Friday, September 30, 2016

माइक्रोवेव में बैंगन


इस समय दोपहर के सवा तीन बजे हैं. आज दो परिचितों के जन्मदिन हैं. घर पर भतीजी का और यहाँ एक मित्र का. भतीजी के लिए कल कविता लिखी थी, शायद उसने पढ़ी हो. जवाब नहीं दिया..  यही तो बंधन है, कर्म बांधता है यदि करने के बाद भी उसकी स्मृति बनी रहती है. उसे फूलों का एक गुलदस्ता भी बनाना है, शाम को मित्र परिवार से मिलने जायेंगे वे. बिना किसी अपेक्ष के किये गये कृत्य उन्हें मुक्त करते हैं, अपेक्षा ही गुलाम बनाती है. इस सत्य को जितना शीघ्र हृदय में अंकित की लें उतना ही कल्याण होगा. नये वर्ष में नई तरह से जीना होगा ! आज भी ध्यान टिका, पर उसके पूर्व मन में विचारों का प्रवाह था, गुरूजी का सूत्र अब समझ में आने लगा है – ध्यान में वह कुछ भी नहीं है, उसे कुछ भी नहीं चाहिए, उसे कुछ भी नहीं करना है. जून का फोन आया, उन्हें रात्रि भोजन ऑडिटर के साथ गेस्टहाउस में ही करना है.

अभी-अभी उन बुजुर्ग आंटी से बात की, उसके पूर्व उस सखी से जो उनकी बहू है. सब नाटक जैसा लगता है. उनका स्वयं का जीवन भी तो कैसा अलग दीखता है अब. आत्मा का अनुभव जब दृढ़ हो जाता है, ‘हस्तामलक’ तो जीवन बिलकुल बदल जाता है. बुद्धि जो पहले जगत की तरफ दौड़ती थी, अब आत्मा में विश्राम करना चाहती है, उसकी दौड़ खत्म हो गयी है. प्रशंसा व निंदा का कोई महत्व नहीं रह जाता क्योंकि ये जिस मन, बुद्धि से आये हैं वे अनात्मा हैं, यानि माया है, यानि मिथ्या है, यानि उसका क्या महत्व. जैसे हीरे के आगे कंकर व्यर्थ है वैसे ही आत्मा के आगे अनात्मा व्यर्थ है. मौन ही जिसका स्वभाव हो जो स्वयं में पूर्ण हो, जो स्वयं आनंद ही हो, ज्ञान ही हो, प्रकाश ही हो उसे कोई जाकर कहे भी कि तुम ज्ञान हो तो वह क्या हर्षित होगा, वहाँ हर्षित अथवा दुखित होने वाला कोई बचा ही नहीं, माया का साम्राज्य वहाँ नहीं है, फिर उसकी भाषा वहाँ नहीं चलती. सद्गुरु के लिए लिखी उसकी सारी कविताएँ व्यर्थ हैं, उनकी नजर में और इस वक्त उसकी दृष्टि में भी, वहाँ एक ही भाषा का काम है, वह है मौन की भाषा..बुद्धि अब टिकना चाहती है, न जाने कितने जन्मों से यह दौड़ रही थी, मंजिल के करीब आ गयी है, वृत्ति सारुप्य के अनुसार कभी ‘आत्मा’ ‘अनात्मा’ में लीन हो जाती है तो कभी ‘अनात्मा’ ‘आत्मा’ में, पहली स्थिति में संसार है तो दूसरी स्थिति में निर्वाण ! एक स्थिति ऐसी भी आती है जब पूर्व के सब संस्कार नष्ट हो जाते हैं और शेष रहता है एकछत्र आत्मा का साम्राज्य. मन, बुद्धि भी निर्मल हो जाते हैं, निमित्त मात्र बन जाते हैं, अहंकार बस व्यवहार मात्र के लिए रह जाता है, भीतर कोई एषणा नहीं बचती. न कुछ पाना है, न कुछ करना है और न कुछ जानना है, ध्यान के सूत्र सारे जीवन पर फ़ैल जाते हैं. वे प्राप्त-प्राप्तव्य, कृत-कृतव्य तथा ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाते हैं, तब सही मायने में आत्म साक्षात्कार होता है, ऐसा दिन भी शीघ्र आएगा..परमात्मा है, सद्गुरु है और आत्मा है, तीनों मन व बुद्धि को पावन करना चाहते हैं..

अज शाम को एक सखी के यहाँ जाना है. ब्लॉग पर अनुपमा पाठक ने ‘गीताजंलि’ पर अपनी टिप्पणी भेजी है. अंततः उनके जीवन में प्रेम ही महत्वपूर्ण होता है, उनके मन में सभी के लिए प्रेम, सारी सृष्टि के लिए..पिता जी लॉन में पानी डाल रहे हैं. माँ बाहर बरामदे में बैठी हैं. जून अभी दफ्तर से आये नहीं हैं. सुबह आधा घंटा ध्यान किया, खुद का भी पता नहीं चला, लेकिन जाने कहाँ से विचार आ तरहे थे, पूर्व संस्कार उदित हो रहे थे, ध्यान में संस्कार नष्ट हो जाते हैं. सम्मान पाने की आकांक्षा, कुछ होने की आकांक्षा कितनी कूट-कूट कर भरी होती है मन में, ब्रह्म ने, परमात्मा ने अथवा तो आत्मा ने प्रकृति का संग किया और अहंकार का जन्म हुआ, बस वहीँ से आरम्भ हो गयी लालसा कुछ कर दिखाने की, कुछ पाने की, जबकि वह स्वयं में पूर्ण है, वह खुद ही पूर्ण है यह भूल जाता है, अपने पद से नीचे उतर जाता है और फिर उसे खोजता है जगत में. इस खोज में पीड़ित होता है, शंकित होता है, दुखी होता है, भीतर द्वेष पालता है, उद्व्गिन होता है पर उसकी लालसा का अंत नहीं होता. आज पहली बार माइक्रोवेव में बैंगन भून रही है, उनकी दूसरी ओवन ठीक से काम नहीं कर रही. मंझले भाई-भाभी के लिए कविता लिखी है, स्वान्तः सुखाय:, उन्हें भी ख़ुशी दे जाएगी अवश्य ही, पर इसके लिए वे कुछ कहें ऐसी कोई लालसा नहीं रखनी है. ओशो कहेंगे लालसा रखनी है या नहीं रखनी है, ये दोनों एक ही बाते हैं, नहीं रखने में रखने का भाव आ ही गया. दोनों से ही छूटना है. हर हाल में उसकी ही रजा माननी है. जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो होगा अच्छा होगा !   

  


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