Friday, September 2, 2016

सुख - दुःख का झूला


दोपहर के ढाई बजे हैं, ध्यान कक्ष में या कहें कम्प्यूटर कक्ष में वह बैठी है, सुबह शाम जो साधना के काम आता है, दोपहर को वहीँ बैठकर वह कम्प्यूटर पर काम करती है. अगस्त माह के लिए हिन्दयुग्म पर नई कविता पोस्ट की. एक ब्लॉग पर भी. पन्द्रह अगस्त के लिए एक पुरानी कविता और मिली. डायरी के पन्नों में न जाने क्या-क्या है. माँ की कहानी लिखनी शुरू की थी, अधूरी ही छोड़ दी है. इंटरनेट एक अच्छा माध्यम है लेकिन उसके पास अन्यों की कविताएँ पढने के लिए समय नहीं मिलता या कहें कि रूचि नहीं है. इसी महीने छोटे भाई का जन्मदिन है क्यों न उसके लिए एक कविता लिखे, सन्यासी हुआ है वह. अगले महीने कृष्ण जन्माष्टमी है, उसके लिए भी लिख सकती है. कल रात जून और सहज हुए और आज सुबह वह अपने सहजतम रूप में थे. उन्हें स्वयं को बदलने में वक्त लगेगा पर यात्रा शुरू हो गयी है तो मंजिल दूर नहीं है. शाम को उनके यहाँ सत्संग है.

आज प्रातः भ्रमण के समय एक परिचित मिले, उसका वजन बढ़ गया है ऐसा उन्होंने कहा, घर आकर देखा तो उनकी बात सही थी. पिछले कुछ दिनों से वे प्रोटीन युक्त भोजन ले रहे हैं. जून आज डिब्रूगढ़ गये थे, डाक्टर से मिलने. अब उनका दर्द ठीक हो जाना चाहिए. आज शाम को वह देर से आने वाले हैं, कम्पनी की पंचवर्षीय योजना के टास्क फ़ोर्स में इस बार उन्हें भी शामिल किया गया है. व्यस्तता उनके लिए ठीक भी है. कल सत्संग में पहली बार एक परिचिता आयीं, जो वर्षों पहले उनकी पहली पड़ोसिन थीं. पंचकोश ध्यान भी किया, साक्षी होकर स्वयं को देखा, ऐसा लगा कितना सहज है सब कुछ, लेकिन जब तक भीतर का पता न था कितना जटिल था. परमात्मा का और उनका सहज स्वभाव कितना मिलता-जुलता है, कितना जटिल बना दिया है शास्त्रों ने, लेकिन अब शास्त्र भी अपना रहस्य खोलते चलते हैं !
वह नन्हीं ही थी अभी, जीवन के चार वसंत भी न देखे थे, किसी वस्तु को पाने की जिद की होगी या किसी के साथ बाहर जाने की, उसे इतना याद है किसी ने जोर से उसे बिस्तर पर पटक दिया..तो सारे दुलार की जो उसने पाया था यह कीमत चुकानी पडती है, यहाँ कोई सुख मुफ्त नहीं मिलता. स्कूल के दिनों की बात है, किसी कारणवश गृहकार्य की जांच समय पर नहीं करवा पायी. डांट के डर से या इस डर से कि कक्षा में जो अपनी प्रतिष्ठा है, वह दांव पर लग जाएगी, अध्यापिका के हस्ताक्षर लाल स्याही से बना लिए. भीतर कुछ टूट गया होगा, आत्मा पर एक धब्बा लग गया होगा, दुःख का एक बीज बो दिया गया होगा. लेकिन कारण था वही कि दुनिया उसे अच्छा समझे. उम्र बढती रही, भीतर नये तरह के स्वप्न जगने लगे. पढ़ाई-लिखाई छोडकर मन कल्पनाओं में गुम हो गया. आदर्श प्रेम को आधार बनाकर न जाने कितने दिवास्वप्न देखे लेकिन तब यह ज्ञान नहीं था कि स्वयं को जाने बिना, स्वयं को प्रेम किये बिना, ईश्वर को प्रेम किये बिना असली प्रेम से पहचान ही नहीं होती. भाई-बहनों के साथ झगड़े किये, दुःख के और बीज बोये. रेडियो पर गाने सुने, कानों को तृप्ति मिले, मन को तृप्ति मिले..उस मन को जिसका स्वभाव ही अतृप्त रहना है. जो कभी संतुष्ट होना जानता ही नहीं. जो सदा रोता ही रहता है, अभाव का रोना..अभी स्कूल में ही थी, एक बार घर में सबके नये वस्त्र सिले, उसके लिए क्यों नहीं आये..भीतर कोई घाव फूट पड़ा हो जैसे..माता-पिता के स्नेह पर इल्जाम लगाया कि उसे छोड़कर सभी प्रिय हैं. दुःख का बीज बोया गया. विवाह हुआ तो भीतर नये स्वप्न करवट लेने लगे..एकाधिकार की भावना ने बहुत दुःख दिया. जिस पर पूर्ण विश्वास किया वही कठोर भी हो सकता है, जो कोमल है वही कठोर भी है, लेकिन यह स्वीकार नहीं था. अहंकार को चोट लगती तो भीतर यह भाव जगा कि क्या इस जगत में बिना दुःख के कोई सुख नहीं है ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मन सदा विश्रांति का अनुभव करे. यह सुख-दुःख का झूला बहुत झूल लिया अब तो इसके पार क्या है, यह देखना है. जगत का सत्य सामने आ गया यह ज्ञात हुआ कि जिन संबंधों पर जीवन टिका था, वे कुछ ऐसे तत्वों पर टिके हैं जिनके नीचे आधार नहीं है, रेत का महल है यह संसार, अपने मन के सरे खेल नजर आने लगे !




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