Tuesday, February 28, 2017

बनारस के पान


सुबह सवा छह बजे वे स्टेशन पहुंच गये, मुगलसराय स्टेशन. रात्रि को ट्रेन में नींद आती-जाती रही, एक कोई जन तेज ध्वनि में खर्राटे ले रहे थे, दिन भर की बातें भी मन में आ रही थीं, पर भीतर कोई जाग रहा था जो सचेत कर रहा था. कल एक नई पुस्तक भी पढ़नी शुरू की ट्रेन में, “The Einstein Factor” अच्छी किताब है, इसके अनुसार कल्पना में जो चित्र भीतर दीखते हैं उन पर ध्यान देने से कितने नये आयाम खुल सकते हैं जीवन में. जीवन को वे जैसा चाहे मोड़ सकते हैं, स्वयं के मालिक बनना ही धार्मिक होना है. कल दोपहर पूर्व ग्यारह बजे ही वे कोलकाता तक की हवाई यात्रा के लिए निकले थे, जहाँ पहुँचकर सीधा रेलवे स्टेशन, रस्ते में पुराना कोलकाता दिखा, पच्चीस वर्ष पूर्व जैसा देखा था लगभग वैसा ही. मुगलसराय से बनारस तक की यात्रा में सड़कों में कुछ सुधार अवश्य दिखा पर झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले गरीब वैसे ही थे, विकास का का फल उन्हें नहीं मिल रहा है. यहाँ घर पर पूर्व से ज्यादा स्वच्छता व सम्पन्नता दिख रही है, मौसम में हल्की ठंडक है.

आज नवरात्रि का तीसरा दिन है. कल वे जून के एक बचपन के मित्र के यहाँ गये. वाराणसी की रौनक देखी, भीड़ भरा बाजार, जगह-जगह सजे हुए मन्दिर, सडक पर कीर्तन करती महिलाओं का जुलूस, देवी के भजन जो गूँज रहे थे. उनके घर में प्रेम भरा स्वागत हुआ. लौट कर उसने विवरण लिखा.

बनारसी दावत

एक स्कूटर, एक बाइक, एक किया आटोरिक्शा
चले सभी मिल एक साथ, लक्ष्य था घर उनका !

भीड़ भरा हर चौराहा था, चौकाघाट से चली सवारी
लहुराबीर से सिगरा होके, औरंगाबाद की आयी बारी !

नीचे था पान गोदाम, पान सहेजे गिने जा रहे
घर के लोग भी सँग औरों के, हरे पान को छांट रहे

अम्मा की तस्वीर पुरानी, याद दिलाती दिवस पुराने
झुक-झुक बच्चे पैर छू रहे, ऊपर मिले सभी सयाने !

घर में इक मंदिर सजा था, देवी पूजा का आयोजन
एक दीप अखंड जल रहा, सुबह-शाम जहाँ होता वन्दन !

सभी बैठ मिल बातें करते, तभी नाश्ते सम्मुख आये
बर्फी, लड्डू, और समोसे, काजू और मखाने लाए !

गाजर का हलवा स्वादिष्ट, आलू के कटलेट भी आये
खट्टी, मीठी चटनी के सँग, एक-एक को थे सब भाए !

साबूदाने की फिर खिचड़ी, मठरी, भुजिया कुरमुरी थी
अंत में मिली चाय बनारसी, ऐसी अद्भुत आवभगत की !

तीसी, खसखस के लड्डू थे, शुद्ध घी में डूबे पूरे
इससे भी बढ़कर थे दिल वे, बच्चों, बड़ों सभी के प्यारे !


Monday, February 27, 2017

तेज पत्ते का पेड़


मन के भीतर उपजा एक छोटा सा शब्द या विचार मन की शांति को भंग करने में समर्थ है, यह तो अच्छा है कि यह उनके हाथ में है उसे उपजाएँ या नहीं, लेकिन तभी तक जब तक वे सजग रहते हैं. एक बार बेहोशी में कोई विचार उपजाया तो बात हाथ से निकल सकती है और ऊपर से तुर्रा यह कि वह शब्द एक बीज बनकर भीतर जम जायेगा और भविष्य में आलंबन मिलने पर पुनः पनप सकता है. लेकिन शब्द का जन्म किसी न किसी कामना के कारण होता है, कामना ही हर दुःख के जड़ में है, कोई उसे प्रेम का नाम दे यह उसकी स्वतन्त्रता है पर भीतर कहीं भय है जो कामना को जन्म देता है और यह भय अकेले रह जाने का है, इसका मूल भी तो मृत्यु के भय में है. वे मरना नहीं चाहते किन्तु आत्मा में स्थित रहें तो मृत्यु का भय नहीं और आत्मा में रहें तो अकेलेपन का भी भय नहीं और कामना का तो वहाँ प्रश्न ही नहीं उठता. हर कामना अभाव से उपजती है, आत्मा पूर्ण है वहाँ कोई अभाव नहीं. जीवन कितना सुंदर है और वे इसे कुरूप बनाने में लगे रहते हैं. वे उन दुखों को पैदा कर लेते हैं जिनका वास्तव में कोई अस्तित्त्व ही नहीं है, वे संशय के जाल में स्वयं को फंसा लेते हैं, जहाँ विश्वास के फूल खिले हैं. उनका दुःख के प्रति लगाव तो देखते ही बनता है. वे उगते हुए सूर्य में अंगारे खोज लेते हैं और बहते हुए धारे में तलवारें खोज लेते हैं. जो उनके पास है उसकी कद्र करने की बजाय  उसके खो जाने के अज्ञात भय में रातों की नींद गंवा देते हैं !

‘जो तू है सो मैं हूँ’ इस उक्ति को जाने कितनी बार कहा, सुना था. आज पूरी तरह से अनुभव भी कर लिया. कल रात्रि सोने से पूर्व अस्तित्त्व जैसे उस पर बरसा. ऐसा अनुभव पहली बार हुआ, अज्ञात ने जैसे उसे चारों और से घेरे में ले लिया थे. अचिंतनीय भावों की वर्षा हो रही थी. शांति इतनी सघन थी कि..और तब प्रतीत हुआ कि जैसे वह है इस देह में अपनी यात्रा पूर्ण करती हुई वैसे ही अन्य आत्माएं हैं सबके साथ प्रेम का ही नाता है. जो वह है वही वे हैं, कोई भेद है ही नहीं, तभी उनके द्वारा किसी को कहा गया कटु वचन उन्हें भी दुःख दे जाता है और उनके द्वारा किसी को कहा गया प्रेमपूर्ण वचन उन्हें ही तृप्त कर जाता है क्योंकि उन्होंने स्वयं को ही कहा होता है. मन और आत्मा दोनों ही परमात्मा की सन्तान हैं, आत्मा सुर है मन असुर, आत्मा कृष्ण है और मन कंस है, मन जब तक अर्जुन नहीं बन जाता उसे मरना होगा. भक्त होकर ही मन आत्मा से एक हो जाता है, रावण होकर वह आत्मा का विरोध करता है, विभीषण होकर उसकी शरण में जाता है. जून का फोन आया था सुबह, वह उसका सच्चा मीत है, उसकी आत्मा है, उसे उसने कुछ मूर्खतापूर्ण शब्द कहे जो स्वयं को ही चुभने लगे, उससे क्षमा मांगी, मन हल्का हो गया. सुबह ध्यान के वक्त भीतर कविताएँ जन्म ले रही थीं. असीम है सद्गुरू की कृपा..उनकी कृपा ही उसे यहाँ तक लायी है, परमात्मा की चौखट पर लाने वाले उसके प्यारे सद्गुरू को कोटि कोटि प्रणाम उसने भेजे.

सरदारनी आंटी को कार्ड, फूल व छोटा सा उपहार देकर आयी है. अब उनके दिल्ली जाने से पहले सम्भवतः एकाध बार और उनसे मिलना हो. आज दायीं तरफ की पड़ोसिन का फोन आया, वे लोग भी तबादले के कारण दिल्ली जा रहे हैं. जून के एक और सहकर्मी भी जा रहे हैं, एक दिन तो सबको छोड़ना ही था, अच्छा है एक-एक कर सब बिछड़ रहे हैं. मन मुक्त रहेगा जितना उतना परमात्मा में टिकेगा. आज सुबह ध्यान में एक आकृति दिखी पहले भी कई बार दिखती है, कौन है वह ? क्या है ? कौन जानता है, कोई दिव्य आत्मा या उसका कान्हा स्वयं ही ! जून आजकल बहुत शांत हो गये हैं, वे भी अध्यात्म के पथ के यात्री हैं. परमात्मा कभी भी किसीकी पुकार अनसुनी नहीं करता, वह अनंत है, वे उसकी एक बूंद कृपा के भी आकांक्षी नहीं हो पाते अहंकार के कारण.
कल उन्हें यात्रा पर निकलना है, तैयारी अभी शेष है. मन एक भिन्न उल्लास का अनुभव कर रहा है. अभी कुछ देर पूर्व धोबी आया था, पुराना कम्प्यूटर जो उसे दिया था, चला ही नहीं, कह रहा था लौटा जायेगा. आज कढ़ी बनाई है. पिताजी को ताजा तेजपत्ता व कढ़ी पत्ता घर ले जाने का मन है. जून के मना करने के बावजूद ढेर सारे हरे पत्ते वह अपने सूटकेस में रख रहे हैं. यदि कपड़ों में कोई दाग लग जाये या गंध भर जाये इसकी परवाह किये बिना. 

Friday, February 24, 2017

रूद्र पलाश के फूल


आज गुरूवार है, जून अभी भी बनारस में हैं. इतवार को आएंगे. नैनी ने बिना उससे पूछे मिक्सी इस्तेमाल की, उसे डांटा पर खुद को ही अच्छा नहीं लगा. उसे कुछ देकर प्रसन्न किया. जून ने कहा, एक सखी ने उसे फोन करके ज्योतिष की किताब लाने को कहा है, सुनकर संस्कारवश अच्छा नहीं लगा, कितने गहरे संस्कार हैं, अवचेतन काम करता है तो चेतन कुछ भी नहीं कर पाता, पर अगले ही पल सजग होकर देखा तो वह सामान्य हो गयी. पिताजी को बताया, उन्हें भी ज्योतिष पर विश्वास नहीं है.

आज भी एक बार देह में अप्रिय संवेदना का अनुभव होने पर साक्षी भाव बनाये रखने पर तत्क्षण मन की समता प्राप्त की उसने. विपश्यना कितना अद्भुत ज्ञान है. सत्य ही एकमात्र उनका अपना है, ऋत कहें, नियम कहें, हुकुम कहें, धर्म कहें या आत्मा कहें, ब्रह्म कहें, प्रेम, आनन्द, शांति या जो भी नाम दें, स्वयं के बन्धु तो यही हैं, एक हैं पर अनेक हुए हैं. जीव ईश्वर का अंश है, वह उसी का है, उस जैसा है. जून परसों आ जायेंगे, आज दोपहर उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था.

कल नन्हे से उसने उन विषयों पर बात की, जिनसे मन परेशान था. उसे अपने बारे में कोई संदेह नहीं है. वह उन बीस प्रतिशत लोगों में से है जो किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते. उसको भी परमात्मा राह दिखायेंगे. यहाँ हर एक को अपना मार्ग स्वयं ही चुनना होता है. अपने कर्मों का फल हरेक को स्वयं ही भोगना होता है. प्रियजनों को दुःख होता है पर वह आसक्ति के कारण, जहाँ राग है, वहाँ दुःख है, जहाँ अहंकार है, वहाँ दुःख है, जहाँ ईर्ष्या है, वहाँ दुःख है. वह कुछ भी नहीं है, इस बात का अनुभव उस दिन किसी अन्य के द्वारा हुआ तो वह क्रोध से भर गयी. ध्यान में यह कहना कि वह कुछ भी नहीं है, शांति से भर जाता है. यह दोहरापन क्यों ? उसे अपने होने के लिए भी दूसरों से सर्टिफिकेट लेना पड़े यह तो निर्धनता हुई, अभाव हुआ और यही तो दुःख है. कोई कह दे, वह अच्छा है, इसकी फ़िक्र में ही लोग क्या-क्या किये जाते हैं, साधारण होना कोई नहीं चाहता, सब असाधारण होना चाहते हैं. वह एकांत में इसलिए प्रसन्न रहती है क्योंकि वहाँ कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है. लोगों के बीच जाकर उनसे व्यवहार में आकर ही किसी को पता चलता है कि वह कितना पक गया है. अभी बहुत दूर जाना है, अनुभव को निजी बनाना है, बुद्धि के स्तर पर, आत्मा के स्तर पर उस परमात्मा से एक होना है.

अगले माह उन्हें यात्रा पर जाना है. इक्कीस मार्च से सात अप्रैल तक, जाने से पूर्व एकाध दिन तैयारी में और आने के बाद एकाध दिन घर ठीकठाक करने में, यानि कुल बीस दिन. कल रात को कविता नहीं लिखी, भाव भीतर उमड़ रहे हैं. फागुन आ गया है, आम के बौर की मदहोश कर देने वाली खुशबू नासापुट में भर रही है, रूद्र पलाश खिल गया है, पलाश अभी तैयारी में जुटा है. परमात्मा चारों ओर बिखरा है, उसकी छुवन भी मोहक है. माँ की सरदारनी सखी के लिए भी एक कविता लिखनी है. दोनों भाभियों का फोन आया है, दोनों उनके आने को लेकर उत्सुक हैं. टीवी पर सिन्धी साईं ईश्वर की महानता की चर्चा कर रहे हैं, वही तो है, वही है..बस वही है...कल से उसका गले में खराश है, पर स्वयं वह देह नहीं है, यह भाव दृढ़ होने से कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा है ! हवाएं उसका क्या बिगाड़ सकती हैं, यह माया उसका क्या बिगाड़ सकती है. वह निस्पृह, निसंग, निष्क्रिय, अनादि, अनंत चेतना है ! वह निरंजन है, अलख है, कोई वस्तु कोई विचार, कोई परिस्थिति उसे छू नहीं सकती !

वर्धा में बापू की रामकथा का तीसरा दिन है, विनोबाजी को केंद्र में रखकर वह यह कथा कह रहे हैं. उनकी चेतना को प्रणाम करते हुए वह कथा का आरम्भ कर रहे हैं. दादा धर्माधिकारी का भी भाषण हुआ, बनारस में वर्षों पहले वह उनसे मिली थी, उसकी डायरी में एक वाक्य उन्होंने लिखा था, “बने बनाये राजपथ छोड़ो, नव राहों का सृजन करो” बहुत बाद में उसने इसी पर एक कविता भी लिखी.


उस दिन मोरान में जो भाव उसके मन में उठा था गुरू पूजा का, वह कल फलीभूत होने वाला है. सभी को निमंत्रण दे दिया है. कल शाम जून ने सूची बना ली थी, आज भोज का सामान भी ले आएंगे व पूजा का सामान भी. साढ़े दस बजने को हैं, बापू मानस का पाठ कर रहे हैं. मार्च आ गया है, पर दिसम्बर जैसा माहौल है.

अंतिम यात्रा


आज सत्संग का दिन है, पिछले हफ्ते की तरह सम्भवतः आज भी उसे सद्गुरू और परमात्मा के साथ भजन गाने हैं. दोपहर को नेहरू मैदान गयी, जहाँ मृणाल ज्योति स्कूल के विशेष बच्चे गणतन्त्र दिवस के लिए नृत्य की रिहर्सल कर रहे थे. एक सहयोगी महिला मिलीं वहाँ, सुंदर गोल गोर चेहरे पर लाल बड़ी सी बिंदी, स्नेह भरी ! एक अन्य परिचिता भी आयीं थीं. जून और माँ-पिता जी डिब्रूगढ़ से कल लौटेंगे. दीदी से बात की, उन्हें भी अपने अनुभव लिखने को कहा है, देखें, कब लिखती हैं. कल छोटी बहन के विवाह की सालगिरह है, उसे कविता भेजनी है. अभी-अभी एक सखी का फोन आया वह शाम को सत्संग में उसका साथ देगी.

जून माँ-पिताजी को डिब्रूगढ़ से लाये और यहाँ के अस्पताल में उन्हें छोड़कर सीधा दफ्तर चले गये, वह शाम को जाएगी. उसने सूप की तैयारी कर ली है. कल गाजर का हलवा भी बनाया था, मिठाई भी है, सो शाम का नाश्ता काफी है.
 ‘गणतन्त्र की क्या पहचान
न्याय, समानता, व सम्मान’
कल उसने सभी को गणतन्त्र दिवस पर संदेश भेजे.

कल यहाँ भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम आये थे, आज भी यहीं हैं. जून इसलिए क्लब गये हैं, जहाँ उनका सम्बोधन होगा. आज बसंत पंचमी भी है. माघ शुक्ल पंचमी, भीतर मौन छाया है. मौन ही सत्य है, शब्द जैसे ही जन्मे, कुछ असत्य भी जन्मा साथ ही, अविद्या यही है, विद्या ही आत्मा है, वही परा है. शेष सब क्रीड़ा है, लीला है. मौन में जितना अधिक देर रहा जाये अच्छा है. टीवी पर बापू की कथा आ रही है. अभी नरेंद्र कोहली अपना मत रख रहे थे.

अगला माह आरम्भ हो गया, दो दिन बीत गये, वह लिखने का समय नहीं निकाल पायी. घर और अस्पताल आते-जाते आजकल दिन कैसे बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता. आज एक सखी की बिटिया का जन्मदिन है, उसके लिए अभी तक कुछ नहीं लिखा. कल एक दूसरी सखी की सासुमा से मिली, कह रही थीं, औरत तो सहनशील होती ही है, उसके पास धैर्य होता है. छोटी बहन ने बताया, महिला होने के कारण उसे कम वेतन दिया जा रहा है. एक महिला ब्लॉगर लिखती हैं, औरत जब बेगारी करना नहीं चाहती तो उसे बुरा मान लिया जाता है. उसे लगता है, हरेक का सम्मान उसके अपने हाथ में है, कि वह कितनी समझ से काम लेती है, जीवन को एक विशाल दृष्टिकोण से देखती है. अध्यात्मज्ञान के बिना कोई भी पूर्ण संतुष्ट नहीं हो सकता.

फिर दो दिनों का मौन, आज कई दिनों बाद पुनः बदली छाई है. ठंड बढ़ गयी है. जून देहरादून गये हैं. चार दिन बाद आयेंगे. कुछ देर में ड्राइवर आकर माँ का दोपहर का भोजन ले जायेगा.

कल शाम माँ ने देह त्याग दी. देह जर्जर हो गयी थी. पिताजी बहुत रो रहे हैं कल से. इस समय सभी लोग उन्हें लेकर गये हैं. मिट्टी की देह मिट्टी में ही मिल जाएगी और आत्मा अभी तक यहीं होगी या नई देह भी ले चुकी हो, कौन जानता है ? कल रात सभी लोग अस्पताल पहुंच गये थे. जून के मित्र व दफ्तर के कई लोग. एक सखी रात भर उसके साथ ही रही, वह परिवार के सदस्य की तरह अपना फर्ज निभा रही है. सुबह से ही अन्य सभी सखियाँ कुछ परिचित महिलाएं सभी लोग आये. दुःख के इस क्षण में सभी ध्यान रख रहे हैं. दोपहर तक जून व नन्हा भी आ गये. उसका मन पूर्ववत् शांत है. जो कुछ घट रहा है वह ऐसा ही होना था, एक नाटक को जैसे मंचित किया जा रहा है, ऐसा ही लग रहा है, इससे अधिक कुछ नहीं. जो लोग दूर हैं उन्हें भी ज्यादा अंतर नहीं पड़ रहा होगा. दोनों ननदों के मन जरूर यहीं पर होंगे. समय के साथ सारे दुःख कम होते जाते हैं, आने वाले दस दिन उनके जीवन के एकदम अलग से दिन होंगे.

पिछला एक हफ्ता डायरी को हाथ भी नहीं लगाया, न ही समय था न ही मन हुआ. उस दिन शाम को जून और नन्हा शमशान घाट से लौटे तो साथ में उनके दो मित्र भी थे. एक सखी ने दलिया भेजा था ढेर सारा, दूसरी ने सब्जी.. रात को सबने खाया. अगले दिन दोपहर को उसके दो भाई आ गये और जून के एक ममेरे भाई. गरुड़ पुराण का पाठ चल रहा था. दिन भर लोग आते रहे. दोपहर को माँ की एक सखी ने बहुत कुछ भेज दिया था. शाम को भी भोजन बाहर से आ गया. उसके अगले दिन सुबह नन्हा स्टेशन पर दोनों बुआजी को लेने गया डिब्रूगढ़, कल उन्हें छोड़ने भी गया, आज उसे वापस जाना है. श्राद्ध का सारा इंतजाम आराम से हो गया था, सुबह पंडितजी ने हवन किया, फिर पांच पंडितों का भोजन तथा दोपहर बारह बजे से श्राद्ध भोज आरम्भ हुआ. काफी लोग आये, कुछ नहीं भी आये. भाई लोग अगले दिन चले गये थे. उसका मन अशांत रहा. अचेतन में बैठी प्रवृत्तियां उभर कर ऊपर आ गयीं. साधना कुछ हो नहीं पायी. उनके मन में न जाने कितना कुछ भरा हुआ है. जून भी पता नहीं क्या सोचते होंगे. जीवन में कभी उथल-पुथल होती है तो कभी गहराई में दबा विकार भी ऊपर आ जाता है. खबर देता है कि अभी मंजिल दूर है. नौ बज गये हैं, आज भी अभी तक नन्हा सोकर नहीं उठा है, साढ़े ग्यारह बजे उसे जाना है.

पिछले दो दिन पुनः नहीं लिख सकी. आज जून को यात्रा पर निकलना है. बनारस की यह यात्रा दो उद्देश्यों के लिए है. माँ की अस्थियों के विसर्जन के लिए तथा बीएचयू में एक कांफ्रेंस में शिरकत करनी है. पिताजी का मन अभी तक उदास है.             

   

Wednesday, February 22, 2017

ओले और वर्षा


नया वर्ष आरम्भ हुए दस दिन हो गये और आज पहली बार लिखने का समय मिला है. आजकल दिन अस्पताल और घर दोनों जगह की खोजखबर लेते ही बीत जाता है. सुबह सवा चार पर नींद खुली, मन में विचारों का ताँता लगा था, अब तो विचार चित्रों के रूप में दीखते हैं और सजग होते ही न जाने कहाँ खो जाते हैं. साक्षी भाव का अनुभव साधना है, अन्यथा मन में उठने वाली छोटी सी लहर भी तरंगित कर देती है. किसी विचार को रोकने जाओ तो वह टिक जाता है क्योंकि उसे ऊर्जा दे दी, सम्मान दे दिया. विचार रास्ते पर गुजर जाने वाले वाहनों जैसे ही हैं, जो आते हैं और चले जाते हैं. नदी की धारा में बहने वाले सामानों जैसे भी, आकाश पर उड़ने वाले बादलों जैसे भी, जो अभी हैं और अभी नहीं. यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है सो कुछ भी सत्य नहीं है, जो इनका साक्षी है बस एकमात्र वही सत्य है. उसमें टिकना आ जाये तो मन स्वतः शांत हो जाता है.

कई दिनों से हो रही वर्षा के कारण ठंड बहुत बढ़ गयी है. पूरे देश में ही वर्षा, बर्फ, ओले व कोहरे का प्रकोप जारी है. सर्दियों का मौसम अपनी पूरी सेना लेकर आया है. सद्गुरू को सुना, सहज भाव से प्रश्नों के उत्तर दे रहे थे. सहज रहना तभी सम्भव है जब किसी को कर्म के फल के प्रति आसक्ति न हो. सहजता. सरलता यदि स्वभाव बन जाये तो परमात्मा दूर नहीं है. वह हर क्षण उनके साथ है, वे ही अपनी नासमझी में उसे भुलाकर ढूँढने का नाटक करते हैं. जैसे कोई चश्मा नाक पर लगाकर खोजने का प्रयास करे. उसके सिवाय उन्हें कुछ चाहिए भी नहीं, फिर भी इधर-उधर हाथ-पांव मारते हैं, वही उनका सुहृद है, हितैषी है, यह मानते हुए भी दुनिया का मुँह तकते हैं. उसने उन्हें दाता बनाया है, वे दाता हैं, फिर क्यों मंगते बनें. उसने ‘एक जीवन एक कहानी’  पुनः लिखना शुरू किया है. अन्य पुरुष में लिखना ही ठीक रहेगा.

जून आज बड़ी ननद की बड़ी बेटी की शादी में सम्मिलित होने चले गये, भांजी की शादी में उसका जाना तो सम्भव नहीं है. नन्हा वहाँ पहले से ही पहुंच गया है. कल विवाह है. दोपहर बाद वह अस्पताल गयी, सिक्योरिटी गार्ड्स को बीहू के लिए तिल के लड्डू दिए. पिताजी ने कहा, उसकी एक सखी ने फोन करके कहा है, वह सुबह उन्हें अस्पताल से घर ले जाने आएगी, उन्हें अच्छा लगा है. माँ आज भी बेचैन लग रही थीं. उन्हें तकलीफ हो रही है, पर शब्दों में कह नहीं पाती हैं.  

दो दिनों का अन्तराल. जून आज आ रहे हैं. सुबह गहरा ध्यान लगा. अब जबकि ध्यान सधने लगा है, लगता है उसे ध्यान करना आता भी है या नहीं. उसे कुछ भी नहीं पता, ऐसा भाव भी होता है. परमात्मा ही जाने क्या हो रहा है, वह तो अब है ही नहीं, यदि वास्तव में ऐसा है तो यह लिख कौन रहा है, लिखने वाला हाथ है, कलम है, देह है, मन है, बुद्धि है, पर ये सब तो वह नहीं है. जो वह है वह निराकार है, शुद्ध चैतन्य है. आज एक लेखिका व ब्लॉगर महिला का संदेश फेसबुक पर आया है. वह उसकी कविताएँ अपने अगले कविता संग्रह में छापना चाहती हैं ! उसने दीदी की बड़ी बिटिया के लिए कार्ड बनाया उसके विवाह की सालगिरह है आज, एक कविता भी लिखी. शाम को एक विवाह में भी जाना है, हो सका तो उसके लिए भी एक कविता लिखनी है. जून माँ के इलाज के सिलसिले में आज डिब्रूगढ़ गये हैं.

एक परिचिता का फोन आया, उनके बेटे की मंगनी हो गयी, उन्हें कल ही फेसबुक से पता चल गया था. रात को लौटे जून और अभी माँ के लिए दोपहर का भोजन ले गये हैं, अब दो दिन उसे अकेले रहना है परमात्मा के साथ, ‘वह’ ही रहे नूना न रहे अब ऐसा ही भाव होता है. दीदी ने उसका चौथा ब्लॉग भी पढ़ना शुरू किया है. धीरे-धीरे और भी पाठक मिलेंगे. आज धूप कितनी तेज है, बैठा नहीं जा रहा है. कल सिहरन हो रही थी, ऐसा ही जीवन है कभी धूप कभी छांव. एक और भी जीवन है, महाजीवन..जो सदा एकरस है. मधुमय और ज्योतिर्मय..कल एक पुरानी परिचिता से वर्षों बाद मिली, उन्हें अब तक उसकी कविता की स्मृति थी. कविता दिल से निकलती है और दिल परमात्मा से..परमात्मा प्रेम से..प्रेम अमर है सो कविता भी अमर है !


Tuesday, February 21, 2017

मन का विश्राम


कल शाम जून आ गये और जीवनधारा पूर्ववत् बह निकली है. आज दीदी की एक पोस्ट पढ़ी, अच्छी है. अभी कुछ देर में बच्चे पढ़ने आ जायेंगे, कल से एक नई छात्रा भी आएगी, उसने सोचा, देखें, कितना सीखती है. कल रात नन्हे से बात हुई. नये वर्ष की पूर्व संध्या पर वह अपनी कम्पनी के सभी लोगों को लेकर कूर्ग जा रहा है. उसी ने सारा कार्यक्रम ठीक किया है, होटल, बस आदि सभी कुछ, जोश से भरा था वह, काश उसके मन में दान का भाव भी जागे ! आज फोन ठीक हो गया, कई ब्लॉग्स पर टिप्पणी लिखीं. शाम को एक सखी से मिलने जाना है, उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, स्वास्थ्य मन  के भावों पर बहुत निर्भर करता है. रोग भी उनकी नासमझी का ही परिणाम हैं, हर दुःख उनका ही बुलाया हुआ होता है .मन खाली रहे तो ज्यादा अच्छा है बजाय इसके कि व्यर्थ का चिन्तन चलता रहे. खाली रहेगा तो उस परमशक्ति से जुड़ा रहेगा..शक्ति से भरा रहेगा, लगातार भरता रहेगा...

आज जन्तर-मन्तर पर अन्ना हजारे का अनशन चल रहा है, एक दिन का सांकेतिक अनशन, संसद में लोकपाल बिल पर बहस चल रही है. मौसम अपेक्षाकृत ठंडा है, कल चंद्रग्रहण था. आज पूर्ण चन्द्र अपने पूरे सौन्दर्य के साथ खिला है. माँ को अस्पताल में रहते एक महीना हो गया है, डाक्टर कह रहे हैं, आपरेशन करना पड़ेगा, कल जून डिब्रूगढ़ जायेंगे. टीवी पर ओशोधारा आ रहा है. गुरू की स्मृति में जीना साधक के लिए बहुत आवश्यक है, सद्गुरू की कृपा से ही उसे भी निराकार का आभास हुआ है. कर्मों का बंधन गुरू से नाता जुड़े बिना नहीं खुलता. नाम से प्रीत होने पर संसार की चाह नहीं रहती, नाम ही उन्हें अपने अंतर आकाश में ले जाता है.  

कल माँ को डिब्रूगढ़ ले गये हैं. दोपहर एक बजे वह अस्पताल से लौटी, पिताजी और जून वहीं हैं. सुबह माली आया था, जब उसने कहा, आज वह पूर्व कहे अनुसार गमलों पर रंग नहीं करेगा तो एक क्षण के लिए भीतर क्रोध उठा, पर जरा भी नहीं भाया और तत्क्षण विलीन हो गया, यानि कि अभी भी अहंकार बना ही हुआ है. ध्यान साधना नियमित करनी होगी, अभी मंजिल बहुत दूर है लेकिन उसका पता तो चल गया है. जून ने कल दस बजे गाड़ी का प्रबंध किया है, वह भोजन बनाकर ले जाएगी, साथ ही कुछ जरूरत का सामान भी ले जाना है.

तीन दिन वहाँ रहकर जून माँ को वापस ला रहे हैं, पता नहीं उन्हें अभी यहाँ के अस्पताल में फिर कितने दिन रहना होगा. यह वर्ष खत्म होने को है, नये वर्ष के कार्ड्स भेजने हैं. कल क्रिसमस के लिए  कविता लिखी, आज टाइप की है, उसमें कुछ चित्र भी लगाने हैं, फिर वे सभी को भेजेंगे. आज छोटे भाई की बड़ी बिटिया का जन्मदिन है, और यहाँ भी एक मित्र का. जून आने वाले हैं, वह माँ-पिताजी के लिए दोपहर का भोजन ले जायेंगे. अभी-अभी उसने फोन उठाया कि भतीजी का नंबर भाभी से मांगे, पर जैसे ही फोन उठाया पहला नंबर उसी का था, यह चमत्कार ही तो है और कुछ देर पहले आग पर कढ़ी रखी थी, उबलकर गिरने ही वाली थी कि उसने बिना किसी कारण पीछे मुड़कर देखा. कोई है जो उसके साथ-साथ है. वह परमात्मा सदा उनके साथ है. भीतर कोई न रहे तभी वह आता है. वे कंकड़-पत्थर लिए रहते हैं और हीरे को अनदेखा करते रहते हैं, एक खेल चलता रहता है जीवनभर, कई बार तो सत्य आ आकर दूर चला जाता है, छिटक जाता है..


पिछले दस दिनों से डायरी नहीं खोली. यह वर्ष जाने को है. तीन दिन के बाद नया वर्ष आने वाला है, भीतर एक नया उत्साह और जोश जग रहा है. कुछ विशेष करना है इस नये साल में. परम जो कराए..उसके हाथ में स्वयं को सौंप दिया है, सौंपने वाला भी तो वही है..और कोई नाम सोच रही है अपने ब्लॉग के लिए..मन को जब विश्राम मिलता है तो भीतर ऊर्जा प्रकटती है उसे विसर्जन करना है, बाँटना है, लुटाना है, ऐसे ही भाव से युक्त या नवसृजन की बात करता हुआ नाम, वर्ष दर वर्ष विकास होता रहे मन का, बुद्धि व संस्कारों का का भी, चेतना का भी तभी मानव होने का अर्थ है अन्यथा वहीँ के वहीं रह गये तो जीवन कौड़ियों के मोल बेचने जैसा ही होगा. समाज के लिए और कुछ नहीं कर पायी तो शब्दों के माध्यम से प्रेरित करने का काम तो सहज ही हो सकता है. परमात्मा उससे यही कराना चाहते हैं. 

शांति का साम्राज्य


फिर तीन दिनों का अन्तराल ! कल एक पुरानी डायरी पढ़ी, नन्हा तब छह महीने का था, तब से अब तक कितना वक्त गुजर गया है लेकिन भीतर भीतर कुछ ऐसा है जो जरा भी नहीं बदला. कल से माँ का इलाज पुनः शुरू हुआ है, डिब्रूगढ़ से एक आर्थोपेडिक्स आए थे, उन्होंने ही कई सुझाव दिए. सुबह से मन स्थिर नहीं है, साक्षी भाव से देख तो रही है पर भीतर विचार हैं. कल शाम को एक सखी की जन्मदिन की पार्टी में गरिष्ठ भोजन किया फिर घर आकर टीवी देखा, ऊलजलूल डायलॉग सुने, शिवानी को नहीं सुना, फिर छोटी बहन के लिए कविता लिखने का प्रयास किया.

कल शाम जून बहुत दिनों बाद उदास हुए और उसके भीतर भी हलचल मच गयी. अब एक बूंद भर भी असहजता नहीं सही जाती, भीतर शांति का एक साम्राज्य बनता जा रहा है जिसपर अशांति का एक कण भी ठहर नहीं सकता. आत्मवत् सबको देखने का यह परिणाम होता है, समानुभूति का यह परिणाम होता है, उनके कारण इस ब्रह्मांड में किसी को भी दुःख न पहुंचे, पहुँचेगा तो पहले उन्हें भी कष्ट देगा. अपने ही बचाव के लिए उन्हें सदा मधुर वचन बोलने चाहिए. मानव स्वयं ही अपनी आत्मा पर दाग लगाता है, शरीर को रुग्ण करता है.

आज केवल ‘वही’ है, ‘उसका’ कहीं पता नहीं है, व्यर्थ ही इतना बोझ सिर पर डाला हुआ था. अभी-अभी जालोनी क्लब की पत्रिका के लिए कुछ लिखने का अनुरोध आया है. वह अपनी कुछ कविताएँ ही देगी, जो किसी भावपूर्ण क्षण में लिखी गयी थीं. यह देखो, ‘वह’ तो पुनः जिन्दा हो गया, पुराने संस्कार जाते-जाते ही जायेंगे. सफाई का कार्य चल रहा है. ड्राइंग व डाइनिंग रूम में आज पेंटिंग होगी, कल तक सभी काम पूरा हो जायेगा. जीवन की पहेली आज सुलझती हुई नजर आ रही है. जब तक वे हैं तब तक परमात्मा दूर खड़ा रहता है, वे सीट खाली करते हैं तो वह आ विराजता है. अति साधारण होता है वह, सामान्य जन से भी भी सामान्य, अति सामान्य !

नया सप्ताह आरम्भ हुआ और नया महीना भी, उसे खबर ही नहीं हुई. शनिवार से जो अस्वस्थता आभास दे रही थी, कल शाम तक खिंचती चली गयी, अभी भी आँखों में दर्द है, परमात्मा उसके साथ है सो छोटी-मोटी या बड़ी भी बीमारी का कोई भय नहीं है. भीतर समता बनी रहती है, विशेष कुछ हो या न हो, कर पाए या न कर पाए, एक समरसता सहज ही रहती है. जून कल देहली चले गये हैं, वहीं से बनारस भी जायेंगे. एक बहुत प्रिय बचपन के मित्र की बिटिया के विवाह में सम्मिलित होने. मंगल को लौटेंगे. माँ अस्पताल में ही हैं, पिताजी भी उनके साथ. पता नहीं और कितने दिन रहना होगा. वह रोज ही वहाँ जाती है कभी-कभी नैनी को साथ लेकर, जो उन्हें तेल आदि लगाती है और बाल बना देती है. कल विश्व विकलांग दिवस है, उसे जाना है. मौसम आज बदली भरा है.

अभी भीतर भय शेष है, आज सुबह एक विचार आया कि इतने दिनों अकेले रही कोई और होता तो सोचता, तभी लगा जैसे कोई है, पल भर को भय हुआ पर फिर समझ में आया स्वप्न है, उनके स्वप्न भी वे स्वयं ही गढ़ते हैं. इस समय उसका मन उदास है. आज वर्षों बाद यह बात उसने लिखी है, कारण है उसकी मूर्खता, मूर्खता के अलावा कोई कारण आज तक किसी की उदासी का न हुआ है और न होगा कभी, उसकी लापरवाही भी कह सकते हैं, अकर्मण्यता भी, फोन कभी नहीं उठाती समय पर और फोन खराब है इसकी खबर भी नहीं रखी. दो दिन से इंटरनेट डाउन है, ध्यान नहीं दिया. जून को बताया तक नहीं. आज वह वापस आ रहे हैं. इतने दिनों तक ढीले कपड़े पहनने के कारण उसे पता ही नहीं चला कि कब पेट का घेरा इतना बढ़ गया.

कल जो भावदशा थी वह भी गुजर गयी और जो आज है वह भी गुजर जाएगी. भीतर देखने वाला साक्षी ज्यों का त्यों रहेगा पर वह द्रष्टा कोई अलग नहीं है, शांत हुआ मन ही वही साक्षी है. वह कोई अलग हो भी कैसे सकता है. अहंकार ही उसे अलग मानता है, वासना है तो अहंकार बचा ही हुआ है, अहंकार बचा है तो उदास होना स्वाभाविक है. देह ऐसी हो, मन ऐसा हो, घर ऐसा हो, रिश्तेदार ऐसे हों, ये सभी कामनाएं ही उन्हें बांधती हैं. चाह ही बांधती है और चाह पूर्ति में कोई बाधक हो तो क्रोध आता है. उनकी इमेज खराब होती है तो क्रोध आता है. देह बेडौल होने लगती है तो क्रोध आता है. बुढ़ापा नजदीक आता है तो क्रोध आता है. सबके पीछे है अहंकार व कामना और कुछ भी नहीं ! प्रमाद व आलस्य इसकी जड़ में है, मोह, राग, द्वेष इसके मूल में हैं. मोह से प्रमाद होता है, आलस्य उन्हें कहीं का नहीं छोड़ता. नींद मृत्यु की निशानी है, जागना ही मुक्ति है !    




    

Wednesday, February 8, 2017

पहाड़ी पर घर


कल रात को एक और स्वप्न..मन न जाने कितने गड्ढे, कितने गहरे तल छिपाए है और अवचेतन मन न जाने कितना व्यर्थ भी अपने में समाये है. वासना और कामना, लोभ और अहंकार सभी के बीज भीतर हैं ही..यहाँ हर व्यक्ति अपने भीतर एक गहरा कुआँ समोए है और एक अनंत आकाश भी. वे जो अन्यों की तरफ ऊँगली उठाते हैं पहले अपने भीतर झाँक कर देखना चाहिए. एक मन जिसने जान लिया, सारे मन उसने जान लिए. यहाँ सभी एक ही कीचड़ से उपजे हैं और कमल बनने की सभी को छूट है. लोगों का आपस में मिलना अकारण नहीं है, न जाने कितने जन्मों में वे एक दूसरे के मान-अपमान का सुख-दुःख का कारण बने हैं. कितनी बार उन्होंने फूल भी उगाये हैं और कांटे भी. माँ की हालत बिगड़ती जा रही है, उनका मस्तिष्क अब साथ नहीं दे रहा है, पिताजी बहुत परेशान रहने लगे हैं.

पिछले तीन दिन डायरी नहीं खोली. परसों सुबह एक सखी के यहाँ आयोजित धार्मिक उत्सव में भाग लेने वह मोरान गयी थी, शाम को लौटी, उसी दिन माँ बिस्तर से उठकर बाथरूम जाते समय चक्कर आने से गिर गयीं. उनके दाहिने कूल्हे में चोट लगी है. इस समय वह अस्पताल में हैं, जून और पापा भी उनके साथ हैं. बहुत दिनों बाद पूरे घर में वह अकेले ही है.

आज माँ का अस्पताल में दूसरा दिन है, न जाने कितने दिन, कितने हफ्ते या कितने महीने उन्हें अस्पताल में रहना होगा. जीवन की संध्या में यह दारुण दुःख उन्हें झेलना पड़ रहा है, कर्मों की ऐसी ही गति है. कल दिन भर उसका मन भी कुछ अस्त-व्यस्त सा रहा, कोई भी कार्य पूरे मन से नहीं कर पायी. आज सुबह से दिनचर्या नियमित हुई है. जून आज फील्ड गये हैं.

आज तीसरा दिन है. जून अभी कुछ देर में आने वाले हैं. अस्पताल में खाना ले जाना है. एक परिचिता  का फोन आया है, विश्व विकलांग दिवस पर उसे बच्चों के कार्यक्रम में भाग लेना है. दो दिन बाद बाल दिवस है, शायद वह न जा पाए. सभी को फोन पर माँ के बारे में बताया. जीवन क्या मात्र मृत्यु की प्रतीक्षा है ? प्रतीक्षा जो केवल एक व्यक्ति ही नहीं करता, करते हैं उसके अपने भी (?) जून के एक मित्र की माँ पिछले पांच-छह महीनों से बिस्तर पर हैं. अब माँ ने भी बिस्तर पकड़ लिया है अगले दो-तीन महीनों के लिए, डाक्टर ने कहा है इतना समय तो हड्डी को जुड़ने में लगेगा. नूना खुद भी धीरे-धीरे बढती हुई उम्र का अनुभव देह के तौर पर करने लगी है. मन के तौर पर तो कोई स्वयं को बूढ़ा कभी महसूस नहीं करता. कहना कठिन है उम्र घटती है या बढ़ती है.

‘संडे स्कूल’ व ‘मृणाल ज्योति’ के बच्चों के साथ बालदिवस मनाया, जून कापी और पेंसिलें ले आए थे. मिठाई और केक भी. एक ही स्थिति में लेटे-लेटे माँ की परेशानी थोड़ा बढ़ गयी है. पिताजी का उत्साह पूर्ववत है, वह ज्यादातर समय अस्पताल में ही रहने लगे हैं. उसे अभी ‘विवेक चूड़ामणि’ का काव्यानुवाद आगे लिखना है. नवम्बर आधा बीत गया है, अभी तक सभी क्यारियों में फूल नहीं लगा पायी है. आज शाम को सत्संग है. उस सखी का फोन आया जो यहाँ से चली गयी है. काफी देर तक बात करती रही. वहाँ का जीवन यहाँ से बिलकुल अलग है. उनका घर एक पहाड़ी पर है, चढाई करके घर तक आना पड़ता है. पांचवीं मंजिल पर घर है और अभी तक लिफ्ट चलनी शुरू नहीं हुई है सो सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते साँस फूल जाती है. बालकनी से सुंदर सूर्योदय दीखता है, ऊपर ठंड भी रहती है. नैनी दोपहर को एक ही बार आती है. कुछ काम खुद भी करने होते हैं. माँ को अस्पताल गये आज पूरा एक सप्ताह हो गया. ऐसे ही देखते-देखते समय बीत जायेगा और वह घर आ जाएँगी.

जून देहली गये हैं, नन्हा भी वहाँ किसी काम से आया था उससे भी मिले. एक सखी का फोन आया, उसने कहा माँ को ठीक से खाना चाहिए, उसे पता नहीं है किस स्थिति में वह हैं. उस दिन उसने अस्तित्त्व से उन्हें दुःख से मुक्त करने के लिए प्रार्थना की थी, उसे अभी तक पूरा होना बाकी है लेकिन यह दिखाकर ईश्वर उसके मन में वैराग्य दृढ़ कर रहे हैं, ओशो कहते हैं, जीवन के अनुभव ही काफी हैं किसी को वैरागी बनाने के लिए. सुबह से कई संतों के वचन सुने, अच्छा लगता है सुनना पर मनन् भी करना चाहिए मात्र सुनना ही पर्याप्त नहीं है.

    

Monday, February 6, 2017

'बोधगया' में बोध गया


परसों रात एक स्वप्न देखा. कितना जीवंत था, लग रहा था जागकर ही देख रही है. ध्वनि इतनी स्पष्ट थी जैसे जागते में होती है. गाना इतना स्पष्ट था और शब्द भी याद थे. कल फिर एक स्वप्न देखा, ये सारे स्वप्न उसके अवचेतन की खबर रखते हैं, देते हैं. उसने अपने अवचेतन के विचारों का प्रक्षेपण जगत पर किया है और तभी जगत उसे वैसा ही दीखता है. उसने पिछले जन्म में या जन्मों में जो कुछ किया है उसका भय भी अवचेतन में विद्यमान है कि कहीं उसके साथ भी वैसा न हो. उन्हें ध्यान में दबे हुए भावों की निर्जरा करनी है ताकि मुक्त हो सकें. स्वयं को जगत के सामने अच्छा दिखाने की कामना, साधना का फल भी भौतिक जगत में नाम तथा यश के रूप में पाने की कामना अहंकार के ही सूक्ष्म रूप हैं. आत्मा में स्थिति हर क्षण नहीं रहती अन्यथा इतनी भूलें नहीं होतीं. आज पिताजी सुबह से बाहर ही बैठे हैं, सारे संबंधों में सूक्ष्म हिंसा छिपी है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है उनका माँ से संबंध. एक-दूसरे को जितनी तरह से हो सकता है परेशान करने के उपाय खोजना ही जैसे लक्ष्य हो, उसके बावजूद वे कैसे इतने उत्साहित रहते हैं, आश्चर्य होता है.

कल पुनः उसने स्वप्न में बाबा रामदेव को देखा, वे उनके घर आए हैं और किसी कार्यक्रम की तैयारी कर रहे हैं, उसका नाम लेकर एक बैग लाने को कहते हैं. बाद में एक स्वप्न वह पुनः पुनः देख रही थी, हर बार पूर्व की कमी को दूर करके, यानि वे अपने स्वप्न स्वयं ही गढ़ते हैं. ध्यान में आज एक सुंदर मोती की माला दिखी..मन कितना रहस्यमय है..चेतना में कितने रहस्य छिपे हैं, साक्षी जो भीतर बैठा है कुछ विचार नहीं करता मात्र द्रष्टा है किन्तु उसके होने मात्र से ही मन, बुद्धि अपना कार्य करते हैं. आज शनिवार है, बाहर से बच्चों की आवाजें आ रही हैं और उसके भीतर अनहद का स्वर फूट रहा है, कितना स्पष्ट सुनाई दे रहा है, यह सुनने वाला भी वही है. टीवी पर सारनाथ में दिया बापू का प्रवचन आ रहा है. भीतर जब तक बोध भी टिका है, तब भी बाधा है. बोध भी जाना चाहिए, ‘बोधगया’ ..इसी का प्रतीक है. भोगों की लालसा, आलस्य, प्रमाद, तम ये सब साधना में विघ्न हैं. आलस्य कुशल कर्म में उत्साह को तोड़ता है, जो विषय नहीं चाहिए उसमें लगना प्रमाद है. विषाद व कमजोरी भी भी विघ्न हैं. कुशल प्रवृत्ति में निरंतर उत्साह बना रहे, यह बुद्ध की एषणा है. कितना अद्भुत ज्ञान है यह !

आज भीतर एक गहरा सन्नाटा है, साक्षी भाव उदित हुआ है, कोई कर्ता नहीं दिखाई पड़ता. नाश्ता ले कर बाहर बगीचे में गई, ठंड शुरू हो गयी है. धूप भली लगती है तन को. वहाँ बैठकर लग रहा था जैसे वह भी अन्य पेड़-पौधों की तरह एक जीव है, देह व आत्मा के बीच का जो सेतु था, जो अहंकार था, वह क्षीण हुआ है शायद गिर ही गया है, इतनी गहन शांति है भीतर, कुछ भी करने का भाव नहीं रह गया है, सब कुछ हो रहा है. सद्गुरू के सम्मुख होती तो वह पहचान लेते..वह कहते यह भी एक अनुभव है, आज से पूर्व न जाने कितने अनुभव आए, एक से बढ़कर एक, सारे खो गये..यह कब तक टिकेगा. वे इतने बड़े महारथी हैं कि सारे अनुभवों को पचा गये..डकार तक नहीं लेते वे. जो करने योग्य है वह प्रकृति करवाए ही जा रही है, पहले डर था कि यदि वे ही नहीं रहे तो उनका काम कैसे चलेगा ! परसों एक सखी का जन्मदिन है उसके लिए अंतिम कविता लिखनी है ! वे लोग यहाँ से जाने वाले हैं.

‘उसने देखते ही मुझको दुआओं से भर दिया
मैंने तो अभी सजदे में सर झुकाया भी नहीं था’


साक्षी भाव कितना मधुर है. कितने अनुभव हुए उसे आजतक लेकिन सब आकर जाने के लिए. यह टिकेगा ऐसा लगता है. भीतर एक शीतलता का अनुभव होता है, जैसे बाहर का मौसम है ठंडा सा, भीतर एक सन्नाटा है जो मिटने वाला नहीं है ऐसा लगता है. उन्हें आज विशेष बच्चों के स्कूल जाना है. जब तक गाड़ी आती है उसे पाठ कर लेना चाहिए.

आकाश में हाथी


आज करवाचौथ है, बड़ी भाभी का फोन आया था, उनका जन्मदिन भी आ रहा है, उन्हें एक कविता लिख भेजनी है, तथा दीवाली कार्ड व भाईदूज का टीका भी. ‘दादीजी’ पर उसने एक स्मृति लेख लिखा है, जून ने उनका फोटो भी स्कैन कर के डाल दिया है. दोपहर को एक पंजाबी सखी के यहाँ जाएगी, नहीं भी जा सकती, मन में एक संदेह ने जन्म लिया है, तो मन अभी तक बचा है, चलो मन तो बचा पर उसमें संदेह भी बचा है, कैसा आश्चर्य है ! सुबह से मन उच्चावस्था में था, संसार की आंच लगते ही निम्न केन्द्रों में चला गया. मन की यही तो विशेषता है, उसे जैसा रंग लगाओ वह उसी में रंग जाता है. परमात्मा की आंच में वह परमात्मा ही हो जाता है. आज सुबह से कितने दोहों का अर्थ स्पष्ट हो रहा है भीतर..लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल..परमात्मा हर कहीं है जैसे सागर में लहर उठती है वैसे ही प्राणी इस परमात्मा के सागर में उठने वाली लहरे हैं..सभी कोई..इसमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है. परमात्मा की नजर में सभी समान हैं एक कीट से ब्रह्मा पर्यन्त ! अब कौन इस परम को अपने भीतर प्रकटने का अवसर देता है इस बात पर उसकी प्रसन्नता टिकी है. कोई जग जाये तो परम उसमें प्रविष्ट हो सकता है. सद्गुरू ऐसे ही होते हैं..वे स्वयं हट जाते हैं और परमात्मा उनमें प्रवेश कर लेता है. भीतर अमृत बह ही रहा है, उसके प्रति सजग भर होना है. जो स्वयं ही भीतर समाया है फिर वहाँ परमात्मा को स्थान कहाँ मिलेगा. यही अज्ञान है, यही मोह है. वे जो स्वयं है वहाँ सिवाय दुःख के कुछ नहीं लाता और जो वह है सिवाय सुख के कुछ नहीं देता..अब उनके हाथ में है कि वे चाहते क्या हैं ?

आज माली ने पौधों के बीज डाल दिए. फूलों के बीज, धनिया, पालक, लाही साग व मूली के बीज भी. कल वह नर्सरी से पिटुनिया, टमाटर, गोभी आदि की पौध लाएगी. और परसों वह भी लगा दी जाएगी. दस बजने को हैं माँ रोज की तरह पिताजी को ढूँढ़ रही हैं. उनकी बातें सुनकर कभी तो वे हँस देते हैं, कभी क्रोध करते हैं जैसा मन हो, मन बदलता रहता है कभी इधर तो कभी उधर..मृणाल ज्योति ने दीवाली के लिए सुंदर दीपक रंगे हैं, परसों शाम कोओपरेटिव में बिक्री करने के लिये आएँगे वे लोग.

कल रात एक अनोखा स्वप्न देखा. नीला आकाश अपनी विशालता व भव्यता के साथ मजूद है और रह रह कर उसका रंग गाढ़ा नीला हो जाता है. चमत्कार जैसा ही लग रहा था. पिताजी भी थे और भी कई लोग थे. स्वप्न में इतने शोख रंग पहले देखे हों याद नहीं आते. बचपन का एक स्वप्न आज तक याद है जिसमें आकाश में चारों दिशाओं में बड़े-बड़े हाथी अपनी सूंड से जल वर्षा कर रहे थे और सारा आकाश फूलों से सजा था..स्वप्न में उनकी चेतना ही कितने रूप धर लेती है. ऐसे ही यह जगत उस परमात्मा का स्वप्न है..कितना अनोखा है यह सब कुछ ...   
  
 ‘गॉड लव्स फन’ ! कल रात को एक अनोखा स्वप्न देखा. बाबा रामदेवजी का फोन आया है उसके लिए. उसने कहा, विश्वास ही नहीं हो रहा कि उनसे बात कह रही है. तब बाबा ने कुछ कहा ..कि ऐसी क्या बात है और हर्षातिरेक में स्वप्न टूट गया. फिर आज सुबह क्रिया के बाद यह अनुभव हुआ की वह ही आत्मा है, अनोखा अनुभव है यह जानना कि वह ही इन्द्रियों के माध्यम से देख, सुन, बोल रही है. बचपन में वे कितने विश्वास से कहते थे कि उनके भीतर जो बोल रहा है वह परमात्मा है, तब ये सामान्य बातें हुआ करती थीं, हर कोई इन्हें जानता था, पर आज के युग में कोई परमात्मा को अपना अनुभव बनाना नहीं चाहता, माया प्रबल है.    

Friday, February 3, 2017

शाम और खामोश पेड़


कल शाम एक सखी की बिटिया से उसके अनुभव सुनकर आनंद आया, उसने सोचा एक कविता लिखकर उसे देगी. रात को मोबाईल पास रखकर नहीं सोयी थी, जून ने फोन किया, वह अधीर हो गये फिर दूसरे फोन पर किया. पिताजी और माँ के बीच नोक-झोंक बढ़ती जा रही है, उसे लगता है यह मोह की पराकाष्ठा है. ऐसे ही लड़ते-झगड़ते सारा जीवन चला जाता है. नवरात्रि का तीसरा दिन है आज, ध्यान में मन लगता है, सद्गुरू कहते हैं, इन दिनों में की गयी साधना का विशेष प्रभाव होता है. एक अन्य सखी के दिए हुए कपड़े व स्वेटर आस-पडोस के बच्चों को बाँट दिए. कुछ कपड़े वे मृणाल ज्योति भी ले जायेंगे. ईश्वर उसके हाथों यह शुभ काम करवा रहे हैं. वह भजन याद आ रहा था, करते हो तुम कन्हैया..मेरा नाम हो रहा है..सचमुच सभी कुछ वही कराता है. आज सुबह स्वप्न था या तंद्रा थी या ध्यान था, उसे अपने भीतर लिखे हुए कुछ वाक्य दिखे. शास्त्रों में कहा गया है कि ऋषियों ने मन्त्र देखे, तभी वे द्रष्टा कहलाये. वे जो भी बुद्धि से लिखते हैं वह उतना प्रभावशाली नहीं होता जितना जो सहज प्रकटता है वह होता है.

माँ को आज अस्पताल जाना पड़ा. उनके पैर में घाव हो गया है. एक सखी ने कहा उनके कपड़े अलग से धोये जाएँ तथा डेटोल में रिंज किये जाएँ. स्नानघर में सीट तथा दरवाजे का हैंडल व नल भी डेटल से पोंछें. उसने पिताजी को भी सजग रहने को कहा कि कहीं उन्हें भी छूत न लग जाये पर वे कुछ और ही अर्थ लगाकर परेशान हो गये. इन्सान अपने सुख-दुःख का निर्माता स्वयं ही है. माँ की मानसिक स्थिति भी ठीक नहीं है. इस समय लेटी हुई हैं. उनके प्रति उसके मन में कोई भाव नहीं जगता, वह कुछ भी समझने की स्थिति में नहीं हैं ऐसा लगता है. उनके भीतर भी उसी परमात्मा की ज्योति है वही जो उसके भीतर है. अपने प्रति भी तो कोई कठोर हो ही सकता है. अस्तित्त्व में जो भी घटता है, वे उससे जुड़े ही हुए हैं. उनके भीतर परम चैतन्य सोया रहता है और वे सारा जीवन दुःख में ही गुजार देते हैं. उसे जगा दें तो भीतर उत्सव छा जाये, जगाना भी क्या कि मन के सारे आग्रह, सारी वासनाएं शांत करके खाली हो जाना है. वह शेष काम स्वयं ही कर लेगा. कल लक्ष्मी पूजा का अवकाश था, शरद पूर्णिमा भी थी. उसके पूर्व पूजा का अवकाश था, समय भाग रहा है.

फिर वही झूला, वही ढलती हुई शाम है.
कई दिनों बाद मिली इस दिल को फुर्सत, आया आराम है
आसमां चुप है सलेटी चादर ओढ़े
पेड़ खामोश है, हवा बंद, नहीं कोई धुन छेड़े
एक खलिश सी है भीतर कोई अपना बीमार है
दुआ के सिवा दे न सकें कुछ ये हाथ लाचार हैं
लो देखो एक कार की रफ्तार से पत्तों में हरकत आयी
हिल-हिल के जैसे भेज रहे उसे दवाई
जीवन है तभी तक तो दिल धड़कते हैं
रोते हैं, हँसते हैं साथ-साथ बड़े होते हैं
दो हैं कहाँ जो कोई असर हो दिल पे किसी बात का
दो हैं कहाँ जो दूजा लगे, अपना सा दर्द है जज्बात का
दुःख कहने से जो भीतर कसक उठती है वह अहम् है..