आज
पुनः आल्मारी में वस्त्रों के नीचे छिपाई हुईं टेबलेट्स व अन्य दवाइयाँ मिलीं.
पहले भी कई बार बेड के नीचे, गद्दे के नीचे चार-पांच गोलियां मिलती रही हैं. कई
दिनों से नहीं मिलीं तो सबने सोचा अब माँ ने मुंह से निकाल कर दवा छिपाना/ फेंकना
बंद कर दिया है, पार आज तो पूरी बारह गोलियां थीं. पूछा तो बच्चे की तरह कहने
लगीं, हमने ही रखी होंगी. पता नहीं कब रखीं, जबकि पिताजी दवा देकर सामने ही खड़े
रहते हैं. कई बार तो दवा खाने की मेज पर ही दी जाती है, पर किसी न किसी तरह वह
छिपा लेती होंगी. पिछले सवा साल से दिन भर में दसियों गोलियां खाने पर तो कोई भी
ऊब जायेगा और छोड़ देना चाहेगा. इस समय वह अपने कमरे में कुर्सी पर बैठी कुछ धीरे-धीरे
बोल रही हैं, शायद जाप कर रही हों. जून पिताजी को दांत के डाक्टर के पास ले गये
हैं, उनका डेंचर फिट नहीं हो रहा है. आज शनिवार है, शाम को वे एक मित्र परिवार से
मिलने जायेंगे, हो सका तो उसे अपना ब्लॉग दिखाएगी. कल दोपहर की कक्षा में वे एक
ड्रामा करवाएंगे, ‘कृष्ण जन्म’, कल बिना ड्रेस के और अगले हफ्ते ड्रेस के साथ.
परसों मृणाल ज्योति जाना है. टीचर्स को ध्यान के बारे में बताएगी. एक अवैतनिक अध्यापिका
जो हाल ही में विधवा हुई थीं और अब सेवा के भाव से स्कूल आती हैं, काफी परेशान
रहती हैं. जब तक परमात्मा को अपने जीवन का केंद्र न बना ले कोई, उसके दुःख कम नहीं
हो सकते. यहाँ सभी परेशान हैं, धनी भी निर्धन भी, रोगी भी स्वस्थ भी. यहाँ वही सुखी
है जो मन के पार चला गया ! समय का पहिया इसी तरह घूमता जायेगा और एक दिन मृत्यु
द्वार पर आ खड़ी होगी. आज सुबह संध्या बेला में तारों भरा गगन देखते समय कितनी
सुंदर कविता फूटी थी सहज ही, अब कुछ याद नहीं है. कितनी बार नींद में, तंद्रा में
कविता की पंक्तियाँ अपने आप भीतर गूँजने लगती हैं, उन्हें रचा नहीं होता..पर बाद
में याद नहीं रहतीं. क्या इसी को वेद के ऋषि द्रष्टा होना कहते थे. वेद वाणी को
उन्होंने देखा था, रचा नहीं था..उसे अपने साथ एक छोटी डायरी और पेन रखना चाहिए
ताकि फौरन उन्हें लिख ले ! आज सेंट्रल स्कूल जाना है, वाद-विवाद प्रतियोगिता है, ‘क्या
भारत विश्व का नेतृत्व कर सकता है, क्या उसके पास यह क्षमता है’ ! उसे निर्णायक
बनना है, पहले भी एक बार निर्णायक बनी थी, हिंदी में बोली अंत में, लेकिन आयोजकों
का विचार था कि सम्भवतः वह अंग्रेजी में ही बोलेगी. आज अगर बोलने का अवसर आया तो भारत
पर लिखी अपनी उस कविता की कुछ पंक्तियाँ ही पढ़ देगी.
एक-एक
पल कीमती है, श्वास-श्वास में उसका नाम लेना है, लूट मच रही है. चारों ओर वह बिखरा
हुआ है, उसे कैसे समेटे, समझ में नहीं आता..कहना चाहिए कि कैसे बिखेरे..जो पाया है
भीतर कैसे लुटाये उसे अनोखा है यह प्रेम ..जो सृष्टि के कण-कण के लिए भीतर घुमड़ता
है, अनोखी है यह प्रीत जो सारे ब्रह्मांड के लिए दौड़ी जाती है, सबको गले लगाने को
आतुर है..इतना पाया है भीतर कि समेटे नहीं सिमटता..आत्मा में अनंत शक्ति है, अनंत
प्यार है, अनंत आनंद है..अनंत..ये सारे शब्द उसके मुख से प्रकट होते थे अब उनका
साक्षात अनुभव होता है..होते होते ही यह घटा है..मिलते-मिलते ही मिला है..भरते-भरते
ही घड़ा भरा है..बूंद-बूंद से सागर होता है कितना सही कहा गया है..जीवन जैसे एक
वरदान बन गया है, एक उत्सव..परमात्मा की, सद्गुरु की कृपा से जीवन एक मशाल बन गया
है, एक फूल बन गया है और बन गया है एक मिसाल...जो शहद से मीठे इस प्रेम को एक बार
अनुभव कर ले वह तो जैसे बौरा ही जाता है..कदम बहकने लगते हैं, आँखें चमकने लगती
हैं..नयन बरसने लगते हैं..वचन बहने लगते हैं..क्या नहीं होता उस एक की प्रीत
में..जो उससे लगन लगा लेता है वह धनी हो जाता है..फिर कुछ भी पाने की लालसा नहीं
रहती, इसी का नाम योग है..आत्मा का परमात्मा से योग...!
आज
सुबह ध्यान में सद्गुरु की उपस्थिति को बिलकुल स्पष्ट किया उनके बोल भी सुने,
परमात्मा हर जगह है, हर समय है इसमें कोई संशय नहीं रह गया है, वही तो है, उसके
सिवाय कोई है भी नहीं..अभी-अभी दीदी से बात की, वे लोग चाय पीने जा रहे थे, अब
परांठे के साथ वाली चाय छोड़ दी है ! परमात्मा सबका सुहृद है ! आज भी पिछले कई की
तरह वर्षा का मौसम बना हुआ है, सुबह वे टहलने भी नहीं जा सके. कल शाम से आज सुबह
तक कितनी पंक्तियाँ भीतर गुजरीं पर अब कुछ याद नहीं है, एक में तो देवी-देवों का
जिक्र था. त्रिदेव तथा त्रिदेवियाँ साथ में सन्तोषी माँ, शीतला माँ सभी देवता उनके
इस तन में ही तो वास करते हैं !
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