Saturday, August 1, 2015

सत्तू की कढ़ी



आज वसंत पंचमी है. भीतर गीत गूँज रहा है. सद्गुरू के आने पर कैसे जीवन में बसंत छा जाता है, सुख-दुःख की शीतलता व गर्मी नहीं सताती, सद्विचारों के पुष्प खिल उठते हैं और प्रेम की मंद बयार बहने लगती है. साधक के भीतर सारा वर्ष बसंत ही बसंत छाया रहता है, कैसा अनोखा चमत्कार छिपा रहता है गुरू कृपा में..  पंछियों का कलरव जो बाहर गूँज रहा है वह भीतर भी गूँजने लगता है. मन ठहर जाता है, जैसे वसंत में दिन-रात बराबर होते हैं वैसे ही भीतर हानि-लाभ समान ही हो जाते हैं. आज ध्यान करने बैठी तो जब विधि को याद कर रही थी तो कोई भीतर से बोला, जब मैं तेरे सम्मुख हूँ तो तू विधि के माध्यम से मुझे खोजना क्यों चाहती है”, साध्य यदि सम्मुख हो और कोई साधन के पीछे पड़ा रहे तो मूर्खता ही कही जाएगी, तो ध्यान में जिस परमात्मा तक पहुंचना है, वह यदि आँख मूंदते ही सामने आये तो उसे परे हटाकर कोई विधि का पालन करने बैठ जाये फिर उसका पालन करते-करते तत्व तक पहुंचे तो उसे क्या कहा जायेगा ? परमात्म तत्व तो सहज प्राप्य है, वह तो हर जगह है, वह सर्वसमर्थ है, सर्वज्ञ है, तो उसे कोई जिस भाव से भजता है वह क्या इसे जानता नहीं, वह तो सब जानता है. भीतर जो चेतना है वह उसी का अंश है. सागर क्या जानता नहीं कि बूंद भी जल से ही बनी है. वह तो परम चेतन है, उसे महसूस करना ही काफी है. वह हमें अपने भीतर मिलता है, प्रकाश के रूप में और फिर मात्र बोध के रूप में, उसे पुकारें तो वह झट आता है क्योंकि वह उस पुकार उठने से पूर्व से ही जानता है. वह मन के भावों को जानता है, वह जन्मों का मीत है, वही तो है जो एक से अनेक होकर खेल रहा है !

आज उसे लग रहा है, भीतर एक विरोधाभास है. भावनाओं और कर्मों का मेल नहीं है. भावनाएं पवित्र हैं पर क्रियाएं अशुद्ध हैं. भीतर शांति है पर मन में हलचल है. जो कुछ भी ऊपर हो रहा है, वह उसे छू भी नही सकता. पर जो उसे नहीं छू सकता जरूरी तो नहीं कि वह किसी अन्य को भी न छुए. किसी को दुःख देकर तो उद्धार नहीं हो सकता. आज सुबह सद्गुरु को सुना, सीधे, सरल शब्दों में तथा सहज आनन्द के साथ वह सारे शब्दों के जवाब दे रहे थे. बच्चों जैसा सरल विश्वास और अपनापन, भोलापन और साथ ही अभूतपूर्व ज्ञान.. इन दोनों का अद्भुत सम्मिश्रण है उनमें ! पिछले दो दिनों की तेज धूप के बाद आज धूप बादलों के पीछे छिप गयी है. नन्हे से कल बात हुई, वह बैंगलोर नहीं जा रहा है, पढ़ाई का बोझ ज्यादा है. इसी महीने परीक्षाएं भी हैं. आज उसने पहली बार बेसन की जगह सत्तू डालकर कढ़ी बनाई है, जून को अवश्य पसंद आएगी. कल सासूजी पड़ोस में ‘सरस्वती पूजा’ देखने गयीं, उनकी जान-पहचान यहाँ धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है. उन्हें भी मौन का अभ्यास होता जा रहा है. वह अति आवश्यक होने पर ही शब्दों का प्रयोग करती है. उसके भीतर क्या चल रहा है ध्यान इसी तरफ रहता है. बाहर की तरफ ध्यान ज्यादा जाता नहीं. इसी को अन्तर्मुखता कहते हैं.


उसकी भाषा मधुर नहीं है, कितनी ही बार उसे इस बात का अनुभव हुआ है पर वह स्वयं को सुधारने के लिए कुछ भी नहीं कर रही है. जैसे कोई गंदगी को देखे और बस देखता रहे, झाड़ू लाकर उसे साफ न करे. तब कैसे कमियां उसके भीतर से दूर होंगी और कैसे वह परमात्मा के ज्ञान की अधिकारिणी बनेगी, कैसे वह उस परम आनंद को प्राप्त करेगी जो संतों की धरोहर है. सद्गुरु पुकार- पुकार कर कहते हैं, ‘विनम्र बनो’ पर वह तो अपनी हेकड़ी में ही रहती है. सारी दुनिया का मालिक उसका अपना है इसका घमंड कम तो नहीं होगा, वह एक अख्खड़ मस्ती का अनुभव करती है, अपनी ही मस्ती व खुमारी में खोयी वह अपना ही अनिष्ट कर डालती है ! जीवन के इस नाटक में वह इतनी खो जाती है कि असलियत को ही भूल जाती है. आज जून को दिल्ली जाना है, दो दिनों के लिए.     

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