यहाँ
इस कमरे में झींगुर की आवाज आ रही है. उसके भीतर कुछ पंक्तियाँ गूँज रही हैं.
तुमने
ही सींचा है दुःख को
निज
प्राणों से सींचा है
साहस
करके छोड़ उसे दो
जिसको
खुद ही भींचा है
तुमने
ही जो राह बनायी
तुम्हीं
उसे मिटा सकते हो
काँटों
से जो भरी हुई है
तुम्हीं
उसे तज सकते हो
खोज
रहे हो जिसे जगत में
वह
न कभी पा सकते हो
कठिन
सही भीतर जाना पर
तुम
ही तो जा सकते हो
उलझे
हुए हैं सारे रस्ते
जो
भी बाहर जाते हैं
एक
ही रस्ता भीतर को है
जिस
पर संत सभी आते हैं
विधियाँ
सारी बाहर-बाहर
छिपा
खजाना भीतर है
जब
तक स्वयं को खो न डालो
खुद
को न पा सकते तुम
स्वयं
को खोकर स्वयं को पाते
यह
सब प्रश्नों का उत्तर है !
जीवन
को यदि एक सुमधुर संगीत में बदलना हो, एक सुंदर चित्र में बदलना हो या एक कविता
में ढालना हो तो जीवन में एक लय की बहुत आवश्यकता है. एक नियम, एक मर्यादा का यदि
पालन नहीं किया तो जीवन एक अभिशाप बन जाता है. सभी कुछ समय पर हो तथा सभी कृत्यों
को सम्मान मिले. यहाँ कुछ भी हेय नहीं है. प्रातः काल उठना भी जरूरी है और रात्रि
को समय पर सोना भी. दिन में आधा घंटा विश्राम भी जरूरी है और नियमित व्यायाम भी.
जीवन का एक ही पक्ष यदि दृढ़ हो शेष नहीं तो जीवन बेडौल हो जायेगा. कल दोपहर से
देर रात्रि तक वह अस्वस्थ थी, कारण थी मर्यादाहीनता. पिछले दिनों दिनचर्या
सुचारुरूप से नहीं चल पाई, कभी देर तक पुस्तक लेकर बैठी ही रह गयी, कभी बिना भूख
लगे ही क्योंकि समय हो गया था, भोजन कर लिया, कभी अधिक खा लिया, कभी कोई मिलने
वाला आ गया तो चाय ज्यादा हो गयी. आज सब कुछ नियमित चल रहा है. पिछले दिनों नियमित
साधना भी नहीं की, मन कुछ ज्यादा ही वाचाल हो गया है, उसे साधना होगा, नियमित
ध्यान बहुत जरूरी है. जून कल मुंबई से लौट आयेंगे. मौसम अच्छा हो गया है. दिसम्बर
की धूप भाने लगी है, पिछले बरामदे में बैठे हुए उसके पैरों पर धूप पड़ रही है, जो
सुहा रही है, तेज नहीं लग रही. अस्वस्थता उन्हें स्वास्थ्य की कद्र कराती है,
स्वस्थ होने पर वे लापरवाह हो जाते हैं. आज सुबह बड़ी भाभी व भतीजी से बात की, उसका
जन्मदिन था. सर्दियों में पिछवाड़े नैनी क्वार्टर्स से कितनी आवाजें सुनाई पड़ती हैं,
सब घर के ठंडे कमरे छोडकर बाहर धूप में आ जाते हैं. यूरोप में ठंड बढती जा रही है,
काश्मीर में लोग कांगड़ी खरीद रहे हैं, गर्म अंगारों को फिरन के भीतर रखते हैं, मौसम
की मार से बचने के लिए आग को अपनी देह के साथ सटा कर रखते हैं. जीवन कितना विचित्र
है, महाश्चर्य है.
इसी
महीने मंझले भाई व भाभी के विवाह की पचीसवीं सालगिरह है. उनके लिए एक कविता लिखनी
है. दोनों का विवाह भी अनोखी परिस्थितियों में हुआ. बड़ी भाभी की छोटी बहन से विवाह
का शुरू में विरोध हुआ था, घर में किसी को भी पसंद नहीं आया था यह कार्य. लेकिन
धीरे-धीरे सब ठीक होता गया और अब तो सभी को लगता है दोनों एक-दूजे के लिए बने थे.
दोनों की एक बेटी है जो होशियार है, धीर-गंभीर है. अपना घर है, धन-दौलत है, कोई
कमी नहीं है. भाई ने इंजीनियरिंग की, भाभी ने बनारस हिन्दू विश्विद्यालय से पढ़ाई
की, कुछ वर्ष नौकरी भी की विवाह से पूर्व. देखते-देखते समय बीत गया और आज पच्चीस
वर्ष हो गये हैं.
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