसके साथ है और कान्हा का प्रेम भी !         

Tuesday, March 17, 2015

टिंडे की सब्जी


अभी बहुत दूर जाना है, सहिष्णुता की बहुत कमी है. आसक्ति अभी बनी हुई है, लोभ भी बरकरार है और वाणी पर संयम भी नहीं है. ऐसे में ध्यान का क्या लाभ मिलने वाला है. सुबह-सवेरे ही गुरू माँ ने कहा, गलती करो मगर होश से, तो थोड़ी सांत्वना मिली है क्योंकि पूरे वक्त उसे यह पता था कि जो हो रहा है वह ठीक नहीं है यानि होश तो था, अब आगे ऐसी भूल नहीं होगी. कल शाम भजन संध्या में गयी अच्छा अनुभव था. नाम संकीर्तन के द्वारा भी उससे जुड़ा जा सकता है, कृष्ण हृदयों से राग-द्वेष निकाल देते हैं, जब उसका नाम जिह्वा पर नृत्य करता है. असत संग का त्याग करना है, जो भी लक्ष्य से दूर ले जाये वही असत है. कल दोपहर को एक नया अनुभव हुआ बाथरूम में कपड़ों का ढेर उसके देखते-देखते एक निर्मल आभा से युक्त हो गया और एक बार तो हिलता हुआ भी प्रतीत हुआ. उसकी आँखों से कुछ अन्य तरंगें भी निकलने लगी हैं शायद. गुरूजी कहते हैं अनुभवों के पीछे नहीं जाना चाहिए.

आज ‘मृणाल ज्योति’ जाना है, बच्चों को योग सिखाने. मौसम सुहावना है, संगीत की कक्षा हुई. पिछले हफ्ते अभ्यास ठीक से नहीं कर पायी थी, ध्यान में ज्यादा वक्त चला गया, कई बार पुस्तक पढ़ते-पढ़ते ही भाव ध्यान घटने लगता था. ‘ध्यान’ अब एक स्वाभाविक कार्य लगता है जैसे यह उतना ही सामान्य हो जितना भोजन करना. अभी दोपहर के भोजन की थोड़ी सी भी तैयारी नहीं हुई है, नैनी टिंडे काटकर रख गयी है, जो जून कल लाये थे. कल ही वह ढेर सारे आम भी लाये थे. नन्हे को रात को देर तक पढने की आदत है. कई बार लाइट जलाकर ही सो जाता है सो जून ने उसके नॉवल वापस करने के लिए अपने आपस रख लिए थे, पर उसे यह बात नहीं भायी, बहुत नाराज हुआ और सुबह बिना बात किये ही स्कूल चला गया. वे भी कभी माँ से ऐसे ही नाराज हो जाते होंगे. स्कूल से वापस आने तक सब भूल चूका होगा. उन्होंने उसकी किताबें वापस भी रख दी हैं. जून अपने लिए एक तकिया लाये पर वह भी उन्हें अधिक माफिक नहीं आया. पिछले दिनों तकिये की वजह से उनकी गर्दन में दर्द हो गया था. परसों विभाग में उनका एक प्रेजेंटेशन था, अच्छा रहा. कल से वह रह-रह कर सिर के दायें भाग में कुछ सुरसुरी सी अनुभव कर रही है शायद ‘ध्यान’ की वजह से. ईश्वर उसके साथ है जो भी होगा या हो रहा है उनकी देख-रेख में ही हो रहा है !

जुलाई का प्रारम्भ ! मौसम बरसात का है, वर्ष रात को हो चुकी है, सभी कुछ साफ और धुला-धुला सा है. मन भी ईश्वर की भक्ति रूपी जल से धुलकर इस वक्त तो स्वच्छ  प्रतीत हो रहा है लेकिन कब, कैसे और क्यों और कहाँ इस पर मैल का छींटा लग जाता है, पता नहीं चलता, कब सिलवटें पड़ जाती हैं, पड़ने  के बाद तो लेकिन फौरन पता चल जाता है. एक पल भी नहीं लगता इसे निस्तेज होते हुए. .०००१ % भी यदि स्वच्छता घटे तो अहसास फौरन दिलाता है भीतर स्थित परमात्मा रूपी मित्र, वह तो हर क्षण सजग है न. बहुत बचा-बचा कर रखना पड़ता है, व्यर्थ की बातचीत नहीं, व्यर्थ का कुछ भी नहीं. आज सुबह दीदी का फोन आया, वे भांजियों के ब्याह की बात बता रही थीं. अगले डेढ़-दो वर्षों में दोनों की अथवा एक की तो शादी करने का वे इरादा रखते हैं. छोटे भांजे का दाखिला दिल्ली के एक कालेज में हो गया है. पर अभी वह चंडीगढ़ में बीटेक के दाखिले का इंतजार भी कर रहा है. कल शाम को सासु माँ व छोटी ननद की अस्वस्थता की खबर भी मिली. छोटी बहन इसी माह पूना जाने की उम्मीद रखती है. उस दिन चचेरे भाई का खत आया था, उसकी भाषा अच्छी है, विचार भी सधे हुए हैं पता नहीं क्यों उसने अपने शारीरिक रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया, गरीबी को इसलिए अभिशाप कहते हैं. नन्हे की फिजिक्स की कोचिंग कल समाप्त हो गयी, अगले टीचर गणित आएंगे. वह अपने मन की करता है, आजाद ख्याल किशोर है. जून और वह दोनों ही उसे बहुत प्यार करते हैं और दो वर्ष वह उनके साथ रहेगा फिर तो पढ़ाई  के लिए उसे बाहर जाना है, हो सकता है तब उसे उनका टोकना याद आए कि वे उसके सुधार के लिए ही उसे सन्मार्ग पर लाने के लिए ही टोकते हैं ! आज दोपहर एक सखी और उसका पुत्र आ रहे हैं राखी बनवाने.     


Monday, March 16, 2015

मूंग का हलुआ


आज पूर्णिमा है. उसके हृदय गगन में भी परमात्मा रूपी चन्द्रमा का आगमन होगा ऐसी सूचना मिल रही है. मन शांत है, ध्यानस्थ है, सद्गुरु की छवि हटती नहीं. सुमिरन अपने आप चलता है. ईश्वर को छोड़कर कोई विचार मन में नहीं टिकता. एक उसी की याद हर वक्त बनी हुई है और कैसी अद्भुत गहराई का अनुभव हो रहा है. जैसे सब कुछ ठहर गया हो. सारा जगत स्थिर हो मन की तरह, कहीं कोई उहापोह नहीं, विक्षेप नहीं, अद्भुत है यह क्षण ! कल दोपहर स्वामी योगानन्द जी की आत्मकथा पढ़ी. साधना के अनगिनत सूत्र उनकी इस पुस्तक से हाथ लगते हैं. पढ़ते-पढ़ते मन ध्यान में टिक जाता है. परसों ध्यान में आवाज सुनी थी “निरभिमानी बन” उसके और प्रभु के मध्य अहंकार का पर्दा ही तो है, इसे चूर-चूर करना होगा. मन के सूक्ष्म अहंकार को निर्दयता से उखाड़ फेंकना होगा. कठोर बनना पड़ेगा मन के प्रति, कड़ी नजर रखनी होगी कि कहीं कोई भाव ऐसा तो नहीं आ रहा जो अहंकार को पोषित करे. पूर्ण समर्पण तभी सम्भव है. सद्गुरु इतनी दूर रहकर भी उसे सचेत कर रहे हैं. सुबह स्वप्न देखा जो उसकी एक और कमजोरी की ओर ध्यान दिला रहा था. मिथ्याभाषण अथवा तो आवश्यकता से अधिक भाषण, एक बात को बार-बार कहने की बुरी आदत, नन्हे और जून को कई बार इसका शिकार होना पड़ा है. ज्यादा बोलने से बातें अतिरंजित भी हो जाती हैं और निर्दोष असत्य भी मुख से निकल जाता है. कल शाम को सत्य का सामना वह ठीक से नहीं कर पायी. हर क्षण सजग रहना होगा तभी पाषाण हृदय चमक उठेगा और उसमें परमात्मा की छवि प्रकट होगी. कृष्ण की गीता पढ़े या सद्गुरु के वचन सुने सभी मन की शुद्धि चाहते हैं !   

उसका हृदय परमात्म सुख से परिपूर्ण है, कोई होश में रहे तो विकार पास नहीं फटकते और यदि कोई भाव ऐसा उठा भी तो होश में उसे देखा जा सकता है. सुबह उठी तो एक स्वप्न देख रही थी. उसके हाथ में स्वादिष्ट हलुआ है, शायद मूंग की दाल का, शुद्ध घी और मेवों से युक्त, मीठा और स्वादपूर्ण पर दो छोटी बच्चियों के कारण बहुत सा व्यर्थ जमीन पर गिर जाता है. सपना सचेत करता है कि परमात्मा का जो आनंद उसे मिला है उसे छोटे-छोटे सुखों के पीछे कहीं व्यर्थ न गंवा दे. सुबह क्रिया के बाद किसी के होने का, किसी अशरीरी के होने का अहसास हुआ, एक लय में जैसे किसी के साँस लेने की आवाज आ रही थी. बहुत पहले भी उसे ऐसा अनुभव हुआ था. सद्गुरु की स्मृति भी हर क्षण रहती है, ऐसा लगता है जैसे उनसे मानसिक सम्पर्क बन रहा है. वह उसकी प्रार्थना ईश्वर तक पहुँचा देते हैं क्योंकि वह हर क्षण उनसे जुड़े रहते हैं. ऐसा लगता है सारे संशय मिट गये हैं और अंततः एक ऐसा प्रकाश मिला है जो उसे कभी छोड़ नहीं सकता. कृष्ण की अनुकम्पा है. यह सारा विश्व उसी का विस्तार है. उस एक की शक्ति ही हर ओर बिखरी है. जिसके मूल में प्रेम है अहैतुक प्रेम ! यह संसार प्रेम से ही बना है, प्रेम पर ही टिका है और प्रेम में ही स्थित है ! 

कल शाम वे एक विवाह भोज में गये. कल रात स्वप्न में माँ को देखा, वह ठीक नहीं लग रही थीं, अस्त-व्यस्त सी कहीं जा रही थीं. दीदी की सास को भी कल बहुत सालों के बाद स्वप्न में देखा, कहीं ऐसा तो नहीं उनकी आत्माएं ही उसे दिख रही हों. आत्मा का अस्तित्त्व शरीर छूटने के बाद भी रहता है. वह इतनी सूक्ष्म होती है कि दिखती नहीं, तरंग का सा रूप होता है, एक ऊर्जा ! वास्तव में प्राणी सारा जीवन उस मृत्यु की ओर पल-पल बढ़ते रहते हैं जो अवश्यम्भावी है, फिर भी वे उसके लिए कोई तैयारी नहीं करता. मृत्यु से पूर्व ही उन्हें यह जानने का प्रयास करना है कि वे कहाँ से आये हैं, क्योंकि वहीं लौटना होगा..


Saturday, March 14, 2015

मौसम के मिजाज


आज सुबह पिताजी व छोटे भाई से फोन पर बात की. दोनों ने टीवी पर आने वाले आध्यात्मिक प्रवचनों की बात की. उस पर ईश्वर की कृपा हुई है कि वह अपनी पूरी शक्ति और श्रद्धा के साथ यह यात्रा कर रही है. नित नये-नये अनुभव होते हैं. कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे वे पहले से ही तय हों. सभी कुछ सही समय पर होगा, ठीक होगा, कोई यह आश्वासन देता रहता है. उसकी इच्छाएं अपने आप पूरी होती प्रतीत होती हैं. सद्गुरु और सद्शास्त्र के प्रति कृतज्ञता की भावना बढ़ती जाती है. मन संतुष्ट रहता है जैसे कोई भौतिक इच्छा न रह गयी हो और हो भी तो उसका पूरा होना या न होना दोनों ही बराबर हैं. संसार का कोई भी सुख आकर्षित नहीं करता जितना की ईश्वर का विचार और उससे मिलन की ललक ! ईश्वर ही उसे निर्देशित कर रहे हैं, वही उसका मार्ग सुगम बना रहे हैं तभी तो समय भी है, स्थान भी है, शास्त्र भी हैं, सद्गुरु भी हैं. सभी कुछ उसके अनुकूल कर दिया है उस प्रभु ने. जून भी इसी मार्ग पर चल पड़े हैं चाहे अनजाने ही सही. दृढ़ संकल्प हो और एक मात्र यही संकल्प हो तभी सफलता सम्भव है. धैर्य भी उतना ही चाहिए तथा प्रतिक्षण सजग भी रहना होगा. श्रद्धा अटूट हो तो उस का हाथ सर पर रहेगा, वह इसी तरह उनके मार्ग को सरल करता जायेगा. उसकी स्मृति ही इतनी सौम्यता भर देती है हृदय में कि उसका साक्षात्कार कितना अभूतपूर्व होगा !


ईश्वर हर क्षण उसके साथ है, वह कितने विभिन्न उपायों से अपनी उपस्थिति को जता रहा है. सद्गुरु भी प्रेरणादायक वचन बोल रहे हैं. साधना के पथ पर कैसे चला जाये, ध्यान कैसे किया जाये, इसके सूक्ष्म तरीकों की चर्चा कर रहे हैं. सारी बातें जैसे किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार स्पष्ट होती जा रही हैं. सुबह ध्यान में कोई चेहरा दिखा, स्पष्ट नहीं था. आँख बंद करते ही अथवा खुली रहने पर भी अब वस्तुएं अपने वास्तविक रूप में दिखाई देने लगी हैं. धीरे-धीरे उस आवरण को ईश्वर अपनी कृपा से हटाना चाहते हैं. उसे पूरा सहयोग देना है, शुभ संकल्प करके मन को स्थिर रखना है, बूढी को प्रज्ञा में बदलना है. मन ध्यानस्थ रहेगा तो उस प्रभु को आने का मार्ग मिलेगा अन्यथा तो हजारों हजार विचार, वासनाएं, इच्छाएँ आदि सत्य से दूर रखती हैं. सत्य पर चलना हो अथवा सत्य को पाना हो तो मन को खाली करना होगा. सद्गुरुओं के वचन अब स्पष्ट होने लगे हैं. भौतिक इच्छाओं में कोई सार नहीं है, जो सुख इनसे मिलता है वह क्षणिक होता है किन्तु अध्यात्मिक सुख अनंत है उस अनंत प्रभु की तरह. उसे पाना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए. जीवन अमूल्य है क्योंकि इसी में वे परम सत्य को पाने की चेष्टा कर सकते हैं, पा सकते हैं. वह उनके निकट से भी निकटतर है केवल मिथ्या अहंकार का पर्दा बीच में पड़ा है.

आज सुबह एक घंटा संगीत का अभ्यास किया. कपड़े प्रेस किये, भोजन की तैयारी की, इस मय साढ़े नौ बजे हैं. एक सखी का फोन आया. धूप तेज है उसने मौसम की जानकारी माँगी तो नूना ने कहा की मौसम सुहाना है..खैर मौसम के मिजाज तो बदलते रहते हैं. उन्हें अपने भीतर वह धुरी खोज निकालनी है जो अचल है, अडिग है, जिसका आश्रय लेकर वे दुनिया में किसी भी ऊँचाई तक पहुंच सकते हैं. उसी एक का पता लगाने योगी भीतर की यात्रा करते हैं. उस स्थिति की कल्पना ही कितनी सुखद है. स्थिर मन ही उस बिंदु तक ले जा सकता है जहाँ जाकर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता. जहाँ जाकर लौटना नहीं होता. उसकी झलक तो उन्हें अब भी मिलती है पर यह अस्थायी होती है, संसार पुनः अपनी ओर खीँच लेता है.


Friday, March 13, 2015

बारिश और छाता


कबिरा इस जग में आय के अनेक बनाये मीत
जिन बाँधी एक संग प्रीत वही रहा निश्चिंत !

उस एक से जब लौ लग जाती है तो जीवन फूल सा हल्का हो जाता है, कोई रूई के फाहों की तरह गगन में उड़ने लगता है. वह एक इतना प्यारा है, इतना अपना कि दिल भर जाता है उसकी याद में. वह हर पल मित्र की तरह साथ रहता है, कुशल-क्षेम को वहन करता है. उसकी कृपा असीम है, अपार है, उस पर किसी का जितना अधिकार है उतना संसार की किसी भी वस्तु पर नहीं. उसकी सारी बातें ही निराली हैं, उसका बखान करना जितना कठिन है उतना ही आसान भी ! एक शब्द में कहें तो प्रेम वही तो है, सभी में उसका ही प्रकाश है. सद्गुरु की आँखों में उसकी ही तो चमक है, उनकी मुस्कान में उसका ही रहस्य झलकता है, उनके हृदय की गहराई में एकमात्र वही बसता है. उस अशब्द परमात्मा को शब्दों से नहीं जाना जा सकता. वह मौन है उसे मौन में ही ढूँढना होगा. कोई जितना-जितना अपने आस-पास की ध्वनियों के प्रति सजग होता जाता हैं उतना-उतना ही उसे मौन का भी आभास होता है. दो ध्वनियों के बीच का मौन और वह बेहद प्रभावशाली होता है, शब्दों से कहीं ज्यादा, उस मौन में उसे अपने होने का अहसास तीव्रता से होता है. अपने वास्तविक शून्य रूप का ! वही उन्हें पहुंचना है, जहाँ न राग है न द्वेष, न संयोग हैं न वियोग, न अच्छा न बुरा ! उस अद्भुत लोक में प्रवेश करने के लिए जीवन में साधना की आवश्यकता है. ध्यान का अर्थ है कोई अपने को जो आज तक मानता आया है उससे अलग सच्चे स्वरूप को जानना. ईश्वर को जानना हो तो अपने आप को जानना होगा.

आज सुबह ध्यान में नवीन अनुभव हुआ, जैसे वह एक गहरी सुरंग में उतरती जा रही है, फिर कुछ शब्द सुने जो अप्रिय थे. एक बार विपासना में सुना था आत्म मंथन के समय सभी तरह के अनुभव होंगे लेकिन यह याद रखना है जो उत्पन्न होता है वह नष्ट हो जाता है. यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है अत किसी भी अच्छी या बुरी संवेदना को महत्व नहीं देना है. मन को समत्व भाव में स्थिर रखना है. आज सुबह संगीत की कक्षा हुई. दोपहर को एक हास्य फिल्म देखी. अख़बार पढ़ा. नन्हा अभी तक कोचिंग से आया नहीं है, वर्षा हो रही है उसके पास छाता तक नहीं है. परसों शाम वह डांट खाने के कारण बहुत नाराजगी व्यक्त कर रहा था पर कल दोपहर उतनी ही ख़ुशी व्यक्त कर रहा था. हर रात के बाद सवेरा आता है, हर दुःख के बाद सुख. पिछले हफ्ते छोटी बहन का फोन सुनकर उसने उसे व्यर्थ ही सुझाव दिए. अस्वस्थ होना तो कोई भी नहीं चाहता पर अगर कोई किसी कारणवश हो भी जाता है तो दुखी होने का कारण नहीं है. “जो पहले नहीं था वह बाद में भी नहीं रहेगा” और वे मात्र शरीर तो नहीं हैं जो थोड़ी सी परेशानी से ही व्यथित हो जाएँ, भविष्य में ध्यान रखेगी. उन्हें अपनी आत्मिक शक्ति पर भरोसा रखना है. रोग तो शरीर के साथ लगे ही रहते हैं. बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, संत यही तो कहते आए हैं कि जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और रोग ये चार व्याधियाँ ऐसी हैं जिनका भाजन हरेक को बनना है. इनसे कोई जीवात्मा बच नहीं सकता. आत्मा जो परमात्मा का ही अंश है अपनी जीने की इच्छा के कारण ही देह धारण करता है और फिर इन चारों के चक्रव्यूह में फंस जाता है. माया का बंधन काट दें तो इन चारों का अस्तित्त्व नहीं रहता ! 


आज तीन महीनों की छुट्टियों के बाद नन्हा स्कूल गया है. उसका हृदय उसके लिए शुभाशीष और शुभकामनाओं से युक्त है. जैसे आज तक वह अपनी पढ़ाई में सफल रहा है वैसे ही आगे भी रहेगा. आज सुबह वे तीनों सुबह चार बजे उठे. वह समय से पहले ही तैयार हो गया था. जून और उसने सुबह साधना भी की. ईश्वर के सम्मुख होकर यदि वे अपने दिन का आरम्भ करें तो दिन भर मन सात्विक भावों से पूर्ण रहता है. कृष्ण उनके अंतर में ज्ञान का दीपक जलाकर स्वयंमेव तम को मिटने का संकल्प करते हैं. कल इस का अनुभव हुआ, गीता का एक श्लोक उसे अपने आप याद आया और मन में विचारों की एक अनवरत श्रृंखला.. जो एक भाव को ही पोषित कर रही थी, प्रवाहित होने लगी, जैसे तेल की धार. उसे विश्वास है कि एक दिन एक ऐसा क्षण इसी जन्म में आयेगा जब उसके मन में ऐसा ठहराव आयेगा जिसके बाद और दौड़ नहीं करनी होगी. जब मन ध्यान में टिकाना नहीं पड़ेगा बल्कि टिका रहेगा. अभी उस लक्ष्य से दूर है, पर कृष्ण उसके साथ हैं. अंतर में उसी का उजाला, बुद्धि में उसी का प्रकाश और आत्मा में उसी का प्रेम...वह प्रिय से भी प्रिय उसके मन पर अपना पूर्ण अधिकार कर चुका है ! वही उसे मुक्त करता है इस जग से !

Thursday, March 12, 2015

वृक्ष, नदी, आकाश, हवा


आज सुबह वह उठी तो तन-मन दोनों क्लांत थे, पर क्रिया के बाद तेज प्रकाश का अनुभव हुआ आज्ञा चक्र में और उसे लगा कृष्ण ने आश्वासन दिया है. वह सदा उसके साथ हैं, प्रतिक्षण भीतर से आश्वस्त करते हुए, जग की कोई पीड़ा, कोई दुःख उस आनंद को कम नहीं कर सकता जो कान्हा का साथ उसे देता है. वह उसे अपने बहुत निकट महसूस करती है, वही है जो उसकी आँखों से झाँकता है जब वह दर्पण के सामने खड़ी होती है. वही है जो मुस्कान बनकर छा जाता है जब वह ‘ध्यान’ से उठती है. आज ‘जागरण’ में सुना, विवेक को जाग्रत करना है, विवेक का उपयोग करने की स्वतन्त्रता प्रभु ने उन्हें दी है, जितना विवेक जीवन में होगा उतना जीवन उन्नत होगा. माया रूपी रात्रि में संयम रूपी ब्रेक और विवेक रूपी लाइट लगी जीवन की गाड़ी यदि वे चलायें तो दुर्घटना से बचेंगे और ईश्वर के प्रति श्रद्धा अविचल रहेगी. कल शाम को कुछ देर जून को उसने हृदय के भीतर उमड़ते प्रकृति के प्रति प्रेम को बताया, पता नहीं वे कितना समझ पाए. पेड़-पौधे, नदी, आकाश, हवा, पानी, कीट, पंछी और सभी लोग...सभी एक ही डोर में बंध हैं. वह है साँस की डोर. वे किस तरह जुड़े हैं एक-दूसरे से, ईश्वर ही सबका कारण है, उसी एक का विस्तार है यह सृष्टि. वे इसके प्रति कृतज्ञता से भर जाते हैं, समपर्ण करते हैं, उसे प्रेम करते हैं क्योंकि एक वही है जिसे चाहा जाये और उस एक को चाहने से सभी को चाहना हो जाता है. अहैतुकी भक्ति का उदय हृदय में होता है. ईश्वर जानते हैं कि उनके लिए क्या उचित है, वह उनकी सभी उचित कामनाओं की पूर्ति करते हैं, वही उनके जीवन का आधार है. आज बाबाजी ने अपने चुटीले हाव-भावों से बहुत हँसाया.

It’s a lovely June morning. Rain has just stopped. Breeze is cool and wet. She has finished her morning jobs. Mali is cutting hedge. Nanha went  to his friend’s home in the morning. Music sir came and gave three sargam to learn and aaroh- avroh of rag yaman. So she is continuing in second year. Day before yesterday they went to see the Buri dihing river. It was nice to see the sun setting and water flowing calmly. One fisherman was spreading his net perhaps he was not looking at the beauty of the water but only at the fish in the river. When they for evening walks she always looks at the   trees, flowers and surroundings with an awe. Daily she sees some new tree or some change in them. Nature is very beautiful, human beings are not so, they pretend they act and they want to be beautiful, but it is not that natural. Last evening she attended a meeting in club for Mrinal Jyoti. She and one more lady was assign the job of arranging some special classes in the school once a week. She will definitely enjoy doing it. Today she heard babaji. He was in bliss as always and told many beautiful things about life.

आज पूर्णिमा है, सुबह-सवेरे से ईश्वर की भक्ति की चर्चा कानों में पड़ रही है, ईश्वर उस के प्रति  कृपालु हैं, वह उसे सद्प्रेरणा देते हैं था गुरुजनों को जिन्होंने उसे पा लिया है, उन्हें टीवी के माध्यम से उनके घर भेजते हैं. कर्त्तव्य निष्ठ होकर, प्रेमपूर्वक, भक्तिभाव से उन्हें यह जीवन जीना है. ईश्वर के वे निमित्त मात्र हैं. वही कर्ता है और वही भोक्ता है. वही उसे प्रेरित करता है कि उसे जाने और उसके अंश होने के कारण उसी के समान बनने का प्रयत्न करें अथवा तो स्वयं को पहचानें.   



  

Wednesday, March 11, 2015

शरदकाल का चन्द्रमा


आज बाबाजी ने उसे जन्मदिन की बधाई दी ! वायु सुखदायी हो ! आकाश सुखदायी हो ! जल सुखदायी हो ! पृथ्वी सुखदायी हो !  अग्नि सुखदायी हो !  जन्मदिन की बधाई हो ! सुबह-सुबह ससुराल से फोन आया फिर दीदी, भाई-भाभी, पिता जी व बड़ी ननद सभी ने जन्मदिन की शुभकामनायें दीं. जून और नन्हे ने भी बधाई दी. नन्हे का रिजल्ट अच्छा रहा है वे सभी खुश हैं, उसकी मेहनत का परिणाम अच्छा होना ही था. आज बाबाजी ने कहा, दान देना अच्छा है और जन्मदिन पर दान देना और भी अच्छा है. गुरुमाँ ने बताया यदि कोई दुखी है तो अपने आसपास दुःख ही फैलाता है, जिसके पास जो होगा वही तो बांटेगा. मन रूपी सागर पर जब ईर्ष्या और क्रोध रूपी फेन न हो तो जल कितना शांत हो जाता है. कल शाम योग वशिष्ठ पढ़कर उसके मन की भी वही स्थिति हो गयी थी. मुक्त, निर्विचार, शांत और स्थिर..मन की यही अवस्था सम्भवतः आत्मा की स्थिति है क्योंकि उस स्थिति को महसूस ही किया जा सकता है. वह स्थूल नहीं है, अति सूक्ष्म है और व्यापक है शरदकाल के चन्द्रमा की भांति. योग वशिष्ठ अद्भुत ग्रन्थ है. बाबाजी ने भी कहा कि वासना ही दुखों की जड़ है. ‘तू भी अपने मन की काढ़ ले भाया’ अर्थात तू भी हृदय से कामनाओं को निकल फेंक. इच्छा जब तक बनी रहती है दुःख ही देती है, लेकिन कृष्ण से मिलने की इच्छा में जो मीठी पीड़ा है वह सुख ही देती है. ईश्वर के बिना इस जगत में कुछ भी पाने के योग्य है क्या ? सब कुछ छोड़ने के ही योग्य दिखाई पड़ता है !

जून का आरम्भ ! मौसम गर्म है और उमस भरा भी, यानि कि सब कुछ सामान्य है. गला थोड़ा सा खराब है पर कल की परीक्षा की वजह से ज्यादा लग रहा है वर्ना तो इतनी परेशानी उसके लिए न होने के बराबर ही थी. सुबह-सुबह अचानक अध्यापक आ गये, वह तैयार नहीं थी. नन्हा एक मित्र के साथ स्कूल गया है, मार्कशीट व फॉर्म दोनों लेन हैं. माली घर गया हुआ है, लॉन की घास बड़ी हो गयी थी सो जून ने एक आदमी को भेजा है जो उम्र में बड़ा है पर मशीन बड़ी अच्छी तरह चला रहा है.  आज बाबाजी को कुछ ही देर सुन पायी. उन्होंने कहा ईश्वर रसमय है और मानव भी रस ढूँढ़ता है पर गलत जगह, जो मिलता नहीं. अस्तित्व उसे उन्नत बनाना चाहता है, वह विपरीत परिस्थितियों में रखकर उसे योग्य बनाना चाहते हैं. गुरू माँ की तरह दुलारते हैं, रास्ता दिखाते हैं, इस तरह ज्ञान देते हैं जो उसकी समझ के अनुसार हो, प्रकृति के अनुसार हो और धीरे-धीरे वह वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर ले, जहाँ समता की निर्मल धारा है, जहाँ स्थित होकर सुख-दुःख नन्हे लगते हैं, उनमें वे फंसते नहीं, जहाँ सहज रूप से जीवन बहता चला जाता है !

कल परीक्षा से वापस आकर मन कैसा तो हल्का होगा था जैसे कोई बोझ सिर से उतर गया हो. आज भी धूप खिली है और मन का कमल भी ! जीवन कितना अनमोल है और कितना मोहक, कितना मधुर ! कान्हा की वंशी की तरह, उसकी मुस्कान की तरह और उसकी चितवन की तरह ! मन में कोई उद्वेग न हो कोई कामना न हो तो मन कितना हल्का –हल्का रहता है. किसी से कोई अपेक्षा न हो, स्वयं से भी नहीं बस जो सहज रूप में मिलता जाये उसे ही अपने विकास में साधक मानते चले. वह लिख ही रही थी कि एक परिचिता आ गयी उसकी बातों से लगा वह अपने परिवार के प्रति अविश्वास से भरी थी, ऐसे लोगों को समझाना पत्थर से टकराने जैसा ही है, वह उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करेगी, शायद कोई चमत्कार हो जाये ! वह गयी तो लंच का समय हो गया था. उसके बाद बहुत दिनों से पेंडिग पड़ी सफाई का कार्य और फिर शाम होने को आ गयी. जून के एक सहकर्मी के वृद्ध पिता अस्पताल में हैं, उसने उनके लिए भी प्रार्थना की, ईश्वर उन्हें शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्रदान करेंगे, हर एक को उस पीड़ा से गुजरना है. जन्म और मृत्यु के बीच बीमारी और बुढ़ापा सभी को पार करना ही है.    



  

Friday, March 6, 2015

परीक्षा का परिणाम


ज्ञानी कैसा होता है इसका बखान अभी सुना, बाबाजी आज अपने ब्रह्मानन्द में मस्त थे. उनकी आंखों में कितना संतोष था, कितना प्रेम और कितना अपनापन ! जब टीवी में देखकर वह अपनी सुधबुध खो देती है, मन निर्विचार हो जाता है तो उन्हें प्रत्यक्ष देखने व सुनने से कितना लाभ होगा इसकी कल्पना ही की जा सकती है. वह इतनी सीधी, सच्ची और सरल भाषा में बात कहते हैं कि कोई अनपढ़ भी समझ ले. वह इतनी ऊंची पदवी को प्राप्त कर चुके हैं तभी इतने सरल व सहज हैं. उधर गुरुमाँ ने भी बुल्लेशाह की काफी गाकर मन मोह लिया. ईश्वर को पाने की प्यास हृदय में तीव्रतर हो जाती है जब ऐसा सत्संग मिलता है, पर फिर सांसारिक उलझनें मन को हर ले जाती हैं. आज सुबह एक परिचिता के यहाँ फोन किया, जहाँ योग शिक्षक ठहरे हुए थे, कोर्स के दौरान सुदर्शन क्रिया करने की अनुमति लेनी थी. पर उनसे बात नहीं हो पायी. मन को सभी प्रकार की इच्छाओं से मुक्त करना है चाहे वह इच्छा सुदर्शन क्रिया की ही हो. आकर्षण का फल सदा ही बुरा होता है चाहे वह आकर्षण अच्छी वस्तु का या बुरी वस्तु का. ‘क्रिया’ का उद्देश्य तो मन को एकाग्र कर के बुद्धि को भेदते हुए आत्म दर्शन करना है, जो इस क्षण भी हो सकता है यदि मन को शांत कर ले. सहज प्राप्य वस्तु को स्वयं ही दुर्लभ बनाकर उसे पाने की चेष्टा ही तो कर रही है, जैसे कि उसका महत्व बढ़ जायेगा. जैसे वे सहज प्राप्य ईश्वर को, आत्मा को, भिन्न-भिन्न उपायों से खोजते फिरते हैं. मन को खाली करना है पर उसे भरते रहते रहते हैं, शब्दों से और विचारों से, जो मानसिक जुगाली का ही काम करते हैं. वह जो शब्दों से परे है शब्दों से पकड़ में नहीं आ सकता. उसने यह अनुभव किया कि कामना मुक्त होना कितना शान्तिप्रद है और कामना करना तन-मन में कितनी लहरों को उत्पन्न करता है. जून आज डिब्रूगढ़ जाने वाले हैं. लंच पर नहीं आएंगे.

इस समय साढ़े ग्यारह हुए हैं, जून आज भी अभी तक नहीं आये हैं. नन्हे को बारह बजे कोचिंग क्लास में जाना है. वह अभी कुछ देर पूर्व ही व्ययाम करके उठी है. कल शाम को दो पत्र लिखे, हफ्तों से उनका जवाब देना रह जाता था. मौसम आज बेहद अच्छा है. सुबह संगीत अभ्यास किया. अगले महीने परीक्षा है. आज छोटी बहन का फोन आया, पंजाब बार्डर पर है. अभी कब तक रहना होगा कहा नहीं जा सकता. युद्ध के बादल छा रहे हैं. उसने बताया, छोटे भांजे को पचासी प्रतिशत अंक मिले हैं, दो दिन बाद नन्हे का भी परीक्षा परिणाम आने वाला है, अभी से सभी की निगाहें टिकी हैं, कुछ लोग मिठाई खाने की बात भी कह चुके हैं. यकीनन परिणाम अच्छा ही होगा. शाम को उन्हें दो जगह जाना है. हायर सेकेंडरी स्कूल में ‘हिंदी साहित्य सभा’ के लिए तथा बाद में ‘क्रिया’ के लिए. आज मन शांत है, कल जैसी उथल-पुथल नहीं है. कल सम्भवतः उसे कुछ हो गया था, गुरू की कृपा से ‘बहुत कुछ’ होने लगा है न उसी में से ‘कुछ’.

आज उसे एक और अनुभव हुआ, अहंकार बहुत सूक्ष्म होता है, कई बार उसे लगता है कि वह इससे मुक्त हो रही है पर इसकी जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि थोडा सा अनुकूल अवसर आने पर यह अंकुरित हो जाता है. गुरू कितने उपायों से इसे तोड़ना सिखाते हैं, पर वह उनसे ही नाराज हो जाती है. ईश्वर मानव के कार्यकलापों के साक्षी हैं, वे हर पल नजर रखते हैं, वह उपद्रष्टा हैं ! वह यह भी देखते हैं कि किस तरह वे अपने अहम् को पोषते हैं. यह जो कुछ बनने की, कुछ कर गुजरने की प्रवृत्ति है वह भी अहम् का रूप है. वह ही उन्हें कार्य करने की अनुमति देते हैं, लेकिन वह अनुमति उनके स्वभाव तथा पुर्वकर्मों द्वारा नियत किये हुए प्रारब्ध के अनुसार ही होती है. जीवन में जब भी कभी मानसिक उद्वेग या पीड़ा का अनुभव होता है इसके पीछे उसका अहंकार ही जिम्मेदार है. अहम् को चोट लगती है तो पीड़ा होती है और यह अहम् सत्य नहीं है मिथ्या है. इसको परत दर परत वे खोलते जाएँ तो वहाँ कुछ बचता ही नहीं. यह खोखला है, पोला है, इसका अस्तित्त्व है ही नहीं. वे इसे मान बैठे हैं. इस झूठ ने उन्हें सत्यरूपी ईश्वर से दूर किया हुआ है गुरू की नजरों में स्वयं को कुछ साबित करना भी अहम का विकृत रूप है और यह घृणित भी है. गुरू के समक्ष यदि वे अज्ञानी बनकर पूर्णतया खली होकर जायेंगे तभी तो गुरू कुछ प्रदान कर पाएंगे अन्यथा तो उनका ज्ञान ही उनके रस्ते में आयेगा. पूर्णत विनम्र होकर ही गुरू को रिझाया जा सकता है !     





महाभारत का अध्ययन


गुरू के प्रति प्रेम मन से शुरू होता है और आत्मा तक पहुँचता है. गुरू से मिला ज्ञान अथवा प्रेम ही इस प्रेम को उपजाता है, उसके प्रति कृतज्ञता और आभार की भावना भी प्रेम का ही दूसरा रूप है. कल शाम उन्होंने योग शिक्षक से बात की. कल दोपहर उसकी आंखों में रह रह कर आंसू भर आते थे, यह आद्रता अंतर में कहाँ छुपी थी उसे स्वयं भी पता नहीं था, जो गुरू स्मरण से सारी सीमाएं तोड़कर बह निकली है. सम्भवतः यह सारी सृष्टि के लिए है जो ब्रह्म का ही दूसरा रूप है, बल्कि ब्रह्म स्वरूप है, सभी के भीतर वही प्रकाश है जो गुरू के भीतर है पर उनके भीतर का प्रकाश उनके चेहरे पर झलकता है, क्योंकि वह ईश्वर के निकट हैं. सब प्राणियों के प्रति उनके भीतर प्रेमपूर्ण भाव है, प्रसन्नता की मूरत हैं. निस्वार्थ भाव से इस जगत के कल्याण में लगे हैं. उनकी आँखों में ईश्वर का प्रकाश है. नूना ने सोचा, ऐसी ही भावना उनके हृदयों में उत्पन्न हो, उनका अभ्यास और वैराग्य दृढ़ हो. शाम को वे योग शिक्षक से मिलने जायेंगे. उनका मुख्य कर्त्तव्य है अपने सच्चे स्वरूप को जानना, जिसे भुला दिया है उसको याद करना. वह स्मरण इतना सहज हो जैसे धूप और हवा और जल अपने सहज रूप में सदा रहते हैं, झरते हुए, बहते हुए, बिखरते हुए वैसे ही उनका मन उसकी याद में झरता रहे, बहता रहे, पिघलता रहे, द्रवित होता रहे. कुछ स्थूल न बचे, कोई ठोसपना नहीं...सब कुछ बह जाये...

कल शाम वे क्लब गये, बेसिक कोर्स चल रहा था. पुरानी स्मृतियाँ उसके मानस पटल पर आ गयीं. उन्होंने सितम्बर में यह कोर्स किया था, आठ महीने होने को हैं. उसके जीवन के वे सुनहरे दिन थे. उन्ही दिनों उस परमपिता का अनुभव हुआ था, वह जो सत्य स्वरूप है, जो सदा से है, सदा रहेगा, जो सबका आधार है, जिसकी सत्ता से उनकी धड़कनें चल रही हैं. जो उनके भीतर है, उनके हर क्षण का साक्षी है, जो उन्हें सदा प्रेरित करता है, जिसका न आदि है न अंत, वह न स्थूल है न सूक्ष्म. वह जिसे वे इन्द्रियों से देख नहीं सकते जो मन की गहराइयों में भी अव्यक्त है. वह जो सुख का स्रोत है, प्रेम और ज्ञान का सागर है, वह जो सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है. वही शब्द है, वही नाद है, वही प्राण है और वही इन सबका आधार...ऐसे परमात्मा जिसकी स्मृति से उसका अंतर कमल की भांति खिल उठता है, एक अनजानी सी ख़ुशी की लहर पोर-पोर में समा जाती है, उनका स्मरण ही इतना प्रभाव डालता है तो उनका दर्शन कितना असर डालता होगा यह कल्पना से भी बाहर है. उनसे जो जुड़ा है वह गुरू पूजनीय है और उस गुरू से जो जुड़े हैं वह योग शिक्षक शाम को उनके यहाँ भोजन पर आ रहे हैं.

कल रात्रि आठ बजे शिक्षक आये, दस बजे गये, दो घंटे कैसे बीत गये पता ही नहीं चला. उनकी बातें मन को छूती हैं, ज्ञानप्रद हैं. नन्हे और जून को कोर्स करने व सत्संग में जाने को उत्साहित किया, दोनों प्रभावित नजर आ रहे थे. नन्हे को ‘महाभारत’ पढ़ने को कहा है. अभी कुछ देर पहले पड़ोसिन सखी से बात की. कल की मीटिंग की बहुत तारीफ़ क्र रही थी, श्लोक, गीत व गेम सभी अच्छे थे. अभी-अभी गुरुमाँ का प्रवचन सुना. बहुत स्पष्ट शब्दोंमें बोलती हैं.
चाह चूड़ी चाह चमारण, चाह नींचा दी नीच
तू तां बुलया शाह सी, जो चाह न होती बीच

योग वशिष्ठ में कहा गया है जिसके हृदय से सब अर्थों की आस्था चली गयी है, अर्थात जो जगत में रहते हुए भी यह जानता हो कि सब सपना है, सब माया का खेल है, आत्मशांति तभी मिलती है जब यह ज्ञान होता है. श्री श्री के हृदय में भी यही ज्ञान है और तभी वह इतना काम कर पाते हैं. वे भी ज्ञान में स्थित रहें, अविद्या को दूर करें तभी आत्मिक सुख पा सकते हैं और तब कोई भौतिक आकांक्षा नहीं रह जाती क्योंकि उस एक के सिवा प्राप्त करने को क्या है ? प्रवृत्ति और निवृत्ति का ज्ञान प्राप्त करना है. उसका दिया उसको अर्पण करके ग्रहण करना है.


Wednesday, March 4, 2015

कृष्ण की गीता


ज्ञानी गुरू की कृपा के बिना संसार सागर से पार होना असम्भव है, गुरू का हाथ उनके सिर पर रहे तभी उनका कल्याण होगा. कल के उत्सव में उसने एक कविता पढ़ी, जो सभी ने पसंद की, पर यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि गुरूजी ने ही उसे प्रेरित किया. कल उनकी पुस्तक पढ़ी. ज्ञान कितना अनमोल है यदि कोई इसे समझे, तो ही !
दोपहर को पन्द्रह-बीस मिनट ही सोयी पर भारीपन छा गया है, जबकि इससे अधिक देर तक ध्यान करने से भी थकान मिट जाती है. ध्यान में अवश्य ऐसी कोई बात है. आज सुबह बाबाजी ने अपने पुराने अनुभवों का जिक्र किया, उन्होंने विपरीत परिस्थियों में सात वर्ष गुजारे. ईश्वर प्राप्ति के लिए कठिन साधना करनी पडती है और आग में तपकर जब वह ज्ञान प्राप्त कर सके तो संत के पद पर लोगों ने उन्हें बैठाया. गुरू पद को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है, और शिष्य बनना सम्भवतः उससे भी कठिन. अपने अहम् को मिटा देना होता है. विनम्र होकर ही गुरू से कोई कुछ पा सकता है. वरन अपने मिथ्या  अभिमान से वह स्वयं ही दबता रहेगा. अध्यात्म के मार्ग पर चलना बहुत कठिन है पर उतना ही मधुर भी...मानसिक तप करते करते मन को अपना दास बनाना है. मन ही उन्हें ऊंचाइयों पर ले जायेगा. मन की एक न सुनते हुए ज्ञान की सुनें, विवेक की सुनें तो सही मार्ग से विचलित नहीं होंगे. उसने घड़ी की ओर देखा, अब शाम के खाने की तैयारी का वक्त है.

परमात्मा की शरण में जाने पर हृदय अपने आप पावन होने लगता है. प्रज्ञा स्थूल होने पर ही अकरणीय कर्म कर बैठती है, बुद्धि यदि परमात्मा में स्थिर हो तभी प्रज्ञा सूक्ष्म होगी, यानि ईश्वर को ईश्वर से ही जाना जा सकता है. मन में न जाने कितने जन्मों के संस्कार हैं, जिनकी छाप इतनी गहरी है कि उसे मिटने में समय तो लगेगा ही. ध्यान के समय निर्विचारता की स्थिति आये उसके पूर्व लम्बे रस्ते से गुजरना होगा. कुछ देर के लिए ऐसा लगता है मन खो गया है पर जैसे ही यह भाव आता है फिर कहीं से कोई विचार प्रकट हो जाता है. ध्यान में बैठना लेकिन बहुत अच्छा लगता है. अज गुरुमाँ कहा कि संगीत अपने आप में कठिन साधना है और इसमें वर्षों लग सकते हैं. सुरों को मन में बैठना ही सबसे कठिन है. इस माह परीक्षा के बाद वह संगीत अध्यापक से विदा ले लेगी और पहले स्वयं रियाज करके जितना सीखा है उसे ही पचाना है. कल रात जून को नींद नहीं आयी, उसकी भी नींद थोड़ी डिस्टर्ब रही. शुभ-अशुभ की स्मृति न रहे, शुभ-अशुभ में प्रीति न रहे तो मन शांत रहेगा. कृष्ण ने कहा है, यदि सारे कर्मों को निष्काम भाव से करते हुए चित्त को उसमें लगाये रखेंगे तो वह बुद्धियोग प्रदान करेंगे. सभी परिस्थितियों में समभाव बनाये रखना भी चित्त को प्रभु में लगाये कहने जैसा ही है. अज वह न व्यायाम कर सकी न ध्यान, उसकी एक पुरानी छात्रा आयी थी, कलकत्ता में रहकर पढ़ी क्र रही है. आज सुबह क्रिया के बाद मन बेहद शांत था, बल्कि मन था ही नहीं, सिर्फ एक मौन था !

पिछले दो दिन डायरी नहीं खोली, शनिवार और इतवार इधर-उधर के कामों में कैसे बीत गये पता ही नहीं चला. कल शाम वह aol के भजन में गयी, योग शिक्षक आये थे, जब उन्होंने गुरू वन्दना शुरू की, उसका मन कृतज्ञता से आप्लावित हो गया. आज गुरुमाँ ने ध्यान की विधि बतलायी. विचार यदि आते हैं तो उनसे लड़ना नहीं है, असंग रहना है. एक विचार आता है वह चला जाता है, अगला अभी आया नहीं है. उस क्षण में स्थिर रहना है. गुरुमाँ नित नये तरह के वस्त्र पहनती हैं, बहुत प्यारी लगती हैं. कभी न कभी  इस जीवन में उनसे भेंट हो, यह उसकी हार्दिक इच्छा है और ईश्वर उसकी इच्छाएं सदा पूरी करते आये हैं ! बाबाजी ने बताया किस तरह संकल्प शक्ति को बढ़ाते जाना है. आत्मा में सुना, सब कारणों के कारण कृष्ण हृदय में रहते हैं, शुभ-अशुभ कर्मों तथा विचारों के साक्षी है. वही कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं. शरीर, मन और बुद्धि की दासता को त्याग कर जब कोई कृष्ण के प्रेम का बंधन स्वीकारता है तो सारा का सारा विषाद न जाने कहाँ चला जाता है !




Tuesday, March 3, 2015

बुल्लेशाह की काफी


ज्ञान वहीं टिकता है, जहाँ वैराग्य है ! ‘मैं’ मेरी है या तेरी है ? यदि यह ‘मैं’ मेरी नहीं तेरी है तो कैसा बंधन और कैसी मुक्ति ? अहंकार शून्य गुरू के सम्मुख जो स्वयं भी ऐसा हो जाता है वही उसको पा सकता है. अभी कुछ देर पूर्व गुरुमाँ का सुंदर प्रवचन आ रहा था पर अब केबल नहीं आ रहा है. मन जो उच्च स्तर पर पहुंच गया था फिर रोजमर्रा के कार्यों की सूची बनाने में व्यस्त हो गया है, मन को कितना समय लगता है एक स्तर से दूसरे स्तर तक जाने में. पलक झपकने से भी कम समय लगता है. सुबह ‘क्रिया’ के दौरान भी कई बार इधर-उधर की सोचने लगता है. अज सुबह ही चाय पीते समय किसी की खबर सुनकर आलोचना पर उतर आया जबकि वह इस दुनिया में नहीं रही थी. जो इस दुनिया से चला गया उसके लिए कुछ बाकी नहीं रह गया. सद् प्रार्थना  ही चाहिए उसे. पल-पल मन को सचेत रखना है अन्यथा परमात्मा दुर्लभ ही रह जायेगा. बस अब और नहीं, बहुत डोल लिए हिंडोलों में, बहुत पचड़ों में पड़ लिए. अब मुक्त होना है, अपने मन की गांठों को एक-एक कर खोलते जाना है और पुनः न बंधे इसके लिए भी सतर्क रहना है. मन की सौम्यता को नष्ट होने से बचाना है. धर्म की रक्षा करनी है और सत्य का दामन जोरों से पकड़ना है. मन जितना सरल होगा जीवन उतना ही सहज होगा और सहज प्राप्य ईश्वर तब उन्हें उसी तरह मिलेंगे जैसे हवा और धूप !

कल शाम को bang on the door पुनः पढ़ी और समझी भी. जैसे-जैसे वे ज्ञान के सागर में नीचे उतरते जाते हैं मोती और सुंदर होते जाते हैं. गुरू ज्ञान का सागर है और उसके वचन सुनहले मोती हैं जिन्हें उन्हें धारण देना है. जिनकी चमक से उन्हें अपनी आत्मा को चमकाना है फिर वह उनसे छुप नहीं सकेगी, प्रकाशित होगी ही. गुरुमाँ ने बुल्लेशाह की एक काफी पढ़ी, जिसका भाव था कि ‘ध्यान में इतना मग्न हूँ कि मुझे समय का भान नहीं है और न ही कोई मुझे समय का भान कराए अपने हृदय में मैं उस प्रिय का दर्शन करने में मस्त हूँ कि संसारी प्रवृत्ति में लगने की मेरी कोई इच्छा ही नहीं रह गयी है’. परसों गुरूजी का जन्मदिन है, वह बेहद खुश है. शाम को वे उत्सव में जायेंगे, जून लेकिन नहीं रुकेंगे, गुरूजी ने उसे इतना कुछ दिया है कि कृतज्ञता के सिवा उन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है पर वह उनकी आभारी है, बहुत बहुत आभारी !  

आज श्री श्री का जन्मदिन है, आज ही के दिन पैंतालीस साल पूर्व वह तमिलनाडु के पापनासम नामक स्थान पर वेंकटरमण तथा विशालाक्षी के यहाँ जन्मे थे. बचपन से ही भगवद् प्रेम का उनमें उदय हो चुका था. ईश्वर की उसपर अनुकम्पा है कि ऐसे गुरू के दर्शनों का उसे लाभ हुआ है. उनकी ज्ञान गर्भित, सार युक्त प्रेरणा प्रद सत्य वचन हृदय को उच्च केंद्र तक ले जाते हैं. उनके कर्म अकर्म बन जाएँ सदा ईश्वर की सेवा में जुड़े रहें, पुराने कर्मों को काटते चलें, उनके द्वारा मिले प्रारब्ध को वे भोगते चले जा रहे हैं. नया कुछ कर नहीं रहे हैं तो नया जन्म लेने की क्या आवश्यकता है, मन निर्वासनिक हो गया है, मात्र कर्त्तव्य शेष है पर कोई वासना नहीं, कोई भौतिक वस्तु उन्हें  नहीं चाहिए. मानव देह उन्हें इसलिए ही मिली है कि अपने प्रारब्ध को समभाव से भोगते रहें तथा आगे के लिए कोई बंधन न बांधें !




Monday, March 2, 2015

मधुमक्खी सा मन





 रात्रि के दस बज गये हैं, जून अभी तक वापस नहीं आए हैं, जहाँ कोपरेटिव की वार्षिक मीटिंग + डिनर चल रहा है. उसने अभी-अभी शुरू से डायरी के पन्नों पर नजर डाली, कृष्ण को समर्पित मन के उद्गारों से भरे थे वे पन्ने, और इस क्षण भी वह अपने भीतर उसी का उजाला महसूस कर रही है, सिर में कोई नाद धम-धम सुनाई दे रहा है, मन शांत है. शाम को संकल्प किया था कि सुबह जल्दी उठना है और स्नान करके ही ध्यान के लिए बैठना है, पर आज सोने में देर हो रही है. छोटे भाई का पत्र आया है, पिताजी ने उसके पत्र का उत्तर उसी में लिखवा दिया, वे स्वयं अभी नहीं लिख पा रहे हैं, आँखों का इलाज चल रहा है. कल छोटी भांजी को कार्ड भेजा, दीदी को पत्र लिखा आज टीवी पर तूफान की चेतावनी दी गयी, रात को तेज वर्षा होने की सम्भावना है. नन्हा आज बहुत दिनों बाद क्रिकेट खेलने गया, लगता है जून आ गये हैं.

जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता है स्वयं से पहचान..  ‘किसी को उससे भय न हो और किसी से उसे भय न हो’, ऐसा तभी सम्भव है जब स्वयं की दिव्यता का आभास हो जाये, अन्यथा हृदय के विकार दग्ध करते ही रहेंगे. किसी के व्यक्तित्व के निर्माण में भक्ति का बहुत महत्व है, परमेश्वर से बढकर परम मित्र कौन है जो हृदय को मुक्त करने की कला सिखाता है. कल रात उसने बाबाजी को स्वप्न में देखा, वे उनके आश्रम में हैं. उसने उन्हें प्रणाम किया और बताया कि उन्हीं के एक स्कूल में पढ़ाने का कार्य शुरू किया है. नन्हे को भी प्रणाम करने को कहा. स्वप्न में भी उनसे एक सवाल वह पूछ रही थी कि आप जो कहते हैं वह दिल से आता है या सामने लिखा हुआ रखा रहता है, अजीब सा प्रश्न है पर उनका उत्तर था कि सामने लिखा भी रहता है. आज उन्होंने सिन्धी भाषा में प्रवचन किया. झूलेलाल का उत्सव चेट्टी चाँद मनाया जा रहा था. जून वापस आ गये हैं. हड़ताल के कारण उन्हें व किसी को भी दफ्तर में प्रवेश करने नहीं दिया गया. कल भी हड़ताल हुई थी पर उनका विभाग खुला था. आज धूप तेज है, अभी  सुबह के आठ बजे ही गर्मी का अहसास हो रहा है. देश के बाकी हिस्सों में एक महीने से लोग गर्मी का अहसास कर रहे हैं, वे यहाँ के मौसम की शालीनता के कारण उससे बचे थे. कल एक सखी आयी थी परिवार सहित. नूना भी आलोचना करने से रह नहीं पाई. आत्मा पर कोई न कोई दाग रोज बल्कि हर क्षण लगता ही रहता है, फिर ईश्वर के दर्शन क्योंकर हो सकते हैं. विषपान से भी हानिप्रद विषयों का चिन्तन है, सांसारिक विषयों का चिन्तन ही पथ से विचलित करता है, और वे जितना उस जाल में उलझते जाते हैं, स्वयं को बेबस पाते हैं. आशाओं रूपी नदी, जिसकी लहरें मन की वृत्तियाँ है, को पार करना है. पवित्रता, अभय, धैर्य और क्षमा आदि की पतवार के सहारे ही वे इस नदी को पार सकते हैं ! दूसरों के अंदर दोष देखना आसुरी स्वभाव है. अन्यों के गुणों को देखकर मधुमक्खी की तरह उन्हें स्वयं में भरना चाहिए.

कल से नन्हे को सुबह जल्दी उठकर फिजिक्स पढ़ने जाना है, उन्हें उसे चार बजे ही उठाना होगा. शनिवार को तिनसुकिया से वह बालकृष्ण का एक सुंदर चित्र लायी थी, उसे देखते ही मन प्रसन्न हो उठता है. कृष्ण की मुस्कान मन मोहिनी है. वह उन्हें सदा खिले रहने को प्रोत्साहित करती है !

कल से ही उसके मन में कई प्रश्न उठ रहे थे कि आत्मा यदि अजर, अमर और शक्तिमय है तो मानव को इतने दुःख क्यों उठाने पड़ते हैं..यदि परमात्मा ने अपना अंश स्वरूप उन्हें बनाया है तो इतनी पीड़ा इतनी बेचैनी क्यों...दिल में जैसे एक टीस सी उठती है, इन बन्धनों से मुक्त होने की तीव्र आकांक्षा ! जवाब भी मिल जाता है...राग, द्वेष आदि जीव सृष्टि में ही सम्भव हैं, ईश्वर की सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है. अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुसार सब प्रेरित हो रहे हैं, तुच्छ स्वभाव को दिव्य स्वभाव में बदलना है. मन को अकारण ही कल्पना करने आदत को भी छोड़ना है, व्यर्थ के चिन्तन अथवा विलाप से बचना है.