Wednesday, September 14, 2016

बच्चों की पार्टी


अभी-अभी दो सखियों और वृद्धा आंटी से बात की. कल रात जो पंक्तियाँ लिखी थीं, उनके आधार पर एक कविता लिखी. ऊर्जा जो बहती रहे वही सफल है. एक पल भी व्यर्थ नहीं जाने देना है. भोजन, जल, सूर्य, नींद तथा श्वास सभी तो ऊर्जा के स्रोत हैं, वे लेते ही लेते हैं, लेकिन जब तक देना शुरू नहीं कर देते तब तक उनके भीतर ऊर्जा दोष पैदा करना शुरू कर देती है. रचनात्मकता तभी तो उन्हें स्वस्थ बनाये रखती है. वे एक माध्यम बन जाएँ जिसमें से प्रकृति प्रवाहित हो और अपना काम करती जाये. वे कोई बाधा खड़ी न करें उसके मार्ग में, सारा खेल ऊर्जा का ही है ! मन भी ऊर्जा है और तन भी ! सब चेतना ही है, एक ही तत्व से यह सारा अस्तित्त्व बना है !

आज पिताजी काफी ठीक हैं, पहला सुख निरोगी काया ! वे स्वस्थ रहें तो दुनिया भी सुंदर लगती है वरना सब व्यर्थ मालूम देता है. आज सुबह से ही मन ध्यानस्थ नहीं है. रात को अद्भुत स्वप्न देखा. बच्चों की एक पार्टी है उसमें बच्चों के चेहरे रंगे हैं. एक बच्ची कुछ मन्त्र पढ़ती हुई एक वस्तु उसकी तरफ लाती है और उसका ध्यान लग जाता है. समाधि की अवस्था का अनुभव किया, फिर जब होश आया तो वह अपने स्थान से दूर थी, उड़कर वह वहाँ पहुंची ? अजीब था यह स्वप्न, उनके भीतर अनेक सम्भावनाएं हैं, जिन्हें वे साकार कर सकते हैं, पर वे छोटी-छोटी बातों में लगे रहते हैं. दोपहर भर कम्प्यूटर पर थी, एक नई कविता लिखी, ‘हवा’. गति ही जीवन है, इसलिए बुढ़ापा कितना दुखमय हो जाता है. कुछ नया करने की चाह ही उन्हें सदा युवा बनाये रखती है. कितना कुछ करना शेष है, लेकिन इस करने में आनंद बिखरे, न कि आनंद की लालसा बनी रहे..आनंद की झलक मिले उनके कृत्यों से तभी तो वे अपने अंशी का प्रतिनिधित्व कर पाएंगे.

कल उसकी ‘हवा’ कविता पर तीन प्रतिक्रियाएं मिलीं. नन्हे को भी अच्छी लगी. आज भी सुबह से मन शांत है. उल्लास से चहक नहीं रहा है. सद्गुरू की कृपा सदा उसके साथ है. यह मन ही तो उपद्रव का कारण है, कौन है ‘वह’ जो अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है, कविता भेज दी अब प्रतिक्रिया पाना चाहता है, पहले तो ऐसा नहीं था, पहले कौन पढ़ता ही था उसकी कविताएँ, अब तो उसे पाठक मिले हैं, कौन है जो चाय या कॉफ़ी पीकर तृप्त होना चाहता है, जबकि पता है दोनों शरीर के लिए जरूरी नहीं हैं. कौन है जो कभी-कभी क्षण भर के लिए परेशान हो जाता है, इसका अर्थ हुआ कि जिसे नियंत्रित मानती थी वह मन उसके नियन्त्रण में नहीं है, अर्थात प्राण ऊर्जा शरीर में घट गयी है, अर्थात भीतर अशुद्धि है. विक्षेप, मल, आवरण है. गुरूजी कहते हैं भीतर शुद्धि नहीं है तो मन बेवजह उदास रहता है. उपाय है भोजन कम खाए, चबाकर खाए, और भूख लगने पर ही खाए !

आज जून पिताजी को लेकर डिब्रूगढ़ गये हैं. स्वयं के भी अस्वस्थ हो जाने की जो बात वह माँ को चिढ़ाने के लिए कहते थे, वह सत्य हो गयी है. उनके चले जाने पर माँ अपनी आदत के अनुसार उससे पूछने आयीं, अब वह तो नहीं चली जाएगी उन्हें अकेला छोड़कर, उन्हें लग रहा था पिताजी उन्हें जानबूझ कर छोड़ कर गये हैं. उनके स्वास्थ्य के प्रति कोई सरोकार नहीं दिखाया. उसने कहा, आप समय पर दवा नहीं खातीं, पिताजी इसलिए बीमार हो गये हैं और जून भी, पर बाद में लगा यह बात ठीक नहीं है, हर कोई अपने दुखों के लिए खुद ही जिम्मेदार है. कोई अन्य इसका जिम्मेदार नहीं हो सकता. माँ यह कहती हुईं लौट गयीं कि उन्हें और परेशान कर दिया उसने. उसे अच्छा नहीं लगा, उन्हें लेटने को कहा पर तब से बैठी ही हैं. वृद्धावस्था में व्यक्ति कितना बेबस हो जाता है, हरेक को इस अवस्था से गुजरना है, बच्चा बनने का शौक है तो बूढ़ा भी बनना ही होगा !


2 comments:

  1. ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत का एक उदाहरण यह भी है... प्रकृति से प्राप्त ऊर्जा संचित करने के लिये तो कदापि नहीं... जो लिया वो लौटाना तो पडता ही है.. अद्भुत स्वप्न और समाधि... अच्छा साम्य है यह भी.
    पहला सुख निरोगी काया... अभी जब निरंतर बीमारी के हमले झेल रहा हूँ तो आपकी इस उक्ति का मर्म समझ पा रहा हूँ.

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  2. स्वागत व आभार ! आप रोज सुबह खिड़की के पास अथवा खुले में कुछ लम्बी गहरी श्वास लीजिये, ऑंखें बंद करके अपने आप से कहिये, मुझे अपने जीवन की अंतिम श्वास तक स्वस्थ रहना है, ईश्वर हर क्षण मेरे साथ हैं, फिर मुस्कुरा कर दिन की शुरुआत कीजिये. एक सप्ताह ऐसा करके देखें.

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