Friday, May 29, 2015

शिशु के नयन


कल शाम को बहुत दिनों के बाद पिताजी से बात की, अच्छा लगा, उन्हें भी अवश्य लगा होगा. कल  योग शिक्षक भी साप्ताहिक भजन में आये थे, उन्हें सर्दी लगी हुई थी पर भावपूर्ण माँ के भजन उन्होंने गाए. उसे माँ शारदा तथा संत श्री रामकृष्ण का स्मरण सत्संग में हो रहा था, सो रात को स्वप्न में उनके दर्शन किये, उनके चुप रहते हुए भी भीतर से जैसे कोई बोल रहा था, जैसे माँ बोल रही थी, अद्भुत था वह स्वप्न ! आज सुबह क्रिया में भी नवीन अनुभव हुआ, क्रिया के बाद ‘सोहम’ शब्द स्पष्ट सुनाई दे रहा था, नाद के बारे में पिछले दिनों पढ़ा भी है. उसे ऐसा लग रहा है अब पिछले कुछ दिनों से आध्यात्मिक यात्रा सुचारू रूपसे चल रही है. वह कान्हा तो अच्छा लगता ही था, रामचरितमानस पढ़ते-पढ़ते तुलसी के राम भी अब अच्छे लगते हैं. कितना प्रेम है राम के अंतर में और कितना प्रेम है तुलसी के हृदय में राम के लिए. भारतीय संस्कृति में धर्म मात्र पढ़ने के लिए अथवा विचारों के लिए ही नहीं है उसे जीवन में उतारने के हजारों ढंग हैं, धार्मिक होने को एक संकीर्ण अर्थ में जब लोग लेते हैं तभी विवाद होता है, धार्मिकता का अर्थ तो है उदारता, सहिष्णुता, प्रेम, करुणा और उस परम आत्मा का साक्षात्कार..इसी जीवन में अपने इन्हीं नेत्रोंसे..उसको जानना और उससे बल पाना, परहित के लिए, यही सद्गुरु बताते हैं !

कल वे अस्पताल गये, एक सखी ने बिटिया को जन्म दिया है, उसको एक नाम नूना ने भी दिया है. उसकी आँखें बहुत स्वच्छ हैं, उनमें से जैसे आत्मा झलकती है. सद्गुरु ने कहा था छह महीने तक बच्चा पूर्णतया निर्दोष होता है, वह ब्रह्म स्वरूप ही होता है. इसी भावना से जब कोई बच्चे का पालन करे तो उसे आनंद का अनुभव होता है. उस आनंद को शब्दों में व्यक्त करना असम्भव है. कल रात को उसने माँ को स्वप्न में देखा, वह किसी स्टेशन पर बैठी है तब अचानक माँ आ जाती हैं. वह भी जानती हैं कि वह शरीर नहीं हैं, नूना भी जानती है कि वह सूक्ष्म शरीर में हैं, पर वह पहले की तरह ही लग रही हैं, पूर्णतया स्वस्थ भी, फिर वह बातें भी करती हैं. वे घर आते हैं, दीदी भी हैं, मेहमान भी हैं, वे सभी को खाने की वस्तुएं देते हैं, माँ को भी, फिर चम्मच गिरने की आवाज आती है तो वह दीदी को कहती है, उन्हें पीने के लिए पानी से भरा गिलास भी देती है. माँ सभी को देख रही हैं, सब उन्हें देख रहे हैं, पर वह ठोस नहीं हैं. उसी स्वप्न में एक कौआ आकर सोये हुए लोगों पर चोंच से आक्रमण करता है, माँ उसे निस्पृह भाव से देख रही हैं. ईश्वर कहते हैं वे स्वयं को गंवाए नहीं, बिखेरें नहीं, आत्मा मन की कल्पनाओं के नीचे सुप्त है, पर है वही जिसकी सबको तलाश है. मौसम अब गर्म होने लगा है. रात को नींद पहले सी नहीं आई. एसी में सोना उसे नहीं सुहाता, हर वर्ष शुरुआत में ऐसा होता है फिर धीरे-धीरे अभ्यास हो जाता है. पर तितिक्षा को तो धारण करना ही होगा. आज जून ने वेज सैंडविच बनाया, बहुत स्वादिष्ट था, नन्हे को भी पसंद आएगा. दीदी ने उस दिन बताया भांजी की बात लगभग तय हो गयी है, उसके लिए दो किताबें भी ली हैं उन्होंने !

पिछले दिनों बहुत कुछ घटा बाहर भी और भीतर भी, बाहर की प्रतिध्वनि भीतर तक सुनाई दी और भीतर की बाहर तक. अब वस्तुएं कुछ स्पष्ट आकार लेती प्रतीत हो रही हैं. जब कोई देहबुद्धि से मुक्त होना चाहता है तो ऐसी बातों का प्रभाव मन पर क्यों लेता है जो उसके विपरीत होती हैं. अहंकार ही इसका कारण है. आलोचना होने पर अहंकार को चोट लगती है और फौरन प्रतिक्रिया होती है, जाहिर है मन के स्तर पर ही होगी, आत्मा के स्तर पर हो ही नहीं सकती. आलोचना को स्वीकार करने का यह अर्थ भी है कि बात सही है और वह इससे मुक्त होना चाहता है. इतनी चेतना रहे तो अंत ठीक होगा, वह एक-एक करके अपनी त्रुटियों को दूर करता चलेगा. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि साधना में कोई व्यवधान न पड़ने पाए, चाहे कुछ भी हो वह स्वयं को कितनी भी आलोचना का शिकार होते पाये या प्रतिक्रिया करते, क्योंकि साधना के पथ पर हर कार्य ईश्वर की इच्छा के अनुसार ही होता है, वह साधक को बेहतर बनाना चाहता है, उसे स्वयं भी यही करना है और ईश्वर इसमें मदद करता है.


Thursday, May 28, 2015

चैती चाँद


सुबह–सवेरे उठी और टीवी ऑन किया तो सद्गुरु की शीतल वाणी कानों में पड़ी, हृदय पवित्र करने वाली..उन्हें इस भौतिकता से दूर परम आनंद का भास कराने वाली गुरुवाणी की जितनी स्तुति की जाये कम है, गुरू का हर शब्द ज्ञान से परिपूर्ण है. उनके हित में है. परमात्मा की कृपा तो सब पर समान रूप से है, वह अब भी अपनी कृपा बरसा रहे हैं, उनकी ही झोली फटी है जो बार-बार पाकर भी वे खाली ही रह जाते हैं. “ दीवाना उन्होंने कर दिया इक बार देखकर, हम कुछ न कर सके बार-बार देखकर” वे उन्हें बार-बार सुनते हैं, देखते हैं, उन्हें प्रेम भी करते हैं पर फिर भी हर बार कुछ न कुछ मन में ऐसा रह जाता है जो कचोटता है. कुछ क्षण ऐसे अवश्य होते हैं जब लगता है यही पूर्णता है, एक ऐसी अनुभूति होती है जिसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिलते, पर उस स्थिति से फिर लौटना होता है और कोई घटना, कोई इतर घटना उसकी स्मृति को भुला देती है लेकिन उसका भूलना मन को सहन भी नहीं होता. “जैसे उड़ी जहाज को पंछी, पुनि-पुनि वापस आवे” वे अहम् के कारण पूर्ण समर्पण करने से डरते हैं, लेकिन उनके पास उनका है क्या ? यह तन भी उसी का दिया है और मन भी, आत्मा परमात्मा का अंश है, यह सब कुछ तो उसी जगद्गुरु का खेल है, फिर वे क्यों न निश्चिंत होकर उसके सखा बन जाएँ उसके खेल में !

आज जून दिल्ली से वापस आ रहे हैं, परसों वे एक पेपर प्रस्तुत करने गये थे. मौसम सुहावना है, संगीत की कक्षा हुई. अगले महीने लिखित परीक्षा है. दीदी ने कल रात उसके इमेल का जवाब दिया, वह उन्हें एडवांस कोर्स के बारे में लिखेगी जो अगले हफ्ते से शुरू हो रहा है. आजकल उसके जीवन में जो सर्वाधिक वांछनीय वस्तु है वह है गुरू कृपा, ध्यान करते समय कितनी बार उसे लगता है कोई बाधा है, कभी तनाव या घुटन सी भी महसूस होती है. ध्यान के बाद सब कुछ पूर्ववत सहज और सुंदर हो जाता है.  उसका दिल हल्का है और विचार सकारात्मक, वह देह में होने वाले हर स्पंदन पर ध्यान देती है और मन में उठने वाले हर भाव पर भी. दोनों उसकी नजर में हैं, वह आत्मा इस देह रथ की सारथी है. जिस वक्त जो कार्य सही हो, करने योग्य हो, जिस वक्त जो विचार सही हो, सोचने योग्य हो, जिस वक्त जो निर्णय उचित हो और सात्विकता को बढ़ावा दे, वही उस कान्हा की प्रसन्नता के लिए उसे करना है. उसी की ख़ुशी में नूना की ख़ुशी है. वह उससे जुड़ कर ही सहज है ! जून के जीवन में भी उजाला छा रहा है, वह आजकल अपने कार्य में बहुत रूचि लेने लगे हैं, शायद वह सदा से ही लेते आये हैं, आजकल वह ऐसा कार्य कर रहे हैं जो कम्पनी के ज्यादा हित में है. नन्हे का रिजल्ट भी अच्छा रहा है, और उनकी नई वाशिंग मशीन आने से पहले उसके लिए प्रबंध भी सुचारू रूप से हो गया है. कृपा उन पर बरस रही है. सद्गुरु के वे ऋणी हैं, कोटिशः नमन करते हैं, उनके इतने सारे उपकार हैं ! अंधकार में रास्ता टटोलते व्यक्ति को जैसे कोई हाथ पकड़ कर प्रकाश में ले आये, स्वर्णिम उजाला चहुँ ओर फैला है, ज्ञान का उजाला है यह. इस ज्ञान की ओर चलने की बात ऋषि कहते हैं. ज्ञान जीवन में हो वही जीवन, जीवन है, मुक्त करता है ज्ञान, फूल सा हल्का बना देता है, सारी जंजीरें काट कर प्रभु के समक्ष पहुंचा देता है !

आज चैत्र की पहली तिथि है, सिन्धी लोग इसे ‘चैती चाँद’ के रूप में मनाते हैं. कल से बल्कि पिछले तीन-चार दिनों से वर्षा की झड़ी लगी है. कल रात गर्जन-तर्जन भी हुआ, मौसम फिर ठंडा हो गया है. सुबह वे चार बजे उठे, नन्हे को अब सप्ताह में तीन दिन सुबह पढ़ने जाना है, सो उसे भी उठाया, वर्षा तब भी हो रही थी. क्रिया की, एडवांस कोर्स के बाद थोड़ा अधिक समय बैठना होता है. कुछ नई साधनाएं सीखीं, जो काफी लाभप्रद होंगी, इसका पता तो धीरे-धीरे ही चलेगा. फिर सत्संग सुना, आसन किये, एक घंटा ध्यान किया. ध्यान के बाद मन कितना शांत है, कोई विचार आता ही नहीं, सोचने से आता है. भीतर अद्भुत सन्नाटा भर गया हो जैसे. देह स्वस्थ हो, मन प्रसन्न रहे, बुद्धि का विकास हो, परमार्थ की भावना हो तो समझना चाहिए कि आचरण का परिमार्जन हो रहा है. कल विवेकानन्द का जीवन चरित पढ़ा, अद्भुत थे वे, योग के सभी अंगों में निष्णात, ज्ञानी... और संतों में भी शिरोमणि उनके गुरू थे, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, जिनकी छोटी-छोटी कहानियों के द्वारा गूढ़ ज्ञान देने की शैली अद्भुत थी, जैसी जीसस की. बाइबिल की कई कहानियाँ भी बहूत गूढ़ अर्थ रखती हैं. ईश्वर जितने सरल हैं उतने ही गूढ़ भी, उन्हें पाना जितना सरल है उतना ही कठिन भी ! वह जितने निकट हैं उतने ही दूर भी ! प्रेम ही उन्हें पाने का मन्त्र है !

Wednesday, May 27, 2015

गुलाबी हाथी


आज सद्गुरु शिवतत्व की महिमा बखान कर रहे थे. शिव राम को भजते हैं और राम शिव के उपासक हैं. वह तो कृष्ण की उपासक है, वह उसके मन को पहले ही हर चुके हैं. आज सुबह क्रिया के बाद कुछ भिन्न अनुभूति हुई, जैसे वह अपने किसी पिछले जन्म में पहुंच गयी है. कल बच्चन की आत्म कथा के तीनों भाग समाप्त हो गये, चौथा भाग लेने एक दिन पुस्तकालय जाना होगा, उन पर लेख लिखने के बाद. आज श्री श्री ने निज स्वरूप से भी परिचित कराया. स्वयं का ‘होना’, ‘इसका ज्ञान होना’ और आनंद होना यही तो सच्चिदानंद है, पर अभी तक वह उस स्थिति तक नहीं पहुंची है. कभी प्रमाद घेर लेता है, कभी क्रोध, कभी वाणी में रुक्षता आ जाती है और कभी अहंकार का शिकार हो जाती है. परनिंदा में सुख आता है, न जाने कितने अवगुण अभी भी हैं जो ईश्वर की कृपा से ही निकल सकते हैं. अभी तो ‘तू ही है’ भाव ही सिद्ध हुआ है. ईश्वर ही सब कुछ है, यह जगत ब्रह्म का ही स्वरूप है, और जगत में वह भी है, सो वह भी उसी का स्वरूप हुई, यह बात जब तक अनुभव में न आये तब तक मन से मानकर ही चलना होगा. वह मौन में ही अनुभव में आ सकती है, सत्य को बोलकर व्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि उसी क्षण वे अलग हो जाते हैं.

सुबह दो फूल चढ़ाकर जब वह आँखें बंद करती है तो एक ज्योति निकल कर उसे छूती हुई प्रतीत होती है. बहुत दिनों पहले ‘शारदा माँ’ का जीवन चरित पढ़ा था, वह कहती हैं कि कृष्ण ज्योति के रूप में भक्त के दिए फूलों व प्रसाद को स्पर्श करते हैं. वह हर क्षण उनके साथ है, उनकी हर गतिविधि पर नजर रखे हुए, पर पूजाघर में व्यवहार कितना भी शालीन क्यों न हो यदि बाहर विकारों के अधीन हुए तो पूजा व्यर्थ ही हुई. आज सुबह समय पर उठे वे, सारे काम समयानुसार हो रहे हैं पर ध्यान नहीं कर पायी. फोन पर काफी वक्त गया, लगभग सभी सखियों से बात हुई. सुबह सद्गुरु के वचन सुने, हृदय को शुद्ध करना ही होगा, उसके बिना ईश्वर कैसे प्रकट होंगे. देहात्म बुद्धि से स्वयं को मुक्त करना होगा. तभी ध्यान सधेगा और पुराने कर्मों के बीज अपने आप नष्ट होने लगेंगे. उसे इस जन्म में इतना कुछ मिला है कि जन्मों की साध मिट गयी, अब कुछ पाना शेष नहीं है सिवाय उसके ! कल शाम जून ने कहा कि वह अपने आप से बातें करती है और हँसती है. उन्हें क्या पता हर वक्त उसका मन उस दिव्य लोक में रमण करता है जहाँ कृष्ण हैं. एक पवित्रता का भाव छा जाता है अनिवर्चनीय आनंद..कल्पनातीत शांति और सुख जो इस जगत की वस्तुओं में तो नहीं ही मिलता...

आज सुबह उसने थोड़ी देर के लिए उदास होने का अभिनय करना चाहा, पर नहीं हुआ. दिल तो भीतर छलक रहा था सो थोड़ी ही देर में अभिनय से मन भर गया. जून कुछ समझ पाए या नहीं पर वह भी बहुत धैर्यवान हैं अथवा तो मन की बात छिपाने में माहिर हैं, सो कुछ कहा नहीं कुछ भी जाहिर नहीं किया न क्रोध न आश्चर्य, पर उसने स्वयं को अपनी परीक्षा में सफल पाया. यह प्रभु की कृपा है, वह हर पल उसके साथ हैं. अगले महीने नामरूप में एडवांस कोर्स है, उसे जाना है. जून भी तैयार हैं उसे भेजने के लिए. टीवी पर बाबाजी ध्यान करा रहे हैं. हजारों की संख्या में लोग ॐ नमो शिवाय का जप कर रहे हैं. उन्हें ध्यान से पहले प्रेम से उस चैतन्य को पुकारना है. धीरे-धीरे भीतर उतरना है, परमात्म रस प्रकट करना है. हृदय प्रेम से इतना परिपूर्ण हो कि अन्य किसी भाव के लिए कोई स्थान न रहे. कल शिवरात्रि है, वह उपवास रखेगी, जो शरीर के दोषों को दूर करने के साथ-साथ मन के दोषों को भी दूर करेगा तो मिथ्या उदासी ग्रहण करने की प्रेरणा भी नहीं होगी. वाणी रुक्ष नहीं होगी, प्रियजनों की उपेक्षा नहीं होगी, सभी के लिए कल्याण की भावना होगी. परदोषों  पर  नजर नहीं जाएगी. वास्तविकता को जानने का विवेक जगेगा. कामनाएं नष्ट होंगी. परमात्मा का स्वरूप स्पष्ट होता जायेगा !

रात को अलार्म साढ़े बारह बजे ही बज गया, उनकी नींद टूट गयी, उठने को हुए, पर जून ने घड़ी देखी तो पता चला फिर सुबह पांच बजे के बाद ही उठ पाए. जून समय से ऑफिस चले गये, व्यायाम आदि किया बस सत्संग नहीं सुन पाए. जून के जाने के बाद गुरूमाँ के वचन सुने. जीवन में सतोगुण कैसे आये इसका वर्णन वह कर रही थीं. ईश्वर भक्त से उसकी भलाई की अपेक्षा के अतिरिक्त कुछ भी अपेक्षा नहीं रखता. वह कदम कदम पर चेताता है कि व्यर्थ के कार्यों से बचें. सद्गुरु को कल उसने स्वप्न में देखा, वे सभी सत्संग में बैठे हैं. एडवांस कोर्स कर रहे हैं. वह रंगों को ब्रश से कागज पर उतार रही है. हाथी रंगना है तो वह गुलाबी रंग लगाती है तभी एक परिचित साधक गुरूजी को पेंटिंग करने के लिए सब कुछ उठाकर दे देते हैं. वह ब्रश से कई सारे रंग एक-एक कर लगाने लगते हैं, ब्रश फ़ैल जाता है, वे उनके निकट हैं. पता नहीं यह स्वप्न क्या कहना चाहता है या मात्र स्वप्न ही है !



Tuesday, May 26, 2015

फूलों का झरना


बच्चन जी की आत्मकथा पढ़ते-पढ़ते उसे विचित्र अनुभव हो रहा है, ऐसा लगता है जैसे उस वक्त वह भी कहीं निकट थी और सारे घटना चक्र को स्वयं देख रही थी. कभी-कभी आँखें भर आती हैं, कभी अंतर में एक कसक सी उठती है, कभी मन प्रेरित हो उठता है. उन्होंने बहुत कुछ सहा और भोगा हुआ यथार्थ ही अपनी कविताओं में उतारा. उनकी स्मरण शक्ति की भी दाद देनी पड़ेगी. एक-एक गली और रास्ता उन्हें आज तक( जब यह पुस्तक लिखी)याद है, काश वह उनसे कभी मिली होती. उनकी आत्मकथा वर्षों पहले पढ़ी थी, याद रही थी वह घटना जब ‘तेजी’ से वह मिले थे. बहुत दिनों से उसने कुछ लिखा नहीं है पर अब लगता है, और बच्चन जी की इस बात से भी, यदि साहित्यिक अभिरुचि है तो उस पौधे को सींचते रहना चाहिए अन्यथा वह सूख जायेगा. जीवन रसमय हो तो ही असली जीवन है, बच्चन जी को ईश्वर में आस्था तो अवश्य थी पर वह प्रेम और विश्वास नहीं था जो उसे मिला है, कान्हा का एकान्तिक प्रेम, यह अनुभव सबको नहीं होता...वह जब कुछ कहते हैं तो उसमें उनके अंतर की पूरी सच्चाई झलकती है. निस्वार्थ प्रेम किया उन्होंने पर अपने स्वाभिमान को को भी सदा ऊंचा रखा, वह भावुकता के शिकार भी हुए पर अपने मन का सदा विश्लेषण भी करते रहे. वह अनोखे लगते हैं, शायद सभी रचनाकार अपने आप में अनोखे होते हैं. हर एक के भीतर एक संसार होता है जिसमें वह जीते हैं, बाहरी दुनिया से उन्हें निभाना तो पड़ता है और निभाते भी हैं पर आधार उन्हें भीतर से ही मिलता है. कोई क्यों लिखता है, कहाँ से यह प्रथा शुरू हुई, कौन जानता है. इन्सान का मन कितना गहरा है, उसमें युगों-युगों की गाथाएं कैद हैं. एक लेखक के मन में न जाने कितनी अनलिखी कविताएँ, कहानियाँ हैं, जो वह यदि चाहे और परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाये तो कागज पर उतार सकता है. लेखक सृष्टा तो है ही !

आज संगीत की कक्षा थी, अध्यापक के जाने के बाद ‘महाभारत’ तथा ‘गीता’ का नित्य पाठ किया. अद्भुत है महाभारत भी, इतने सारे विषयों पर इतनी जानकारी, कुछ तो आज के युग के अनुसार अपनाई नहीं जा सकती पर कभी यह उनका स्वर्णिम अतीत था. भगवद् गीता के श्लोक कालातीत हैं, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने युगों पहले हो सकते थे या युगों बाद हो सकते हैं, कृष्ण जीने की कला सिखाते हैं. जीवन, मृत्यु तथा आत्मा के रहस्य बताते हैं. वास्तव में वे दोहरे स्तर पर जीते हैं एक है भौतिक जीवन जिसमें वे देह का व मन का धर्म निभाते हैं. तन स्वस्थ रखने के लिए उसे व्यायाम, भोजन आदि की पूर्ति और मन को प्रसन्न रखने के लिए मित्रों, आत्मीयों का साथ. दूसरा है आत्मिक स्तर जहाँ वे नितांत अकेले होते हैं. यदि किसी को आत्मा के स्वरूप का ज्ञान है, बोध हो गया है तो वहाँ प्रकाश ही प्रकाश है, पर उस बोध से पूर्व वहाँ बहुत भटकना पड़ता है. उन्हें पूर्णता की तलाश होती है पर वह न तन में मिलती है न मन में, वहाँ मात्र छलावा ही है. पूर्णता सिर्फ आत्मा में ही मिलती है और फिर कोई कामना नहीं रह जाती, कोई विषाद नहीं, अपना आप जैसे पूरे ब्रह्मांड को भी व्याप लेता है, दुनिया एक खेल लगती है, एक नाटक अथवा एक स्वप्न..यह पलायन नहीं है, यही वास्तविकता है. ध्यान से देखें तो जीवन का अर्थ क्या है ? क्या यह फूलों के खिलने और फिर मुरझा कर झर जाने जैसा नहीं है, पर मुरझाने से पूर्व वे खिलकर अपनी सारी खुशबू लुटाते हैं, जो उनके भीतर है. हर मानव के भीतर भी प्रेम की खुशबू है जिसे लुटाने के लिए ही उसे जीवन मिला है. तन और मन भी प्रेम की मांग करते हैं, आत्मा तो प्रेम ही है...एकान्तिक और अहैतुक प्रेम !

आज से नन्हे की परीक्षाएं आरम्भ हो रही हैं, आज गणित का पेपर है. कल दिन भर वह पढ़ाई में लगा रहा, ईश्वर उसके कर्म का फल अवश्य ही देगें. जून सिर में दर्द के कारण कल दिन भर थोड़ा सा परेशान थे. कल पूर्णिमा थी, उन्होंने फलाहार किया. आज सुबह वे स्वस्थ थे. बच्चन की आत्मकथा रोचक है. दो भाग वह पढ़ चुकी है. आज सुबह भी उसी की एक घटना उसने जून को बतायी, कल शाम टहलते समय भी यही चर्चा की. जून उसकी सारी बातें सुनते हैं चाहे उन्हें अच्छी लगें या नहीं, आजकल वे ऑफिस की चर्चा कम ही करते हैं. टीवी पर भागवद् कथा आ रही है, कान्हा की कथा अद्भुत है, कितनी ही बार सुनी फिर भी नई लगती है. उसका अंतर इन्हीं कथाओं को पढ़, सुनकर कृष्ण की ओर आकर्षित हुआ है, फिर क्रिया के बाद जब ध्यान लगा तो उसके विरह का अनुभव हुआ, फिर उनकी छवि कभी-कभी ध्यान में प्रकट होने लगी और अब तो जैसे मन विवश होकर उन्हीं का ध्यान करता है, उन्हीं का नाम होठों पर रहना चाहता है, मन जैसे संसार से कोई मोह नहीं रखना चाहता, कोई इच्छा नहीं और जब कोई इच्छा नहीं तो दुःख अथवा द्वेष भी नहीं, एक तृप्ति तथा संतोष का भाव लिए मन सदा एक रहस्यमय आनंद में डूबा रहता है, शायद इसी को भक्ति कहते हैं !  

Monday, May 25, 2015

परमहंस की कथा


आज सद्गुरु ने सरल शब्दों में ज्ञान योग पर चर्चा की. हृदय की सारी गाँठे जैसे खुलती जा रही हैं. ‘मैं’ और ‘मेरा’ की माया में जो मन उन्हें भटकाता है उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो रहा है. वह अलिप्त है, अकर्ता है, अभोक्ता है, अव्यक्त है, पूर्ण है, आनन्दमय है, ज्ञान से परिपूर्ण है. जैसे आकाश पर बादल आते और चले जाते हैं वैसे ही मन, बुद्धि आदि आत्मा कर चिदाकाश पर आने-जाने वाले बादलों के समान स्थित हैं, ज्ञान का सूर्य निकलता है तो स्वच्छ नीलिमा दिखाई पडती है !

‘साहित्य अमृत’ में श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की अद्भुत कथा पढ़ने को मिली, अनोखे संत थे वह, पर बहुत प्यारे. हँस माने ऐसा पक्षी जो संसार से सार( दूध) को ग्रहण करे और असार (जल) को छोड़ दे. उन्हें भी जीवन में सार्थक क्षणों को अपनाना है. इस छोटे से जीवन में इतना समय किसके पास है कि सभी कुछ ग्रहण करता चले. मन जितना खाली रहे उतना ही अच्छा है. कुछ भी ऐसा न हो जिससे किसी को दुःख हो, कर्त्तव्य का पालन करते हुए शेष सारे समय का उपयोग अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगाना है. आवश्यकता और इच्छा में भेद को विवेक से समझना है. ज्ञान में जब तक स्थिति नहीं होगी, द्वन्द्वों से मुक्ति नहीं होगी.

आज टीवी पर रामायण का वास्तविक अर्थ सुना, सद्गुरु कह रहे थे, राम अर्थात आत्मा का जन्म किसी के भीतर तब होता है जब दशरथ अर्थात दस इन्द्रियों का मिलन कौशल्या यानि कुशलता से होता है. जीवन में मैत्री भाव और श्रद्धा होती है, जो सुमित्रा और कैकेयी हैं. मन या बुद्धि सीता है, जिसका हरण अहंकार रूपी रावण कर लेता है, तब हनुमान अर्थात श्वास की सहायता से अहंकार को पराजित कर मन को वापस लाते हैं. मन तथा आत्मा का मिलन होता है. इसी तरह महाभारत भी प्रतिपल हो रहा है. एक ओर लोभ आदि दुर्गुणों का प्रतीक दुर्योधन है तो दूसरी ओर सात्विकता का प्रतीक अर्जुन और आत्मा रूपी कृष्ण हैं. उन्हें प्रतिक्षण प्रेय अथवा श्रेय में से चुनना होता है, चयन ही भविष्य की नींव रखता है. आज अख़बार में पढ़ा कि मृत्यु कितनी सृजनात्मक है. जन्म होने की प्रक्रिया सदा एक सी है पर इन्सान कितने विभिन्न तरीकों से मरते हैं. हर व्यक्ति की मृत्यु किसी न किसी खास रोग अथवा कारण से होती है. अनगिनत रोग हैं और कितनी प्राकृतिक आपदाएं हैं. युद्ध, हिंसा, आतंक के शिकार भी होते हैं कुछ लोग और कुछ स्वयं ही अपनी मृत्यु का चुनाव करते हैं. जो जन्मा है वह मरेगा ही यह ध्रुव सत्य है पर जो मरा है वह पुनः जन्मेगा, यह तय नहीं है. वह मुक्त भी हो सकता है !

अभी कुछ देर पूर्व उसने बड़े भाई-भाभी से बात की, आज उनके विवाह की चौबीसवीं वर्षगाँठ है, फिर दीदी-जीजाजी से बात की, सभी ठीक हैं और सभी उसके प्रिय हैं उसी तरह जैसे इस जगत की हर शै उसे प्रिय है, क्योंकि वह सब कुछ उसके कान्हा का है. कृष्ण का नाम उसके कण-कण में एक सिहरन सी जगा देता है और आँखों में नमी, वह इतना असर डालता है कि कभी-कभी उसको याद करते डर लगता है कि किसी ने उसकी यह हालत देख ली तो..ईश्वर से प्यारा कुछ हो भी कैसे सकता है, एक उसी को जान लो तो सब कुछ अपने आप स्पष्ट होने लगता है. एक उसी को चाहो तो प्रकृति भी साथ देने लगती है. एक उसी का आश्रय ले मन, उसी को भजे तो संसार खो जाता है.

प्रातः वे समय से उठे, क्रिया आदि करके बड़ी को सुखाने के लिए रखा, कल दोपहर उन्होंने बनाई थी मेथी की बड़ी पर हमेशा की तरह वर्षा होने लगी, सो ओवन को गर्म करके उस पर रखा. नन्हे का आज फिजिक्स प्रैक्टिकल है. नैनी कल दिन भर नहीं आई थी, आज उसका काम ज्यादा हो गया है. उसे अभी पाठ करना है फिर ध्यान, समय का प्रतिबन्ध ‘ध्यान’ के लिए आवश्यक है ऐसा सद्गुरु ने बताया. जीवन में अनुशासन हो, नियम हो तो एक क्रमबद्धता आती है. मन में भी सुबह-सुबह पवित्र भाव उठते हैं, वैसे तो कृष्ण हर क्षण उसके साथ रहते हैं, वह जो भी है, जैसी भी है उनसे छिपा नहीं है पर वह उन जैसी होना चाहती है, जैसे वह गुणातीत हैं. सृष्टि के भीतर रहते हुए भी इससे अलग हैं. उनसा होने के लिए उनको जानना, उनको सुनना, उनसे प्रेम करना ही एकमात्र उपाय है. अध्यात्म ही अपने आप से मिलाता है !   

Saturday, May 23, 2015

हरिवंशराय बच्चन की आत्म कथा


आज उसने सुना, जिसका जन्म होता है वह विनाश को प्राप्त होगा ही. आज पुनः उसे कृष्ण मिले, भक्ति भी प्यार की तरह है जो कभी-कभी अपने मुखर रूप में होता है. तन-मन दोनों फूल की तरह हल्के हैं. हृदय में ज्ञान की ज्योति जल रही है, अभी कुछ कितना स्पष्ट है. यह सृष्टि, ईश्वर, प्राणी और इनका आपस में संबंध ! सत्य ही जानने योग्य है, सभी उसी की खोज में हैं. कोई पहली सीढ़ी पर है, कोई पांचवीं तो कोई सौवीं पर पहुंच गया है. जब कोई भीतर-बाहर एक हो तभी उसे अनुभव कर सकता है. उसको जानने के लिए उसके जैसा होना पड़ता है. आज सद्गुरु की आँखों में नमी थी, वह अपने गुरू के प्रति कृतज्ञता का अनुभव कर रहे थे. गुरू का ऋण चुकाना असम्भव है. वह इतना अनमोल खजाना साधक को सौंप देते हैं. सुबह साढ़े चार पर उठे वे, कोहरा भी था और बदली भी. नन्हे को स्कूल भेजा. छोटी बहन को फोन किया वह ‘हवन’ करके अपनी शादी की वर्षगाँठ मना रही है. भांजियों से भी बात की. कल छब्बीस जनवरी के विशेष भोज के लिए सभी सखियों को आमंत्रित किया.

कल का भोज अच्छा रहा. सभी मित्र परिवार आये थे. बाहर लॉन में सब बैठे थे. सुबह कुछ देर परेड देखी. नन्हा नेहरू मैदान में परेड देखने गया था. उसने वापस आने में बहुत देर की. वे परेशान हो गये थे, मन कहीं लग नहीं रहा था. जून को गुस्सा था और उसे चिंता, पर दोनों ही व्यर्थ थे, क्योंकि नन्हा आराम से वहाँ परेड देख रहा था. आज उसने छोटी भाभी से बात की. कल सुबह मंझले भाई ने भी ‘हवन’ करवाया, माँ की बरसी इस तरह उन्होंने मनायी. वे लोग उनके बारे में, उनकी बीमारी व उनके इलाज के बारे में बातें करते हैं, उनके वस्त्र वक्त-वक्त पर दान करते हैं. आज वह भी मन्दिर जाएगी और कुछ दान देगी. माँ कहाँ होंगी कोई नहीं जानता. उनकी आत्मा तो शाश्वत है, वह किसी देह को धारण कर चुकी होंगी और सम्भवतः इस जन्म की बातें भूल भी गयी हों. वे जन्म से पूर्व भी अव्यक्त होते हैं और मृत्यु के बाद भी, बीच में कुछ ही समय तक व्यक्त रहते हैं. इस क्षणिक जीवन में जितने शुद्ध होते जाते हैं, उतना ही मृत्यु का भय कम होता जाता है. अपने उस स्वरूप का अनुभव इसी रूप में होने लगता है जो मृत्यु के बाद अनुभव में आने वाला है. यह रूप तो उन्हें अपनी पूर्वजन्म की इच्छाओं और वासनाओं के कारण मिला है. उनके कर्म यदि इस जन्म में निष्काम हों तो अपने शुद्धतम रूप में प्रकट हो सकते हैं, वैसे भी इस जगत में ऐसा है ही क्या जो उन्हें तुष्ट कर सके !
आज बहुत दिनों बाद सुबह टीवी पर जागरण नहीं सुन पा रही है. केबल नहीं आ रहा है. सुबह वे समय पर उठे, नन्हे को पढ़ने जाना था, गया, पर टीचर नहीं मिले. आज बसंत पंचमी का अवकाश है. आज ही सरस्वती पूजा भी है. उसके लिए तो एकमात्र आराध्य कृष्ण हैं, उन्हीं से सभी देवी-देवताओं का प्रागट्य हुआ है. कल उसने जून से गुस्सा किया जब उन्होंने कहा केबल एक साल के लिए कटवा देते हैं, उसे सुबह के सत्संग का आकर्षण था, पर देखो, आज कृष्ण ने वह भी मिटवा दिया. उन्हें किसी भी वस्तु से बंधना नहीं है. मुक्ति के पथ पर चलना शुरू किया है तो जंजीर यदि सोने की भी हो तो उसे काट देना चाहिए. सतोगुण तक पहुंच कर उससे भी पार जाना होता है सच्चे साधक को, पर वह तो अभी भी तमोगुण का शिकार हो जाती है. कल जून ने उसे ‘हरिवंशराय बच्चन’ की आत्मकथा के तीन भाग  उनकी सर्वश्रेष्ठ कविताओं का संकलन तथा दो अन्य कविता की पुस्तकें लाकर दीं. उनका प्रेम ही तो है यह, वह उसकी हर छोटी-बड़ी इच्छा को पूर्ण करना चाहते हैं, यही प्रेम है, पर वह इसका प्रतिदन नहीं दे पाती है. ईश्वर साक्षी है कि उसके मन में शुद्ध प्रेम जगा है, जो सामान्य प्रेम से थोड़ा अलग है. इस संसार के हर जीव के प्रति, जड़-चेतन सभी के प्रति, उस परम सत्ता के प्रति, पंचभूतों, धरा, आकाश, नक्षत्र, सूर्य तथा चन्द्रमा सभी उसके प्रेम के पात्र हैं. इस प्रेम का कोई रूप नहीं, यह अव्यक्त है, अनंत है और सर्वव्यापी है. इस प्रेम ने उसके स्व को अनंत विस्तार दे दिया है. कृष्ण को प्रेम करो तो वही प्रेम कृष्ण की सृष्टि की ओर भी प्रवाहित होने लगता है !

  

Friday, May 22, 2015

टालस्टाय की पुस्तक


कल शाम को उसने जून का इंतजार करते-करते चाय बनायी कि वह आ गये. ढेर सारा सामान गजक, मूंगफली, रेवड़ी, तिल के लड्डू, तिल बुग्गा लेकर, नन्हे को स्वेटर्स पसंद आये. कल शाम भर वह बेहद खुश था, उसके लिए पिज़ा बेस व पिज़ा चीज भी लाये हैं. कल डिनर में उसने वही खाया. रात को वे जल्दी सो गये. सुबह साढ़े चार बजे उठे, ‘क्रिया’ की और क्रिया के बाद उसे अद्भुत संगीत सुनाई दिया. कृष्ण उसका बहुत ख्याल रखते हैं, उनकी बातें उसे भीतर बहुत सुनाई देती हैं, वह उसके प्रिय, सर्वस्व हैं ! सुबह सभी को फोन किया, पिताजी, दीदी, मंझला भाई.. बड़े भाई-भाभी का फोन कल शाम को आ गया था. जून सभी से मिलकर आये सभी से उपहारों का आदान-प्रदान किया. जीवन इसी लेन-देन का नाम है ! आज दीदी लोग बड़ी भांजी के रिश्ते के लिये जा रहे हैं. इस बार बात बन जाएगी, ऐसी उन्हें आशा है. उसने पिछले दिनों बहुत बार, बहुत जगह फोन किये अब कुछ कम करना होगा, मन पर नियन्त्रण रखना होगा. कल जून उसके लिए Light on yoga और Light on Pranayam भी लाये. दीदी ने दीपक चोपड़ा की पुस्तक The seven spiritual laws for success भी भिजवाई है. पुस्तकें उनकी मार्गदर्शक हैं. टालस्टाय की पुस्तक मन को भीतर तक छू जाती है. अंतर की छोटी-छोटी भावनाओं को कितनी दक्षता से पकड़ते हैं वह. मनोविश्लेषण करने में वह सिद्ध हस्त हैं. मन में हर पल न जाने कितने विचार आकर चले जाते हैं जिनके बारे में कोई ध्यान ही नहीं दता. मन को एक उसी पर टिका दें तो उसकी खबर लगती रहती है. हर पल का साथी है मन पर फिर भी इसकी गहराइयों में क्या छिपा है कोई नहीं जानता. विचित्र हैं इसकी गतिविधियाँ, पर मन कितनी ही चालाकियां करे सूक्ष्म नजर से बच नहीं सकता. अपने ऊपर ऐसी ही कड़ी नजर रखनी होती है सत्य के साधक को...उसका मन दर्पण सा बने जिसमें सारी चालाकियां साफ झलकें और सारी सच्चाईयाँ भी !

परसों पूर्णिमा थी. कल से माघ का महीना आरम्भ हो गया. उसने आज मौन व्रत रखा है, फोन निकाल दिया है पर ध्यान कई बार उस ओर गया. कबीरदास ने ठीक ही कहा है कि माला तो कर में फिरे..आज सुबह सद्गुरु ने बताया कि मौन में मन भीतर केन्द्रित होता है, उर्जा एकत्र होती है जिसे कोई साधना में उपयोग में ला सकते हैं. ज्ञान जब व्यवहार में उतर जायेगा तभी वह ज्ञान है, वरना तो पुस्तकों में अनंत ज्ञान भरा पड़ा है, वहाँ से थोडा सा मन में भर भी लिया तो कोई हर्ज नहीं है. ज्ञान का पथिक बनना है तो स्वयं को हर क्षण कसौटी पर कसना होगा, थोड़ी सी बेखबरी भी नहीं चलेगी ! साधना के पथ पर चाहे आरम्भ में कितनी ही कठिनाइयाँ हों, अंत में अनंत सुख है, न भी हो उसे सुख की चाह भी नहीं है, परम सत्य को जानना है. सच्चाई को स्वयं अपनी आँखों से देखना है, अंतिम सत्य क्या है ? वे इस जगत में क्यों आये हैं, उनकी मंजिल क्या है ? गुरुओं के बताये मार्ग पर स्वयं चलकर देखना है, ईश्वर का साक्षत्कार करना है. तत्व ज्ञान पाना है. उस परम अनुभव को अपना बनाना है. यही उसका साध्य है. उसका पथ ज्ञान, भक्ति और कर्म का मिलाजुला हो सकता है. पथ से पल भर के लिए भी डिगना नहीं है. उसका यह सौभाग्य है कि कृष्ण के प्रति हृदय में भक्ति है, सद्गुरु के प्रति श्रद्धा है तथा हृदय में कोई ऐसी कामना नहीं है जिसके पूरे न होने पर उसे शोक हो. लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद, मत्सर से अभी पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ है मन..संस्कार बहुत गहरे हैं, पर ध्यान, जो वह नियमित करती है इसमें अवश्य सहायक सिद्ध होगा ! ईश्वर की शरण लिए बिना मुक्ति असम्भव है.  


Thursday, May 21, 2015

रीठा-आंवला-शिकाकाई


अभी कुछ देर पूर्व ध्यान करते समय उसे कृष्ण की झलक दिखी, कुछ क्षण के लिए ही मन के विचार थमे और एक मंजुल मूर्ति के दर्शन हुए पर वह कितना कम समय के लिए था, जैसे बादलों में बिजली चमके और छिप जाये ! आज सुबह सवेरे जून ने फोन किया, वे परसों यहाँ आयेंगे. आज भी बढ़ी हुई ठंड के कारण नन्हा अपने कमरे में ब्लोअर चला कर बैठा है और उसने जून का ऊनी हाउस कोट भी पहन रखा है. उसने भी हीटर जलाया है पर नैनी इतनी ठंड में बिना शिकायत किये ठंडे पानी से सारा काम करती है, उसने ठंड पर विजय पा ली है. उसके मुँह का जायका कुछ ठीक नहीं लग रहा, अभी मेडिकल गाइड पढ़कर देखेगी. जून की भेजी मिठाई बहुत स्वादिष्ट है शायद उसका असर हो अथवा तो लाल मिर्च पाउडर जो उस दिन नन्हा कोपरेटिव से लाया है. आज उसने रीता-आंवला-शिकाकाई से बाल धोए. जनवरी भी आधा बीत गया, नया वर्ष आया और तेज रफ्तार से चल रहा है. अगले महीने नन्हे की परीक्षाएं हैं फिर नई कक्षा और बोर्ड की तैयारी. सुबह ‘क्रिया’ की तो तन कितना हल्का लगने लगा था. सद्गुरु के प्रति मन कृतज्ञता के भावों से भर जाता है. कृष्ण की गीता पढ़ी, ज्ञान, भक्ति, कर्म योग की कितनी अद्भुत व्याख्या की है. जो मार्ग भाये उसी पर चलकर उस तक पहुंचा जा सकता है. निष्काम भाव से, ज्ञान को हृदय में धारण करते हुए भक्तिमय कर्म करना ही उसका ध्येय है. उसका जो भी कर्म हो, सभी कुछ अर्थमय हो, सत्य पर आधारित हो और निस्वार्थ भाव से किया गया हो, उसमें लोकमंगल की भावना छिपी हो अथवा तो व नित्यकर्म हो, शरीर का धर्म हो.

आज बाबाजी ने बड़े मजे की बात सुनायी. “सौ की कर दो साठ, आधा कर दो काट, दस देंगे, दस छुडायेंगे, दस को जोड़ेंगे हाथ !” अर्थात यदि सौ विकार हैं तो चालीस आसानी से दूर किये जा सकते हैं, फिर साठ के आधे दूर करने में थोडा सा श्रम और लगेगा, बचे तीस, दस परमात्मा को अर्पण कर देंगे,  उन्हें दे देंगे, दस को अधिक श्रम से दूर करेंगे और दस के सामने हाथ जोड़ देंगे. उसे लगता है, भावना यदि पवित्र होगी तो छोटा सा कार्य भी भक्ति में बदल जायेगा. हृदय में एक ही अवस्था रह सकती है, जब सुख है तो दुःख रहेगा ही नहीं ! कृष्ण की मंद-मंद मुस्कान को सदा याद रखते हुए मन को मधुर भाव से पूरित करना होगा. उसकी कृपा हो और अपना प्रयास तो मंजिल मिलने में देर नहीं लगती. जब कोई कृतघ्न होकर उसे भुला बैठता है तभी अंतर में विषाद का प्रवेश होता है. जहाँ उसका नाम है वहाँ दुःख टिकेगा कैसे, जब खाली होता है मन तो वह धीरे से आता है, उसकी झलक ही आनंद से पूर्ण करती है, वह अनुभव कैसा होगा जब...क्या इस जन्म में उसे वह अनुभव होगा जब पूर्ण साक्षात्कार होगा ! सद्गुरु और कृष्ण की कृपा रही तो अवश्य ही मिलेगा !

एयरपोर्ट से जून का फोन आया, कोहरा घना है शायद फ्लाईट देर से उड़ेगी. जून आज दस दिनों के बाद घर आ रहे हैं, मन बहुत उत्साहित है. इतने दिनों व रातों को उन्हें समय पर भोजन व नींद आदि का न मिल पाना स्वाभाविक ही है. सर्दी की वजह से परेशानी भी हुई होगी पर यात्रा का अपना एक अलग रोमांच है और परिवर्तन भी तो मन पसंद करता है, फिर भी घर आकर उन्हें सुकून मिलेगा. यहाँ आज धूप के दर्शन सुबह ही हो गये थे. परसों से उसने ‘लियो टालस्टाय’ की एक पुस्तक पढ़नी शुरू की है. सुबह भगवद्गीता का पाठ सुना, चित्त को राग-द्वेष ही मैला करते हैं, जो सभी जगह उसी को देखता है, उसका चित्त निर्मल रहेगा. मन में कोई दौड़ बाकि न रहे, विचारों का अनवरत चलता प्रवाह रुक जाये अथवा तो साक्षी भाव से उसे देखना सीखे, उससे जुड़े नहीं, मकड़ी की तरह अपने ही बनाये जल में स्वयं न फंसे..जल में कमल की भांति उपर रहे..मुक्त..निस्सीम और ज्ञान में स्थित !


लोहड़ी के गीत


दस बजे हैं सुबह के, अभी कुछ देर पूर्व ही ‘क्रिया’ की. सुबह अलार्म सुना तो था, पर ठंड के कारण और रात को सोने में देर हो जाती है, इस वजह से अथवा तो प्रमाद के कारण फौरन बिस्तर नहीं छोड़ा, फिर नन्हे को स्कूल भेजने के कार्य में व्यस्त हो गयी. नैनी, स्वीपर के जाने के बाद ही बैठी, महाभारत व भगवद् गीता का पाठ करने के बाद. सुबह जून से बात की. वह परसों पिताजी से मिलने जा रहे हैं. आज यहाँ ठंड बहुत ज्यादा है, कोहरा और बादल दोनों ही हैं, अभी तक धूप नहीं निकली है. सुबह सत्संग भी नहीं सुना, कुछ देर स्वयं का ही भागवद पाठ सुना. कृष्ण की कथा का अमृत है भागवद्, जिसे पढ़कर उसके हृदय में कृष्ण के लिए अथाह प्रेम उमड़ा था. वह इतनी प्यारी बातें कहते हैं अपने ग्वाल-बाल मित्रों से, गोपियों से, सखा उद्धव से और मित्र अर्जुन से कि बरबस उन पर प्यार आता है. वह सभी को निस्वार्थ प्रेम करते हैं, बिना किसी प्रतिदान की आशा के, एकान्तिक प्रेम और जो उन्हें प्रेम करता है उसे वह अभयदान देते हैं, वह उनके निकट आकर निर्भय हो जाता है. ध्यान में उसे उनके क्षणिक दर्शन होते हैं, क्योंकि उसका ध्यान टिकता नहीं है.. पर ऐसा होगा एक दिन अवश्य कि साक्षात वह उसे मिलेंगे. वह उसकी हर बात जानते हैं. उसकी सारी छोटी-बड़ी इच्छाएं उनपर उजागर हैं. उसकी सारी कमियों के वह साक्षी हैं. उसका प्रमाद व लापरवाही भी उनसे छुपी नहीं है और उसका प्रेम भी..वह तो प्रकट होने को आतुर हैं, वे ही ऐसे अभागे हैं कि मन को इतर विषयों से मुक्त नहीं कर पाते, मन में संसार प्रवेश किया रहे तो उसे बिठाये कहाँ ? मन की ही चलती है ज्यादातर, वे जो वास्तव में हैं पीछे ही कहीं छिपे रह जाते हैं. जैसे कोई अपने ही घर में सबसे कोने में दुबका रहे और घर पर पड़ोसी कब्जा कर लें, वही हालत उनकी है. दुनिया भर की फिक्रें वे करते हैं बिना किसी जरूरत के पर जो वास्तव में उन्हें करना चाहिए उसके लिए समय नहीं निकाल पाते. आत्मा में रहकर ही विशुद्ध प्रेम का अनुभव होता है. आज नन्हे की किताब में तीन कार्ड देखे जो उसके क्लास की लडकियों ने दिए थे, यह भी एक तरह का प्रेम है !

आज लोहड़ी है, स्नान करते समय बचपन में लोहड़ी पर गाए जाने वाले गीत याद आ रहे थे. एक सखी ने फोन करके मुबारकबाद दी. जून को अभी-अभी फोन किया, वह घर पहुंच गये हैं, चाय पी रहे थे. उन्होंने मिठाई भिजवाई है, अभी उस दिन उनका भिजवाया गया सामान ऐसे ही पड़ा है, उनके बिना खाने का नन्हा और उसका दोनों का ही मन नहीं करता. आज नन्हे का स्कूल बंद है, देर से उठे वे. नौ बजे थे, वह ‘क्रिया’ कर रही थी कि एक परिचिता मिलने आयीं, नन्हे ने कह दिया, माँ नहा रही हैं, यह भी एक तरह का मानसिक स्नान ही तो है. जैसे दिन भर में देह व वस्त्रों पर धूल जम जाती है, वैसे ही मन पर भी विकारों की मैल चढ़ जाती है, जिसे हर सुबह वे क्रिया के माध्यम से स्वच्छ करते हैं. स्वाध्याय के माध्यम से भी उसे सुंदर बनाते हैं जैसे वह मन पर लगाने वाले क्रीम, लोशन आदि है.

ठंड आज भी बहुत है, नन्हा ऐसी ठंड में साइकिल से कोचिंग के लिए गया है. वह यहाँ हीटर के पास बैठी है. जून अभी घर पर हैं, सुबह उनसे बात हुई. उन्होंने पिता और भाई की तरफ से उसके लिए कोट खरीदा है, नन्हे के लिए भी स्वेटर खरीदे हैं. पहले ही वह सामान भिजवा चुके हैं. वे कितना भी सोचें कि अब उन्हें और कुछ नहीं चाहिए, पर जब भी नया कुछ मिलता है तो उसे लेते समय झिझकते नहीं और कर्मों के बोझ सिर पर चढाये ही जाते हैं. दुनिया ऐसे ही चलती है और ऐसे ही वे बार-बार जन्म लेते रिश्ते बनाते व निभाते चले आते हैं. ज्ञान होता भी है तो थोड़े से सुख के लिए उसे अपनी सुविधानुसार मोड़ लेते हैं. जीवन ऐसे ही चलता चला जाता है. आज ध्यान करते-करते और गीता पाठ करते समय भी कृष्ण की बातें जैसे मन को भीतर तक छूना चाहती थीं पर मन तो फोन पर की बातों में उलझा था, मन टिकता नहीं एक जगह, जब वे उसे प्रलोभन का शिकार होने देते हैं. आज सद्गुरु ने बताया, जीवन जितना परमार्थ के लिए होगा, सामर्थ्य उतना ही बढ़ेगा, स्वकेंद्रित होकर वे अपनी ही हानि करते हैं, स्व का विस्तार करना होगा. गहराई से देखें तो वे सभी एक ही तत्व से बने हैं, एक ही तत्व की तरफ जा रहे हैं. सभी को एक उसी की तलाश है...

Tuesday, May 19, 2015

गुलाबी धूप



उसे लगता है, अन्तर्मुखी होकर जिसे भीतर पाया है, ऑंखें खोलकर उसे गंवा देती है. मौन रहकर जो शक्ति एकत्र होती है, बड़बोलेपन के एक झटके में वह बह जाती है. अपनी भाषा अपने मन पर नियन्त्रण कभी-कभी नहीं रहता, कभी क्रोध का भाव कुछ क्षणों के लिए हावी हो जाता है और कभी वाणी सुमधुर नहीं रहती, अपना होश नहीं रहता न, पर फौरन मन चपत लगाता है और वह सचेत हो जाती है पर तब तक हानि तो हो चुकी होती है. साधना के पथ पर चलना हो तो छोटी-मोटी इच्छाओं को तिलांजलि देनी ही पड़ती है बल्कि वे सहज रूप से स्वयं ही छूटती जाएँ तभी ठीक है. अभी-अभी जून का फोन आया. कल रात को साढ़े सात बजे वे गन्तव्य पर पहुंचे फिर पौने नौ बजे तक गेस्ट हाउस. रूम न. तथा फोन न. दिया है, वह कल से सुबह उन्हें फोन कर सकती है. आज सुबह की शुरुआत ठीक वैसे ही हुई जैसे जून के होने पर होती थी. मौसम आज भी मधुमय है, सर्दियों की गुलाबी धूप खिली है, नन्हा भी समय से उठकर स्कूल जा सका. उसकी ओर पहले से अधिक ध्यान देना है.

आज सुबह नींद अपने आप खुल गयी. नन्हा ट्यूशन गया तो बाहर अँधेरा था, ठंड भी बहुत थी. उसने सुबह के सभी आवश्यक कार्य किये, टिफिन बनाया पर बस स्टैंड तक जाकर वह लौट आया, आज ‘असम बंद’ है. किसने किया है, कितने समय का है कुछ पता नहीं है. जून से बात हुई, वहाँ भी धूप निकली है. कुछ देर पूर्व ससुराल से फोन आया, पिताजी ने कहा माँ कह रही थीं कि जून उन्हें भी फोन करें. आज सुबह जून ने भी उससे कहा, वह घर पर फोन करे. उसने किया तो वह अभी सो रही थीं. शायद वहाँ ठंड बहुत है. गुरूमाँ ने कहा जब तक कोई ध्यान में उतरकर अपने अकेलेपन से प्रेम करना नहीं सीखेगा, उसे बार-बार जन्मना पड़ेगा. मृत्यु के बाद और जन्म से पहले हरेक अकेला होता है अपने मन के साथ और उससे बचने के लिए ही जन्म लेता है. उसे तो उसका अकेलापन बेहद प्रिय है अर्थात वह मृत्यु के बाद भी प्रसन्न रहेगी. बाबाजी ने कहा, जीवन में सुख,शांति व समृद्धि सदा बनी रहे, ऐसी कामना को प्रश्रय देना भी मूर्खता है बल्कि होना यह चाहिए कि सदा वह मनसा, वाचा, कर्मणा सद्मार्ग पर स्थित रहे, सजग रहे. अपना हित अथवा अहित मात्र उसके हाथ में है. अपने सुख-दुःख, शांति-अशांति के लिए वह स्वयं ही जिम्मेदार है, बल्कि अपने सद्कर्मों से जो फल की आशा से न किये गये हों, वह पुराने कर्मों को काट भी सकती है. नया बीज तो बोना ही नहीं है, यही साधना है !

जगजीत सिंह की गजल नैनी का बेटा सुन रहा है, आवाज यहाँ तक आ रही है. उनकी आवाज में एक कशिश है जो अपनी ओर खींचती है. वह पीछे बरामदे में धूप में चटाई बिछाकर बैठी है, नन्हा स्कूल गया है. कल रात्रि उसे मैथ्स बताते-बताते सोने में देर हुई, सो सुबह भी सब काम देर से हुए. कल शाम जून का किसी के हाथ भेजा सामान मिला, अखरोट, रेवड़ी, बड़ी आदि.. शाम को सत्संग में गयी, माँ का भजन गाते-गाते सचमुच माँ की स्मृति हो आई और आँखें भर आयीं. भजन गाने में एक अनूठा ही आनंद है, पूरे मन से गाने का आनंद, सही-गलत की परवाह किये बिना ! आज सुबह से कई सखियों से फोन पर बात हुई, परसों शाम एक सखी आई, थी उसके पहले दिन एक और, सो दिन ठीक-ठाक बीत रहे हैं. वैसे भी जब अंतर्मन में कृष्ण का वास हो तो अकेलेपन की बात ही नहीं रहती, बल्कि कभी-कभी मन स्वयं ही परेशान हो जाता है दुनियादारी में ज्यादा व्यस्त रहने पर, उसे अपने प्रेम और भाव में डूबने का जब पर्याप्त समय नहीं मिलता. कृष्ण को स्मरण करने के लिए वैसे अलग से समय निकलने की भी जरूरत नहीं है. सुबह क्रिया में, फिर काम करते वक्त, भजन सुनने में, सत्संग सुनने में, व्यायाम करने व भोजन बनाने में वह हर वक्त उसके साथ ही रहता है, सिवाय तब जब पढ़ती या पढ़ाती है. उसके दौरान भी उसकी स्मृति रहती ही है, बल्कि उसके होने से ही वह है, बल्कि वही तो है...ये सारे प्राणी उसी का तो विस्तार हैं..सबमें उसी की तलाश है.



Monday, May 18, 2015

लॉन में पिकनिक


नववर्ष की सुबह भी सुहानी थी, दोपहर भी पर शाम होते-होते बादल छा गये और वर्षा शुरू हो गयी. उनकी पिकनिक समाप्त हो गयी थी, सब अपने-अपने घर चले गये थे. ऐसे ही एक दिन इस जगत से उन सभी को चले जाना है. दीदी का फोन आया, कल यानि वर्ष के अंतिम दिन चाचाजी का उठाला भी इस संसार से हो गया. नये वर्ष की शुभकामना का फोन और कहीं से नहीं आया. ससुराल से अवश्य सुबह जब वे सो रहे थे पिताजी ने फोन किया था. नन्हे का स्कूल कल खुल रहा है, आज उसने पहली बार शेव की, जून ने उसकी सहायता की. आजकल नूना ने भी उसे गणित पढ़ाने में सहायता करना शुरू किया है. अच्छा लगता है अपना विषय पढ़ना. सुबह वे लगभग साढ़े पांच बजे उठे, ‘क्रिया’ आदि करके सात बजे सुबह की चाय ली. ग्यारह बजे से पिकनिक की तैयारी शुरू की जो उनके लॉन में ही होने वाली थी. शाम होने से पहले साढ़े तीन बजे सभी वापस गये और उन्होंने थोड़ा आराम किया. सुबह गुरूजी ने कहा था कि राम विश्राम में ही है, काम में नहीं. सो नींद की जगह उसने शवासन किया. देह में उठने वाली छोटी से छोटी संवेदना को भी महसूस करना एक सुखद अनुभव है. प्राण को विचरते हुए भी देखा जा सकता है और सुबह-सुबह स्टील के गिलास में पानी पीते समय उसके किनारों को कई परतों में बंटे देखा और उस पर प्रकाश के सातों रंगों की चमक भी एक अच्छा अनुभव है. त्राटक में फर्श की अथवा दीवार की सतह का आकर्षक रूप धरना, प्रकाश के एक बिंदु का विस्तृत होते जाना और कानों में एक मधुर ध्वनि का निरंतर गुंजन...ये सरे अनुभव उसे इस जगत में होते हुए भी इस जगत से परे रखते हैं. स्नानघर में वस्त्रों से भरे टब का हिलना तथा आँखें बंद करके भी टीवी स्क्रीन का दिखाई देना भी सुखद अनुभव हैं. यह जगत उन्हें जैसा दिखाई देता है वैसा ही नहीं भी हो सकता. यह उनकी नजर पर ही निर्भर करता है, उनका मन ही इस जगत की उत्पत्ति का कारण है !
आज उसने नैनी के बेटे पर ट्रांजिस्टर तेज बजाने के लिए क्रोध किया, क्रोध करते समय या पहले इसका भान ही नहीं था, बाद में इसकी व्यर्थता का अनुभव हुआ, उसे यही बात धीरे से भी कही जा सकती थी. स्वीपर समय पर नहीं आया तो सेनिटेशन दफ्तर में फोन किया, धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने के बजाय आधा घंटा बाद पुनः फोन कर दिया, अर्थात उस पूरे समय मन में वही बात घूम रही थी. साधक के लिए जरूरी है कि मन को खाली रखे. धर्म को धारण करना होगा, इस जगत के सागर को पार करने के लिए तैरना सीखना पड़ेगा. स्वयं में परिवर्तन लाना है और स्वयं में आया सुधार ही आस-पास के वातावरण को शुद्ध करेगा. सद्गुरु कहते हैं जीवन को उत्सव बनाना है. समर्पण जब जीवन की रीत बनती है तभी ऐसा सम्भव है.
अज सुबह ‘क्रिया’ के बाद अनोखा अनुभव हुआ, सम्भवतः योग वशिष्ठ में पढ़े हुए वचनों का असर हो पर ऐसा लगा जैसे समस्त ब्रह्मांड उसके सम्मुख है, घूम रहा है और वह उससे पृथक है परमपद को प्राप्त ! मन तब से फूल सा खिला है. वास्तविक जीवन भी यही है जब कोई भीतर के आनंद को पाले, बाहरी किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति का मोहताज न रहे. आज उनके विवाह की वर्षगाँठ है, जून ने कहा, नूना का कार्ड तो वही है और उसने कहा जब स्वयं को ही दे दिया तो उपहार में और क्या दे ? जून और वह गुरुकृपा से से ही इस प्रेम को पा सके हैं जो वस्तुओं का अथवा सामीप्य का भी मोहताज नहीं है. जून दोपहर को दिल्ली जा रहे हैं. वे प्रेम में हैं उसी तरह जैसे विवाह से पहले थे. ईश्वर को पा लेने के बाद हृदय से यूँ ही प्रेम छलकता है, और जून भी अब प्रभु की ओर कदम बढ़ा चुके हैं. आज सुबह पिताजी का फोन आया, फिर फूफाजी, बुआ जी का भी. सभी सखियों के भी फोन आ चुके हैं. कल रात छोटी बहन का फोन आया, वह थोड़ी सी उदास थी, ईश्वर से उसके लिए भी प्रार्थना है ! मौसम आज भी खुशनुमा है. सुबह नन्हे ने भी शुभकामना दी और उससे भी पूर्व कान्हा ने भी...वह प्रेममय ईश्वर सदा उनके साथ है, हर क्षण वह उनके निकटतम है...सब कुछ वही तो है !  


फ्लोटिंग कैंडल्स




आज सुबह वह उठी तो रात देखे दो स्वप्नों की स्मृति मन पर छायी थी, एक में माँ को मृत्यु शैया पर देखा, उनका बदन गुलाबी हो चुका है, तलवे तथा हथेलियाँ तो लाल ही हैं. डाक्टर ने जवाब दे दिया है और उनके देखते-देखते वह उन्हें चेताते हुए दम तोड़ देती हैं. वह कुछ देर स्वप्न  में रोई पर शीघ्र ही नींद खुल गयी और भान हो गया. दूसरे स्वप्न में वे एक यात्रा में हैं ट्रेन की खिड़की से एक विषैला सर्प अंदर आ जाता है वह उसका फन पकड़ कर उसे मारने में सफल होती है, सभी डर रहे थे, यह स्वप्न सम्भवतः उस द्वंद्व के कारण था जिसे लेकर वह रात को सोयी थी. दिन में उन्होंने ‘कांटे’ फिल्म देखी, बहुत अच्छी तो नहीं लगी पर कुछ का अभिनय अच्छा था. नन्हा दिगबोई में है. कल क्लब में मीटिंग थी, उसने नये वर्ष की शुभकामनाओं वाली कविता पढ़ी, एक सदस्या ने ‘फ्लोटिंग कैंडल्स’ बनाना सिखाया. वापस आई तो एक मित्र परिवार मिलने आया हुआ था, उसने चिवड़ा-मटर बनाया, नमक कुछ अधिक हो गया. आज सभी संबंधियों को उन्होंने नये वर्ष के कार्ड भी भेज दिए.

कल रात्रि वे सोये ही थे कि बड़े भैया का फोन आया, दोपहर तीन बजे चाचाजी का देहांत हो गया. आत्मा ने अशक्त देह को त्याग दिया. मंगलवार को चौथा है, इतनी दूर से वह ईश्वर से उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना ही कर सकती है. जून नन्हे को लाने दिगबोई गये हैं. उसके स्कूल की प्रदर्शनी तीन दिनों तक चलने वाली है, यह बात उन्हें पहले पता ही नहीं थी. मित्र के घर रहना उसे अच्छा लग रहा है, यह बात उसने फोन पर दो-तीन बार बतायी. कल मौसम बेहद ठंडा था, वर्षा हो रही थी, आज धूप खिली है. कल वे बहुत दिनों बाद लाइब्रेरी भी गये, Don Moraes की पुस्तक Indian Journeys लायी है, अवश्य ही यह पुस्तक रोचक होगी. कल सुबह पिताजी से बात हुई, वह चाचाजी के यहाँ जाने वाले थे. छोटे चचेरे भाई के बारे में बड़ी भाभी ने जो बताया काश वह सच न हो. उसे नशे की आदत पड़ गयी है ऐसा उन्होंने कहा, जो बेहद दुखद समाचार है.

वर्ष का अंतिम दिन, धूप खिली है, फूल मुस्का रहे हैं जैसे वे सदा ही करते हैं. वह इन सर्दियों में पहली बार बाहर लॉन में बैठकर लिख रही है, इसकी प्रेरणा एक सखी से मिली जिसने कहा कि कल नये वर्ष के पहले दिन की पिकनिक उनके लॉन में मनाते हैं प्रकृति के सान्निध्य में. नन्हे की छुट्टियाँ चल रही हैं. इस पूरे वर्ष का लेखा-जोखा करें तो उन्हें यह ज्ञान के पथ पर ले जाने वाला वर्ष रहा है. ईश्वर की निकटता का अनुभव हुआ है और कई अच्छी पुस्तकें भी पढ़ीं. नन्हे का हाई स्कल का रिजल्ट आया, जून का प्रोजेक्ट शुरू हुआ, उसने संगीत की पहली परीक्षा दी. आने वाला वर्ष भी उन्हें ज्ञान के मार्ग पर दृढ़ करे. ईश्वर को वे अपना बनाये रखें. परहित की भावना प्रबल हो, विकारों से मुक्त हों, स्वार्थी न बनें, अपने कर्त्तव्यों को निबाहें और ध्यान से वर्तमान  में रहें. तभी नूतनवर्ष उन सभी के लिए मंगलमय होगा. गुलाब के सुंदर फूलों की तरह उनकी सुवास ही सबको मिले, वाणी शुभ हो. मनसा, वाचा, कर्मणा वे कभी भी डिगे नहीं, चूके नहीं, कृष्ण को अपना मीत बनाया है यह एक पल को भी न भूलें तभी होगा जून , नन्हा और उसके लिए नया वर्ष मंगलमय...विदा जाते हुए वर्ष और स्वागत नये वर्ष.

Friday, May 15, 2015

लोकल बस का सफर


आज फलाहार का दिन है, मन में शांति का अनुभव हो रहा है और तन भी हल्का है. सद्गुरु को कल भी सुना था, मन आनंद से छलक उठा और सारा दिन जैसे एक सुखद स्वप्न की तरह बीता. आज भी सुबह उनकी बातें सुनीं, सीधी सच्ची बातें जैसे वे लोग करते हैं आपस में और उनके शिष्य दिल खोलकर हँस रहे थे. मन को जैसे भीतर तक साफ करके लौटती हैं उनकी बातें. वे सहज हैं जैसे काश वे भी सदा वैसे ही सहज रह पायें. वे भूल जाते हैं और  और व्यर्थ के चिंतन में मानसिक ऊर्जा को व्यय कर बैठते हैं. सद्गुरु ऐसे में झकझोर कर जगाते हैं. उनमें अग्नि की भांति पवित्रता, धरती की भांति सहिष्णुता, गगन की तरह विशालता, वायु की भांति सूक्ष्मता, और जल की भांति शीतलता हो तो वे ईश्वर की निकटता का अनुभव कर सकते हैं. उसके प्रेम का अनुभव तो वे हर पल करते हैं. हर श्वास जो ग्रहण करते हैं उसी का प्रसाद है और श्वास जो वे छोड़ते हैं उसके प्रति उनकी कृतज्ञता है. प्रकाश जो उनकी आँख में है उसी की देन है. पंच तत्वों से देह बनी है, चेतना भी उसी का अंश है.

आज उसने सुना, जिसे अपने पता नहीं है उसे ही अभिमान, ममता, लोभ सताते हैं. मन का यह नाटक तब तक चलता रहता है जब तक वे अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं जानते. खुद को जानना ही जीने की कला है. वे स्वयं के कण-कण से परिचित हों, मन और तन में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों के प्रति सजग रहें. कब कौन सा विकार मन में उठ रहा है इसके प्रति तो विशेष सजग रहें. आधि, व्याधि और उपाधि के रोग से वे सभी ग्रसित हैं, जो क्रमशः मन, तन और धन के रोग हैं, इनका इलाज समाधि है. समाधि में मन यदि समाहित रहे तो कोई दुःख नहीं बचता. क्रोधित होते हुए भी भीतर कुछ ऐसा बचा रहता है, जिसे क्रोध छू भी नहीं पाता, भीतर एक ठोस आधार मिल जाता है, चट्टान की तरह दृढ़. उन्हें कोई भयभीत नहीं कर सकता न किसी को उनसे भयभीत होने की आवश्यकता रहती है. जीवन तभी शुरू होता है. अपने भीतर उस परमात्मा की उपस्थिति को महसूस करते ही सारे अज्ञान और अविद्या से पर्दा हट जाता है. तब देह की उपयोगिता इस आत्मा को धारण करने हेतु ही नजर आती है, सुख पाने हेतु नहीं ! मन सात्विक भावों को प्रश्रय देने का स्थल बन जाता है विकारों की आश्रय स्थली नहीं. तन के रोग हों या मन की पीड़ा अभी का अंत उसका आश्रय लेने पर हो जाता है. सद्गुरु के बिना यह ज्ञान नहीं मिलता, वे उनके सच्चे स्वरूप के दर्शन कराते हैं, उसके बाद तो वह सांवला सलोना स्वयं ही आकर हाथ थाम लेता है, उसको एक बार अपने मान लें तो फिर वह स्वयं से अलग होने नहीं देता !

आज नन्हा दिगबोई गया था, लोकल बस से और वापस भी उसी से आया. साथ में आया उसका एक मित्र, वही जिसकी बहन की शादी का सीडी उसने कल देखा था. दोनों मित्र अच्छी तरह से रह रहे हैं, कल सुबह वापस जायेंगे, एक दिन नन्हे को भी वहाँ रहना होगा. सुबह दीदी को फोन किया, चाचीजी का नम्बर चाहिए था, चाचीजी व बुआजी दोनों से बात हुई. चाचाजी के पैर का घाव ठीक नहीं हो रहा है. ईश्वर की दुनिया में न्याय है. अपराधी यदि दुनिया के कानून से बच भी जाये तो भी उसके कानून से नहीं बच सकता. उन्हें हर क्षण सजग रहना होगा. कायिक, मानसिक, वाचिक किसी भी तरह का अपराध उनसे न हो, न किसी अन्य के प्रति न स्वयं के प्रति. सभी में उसी का वास है. जो पीड़ा में हैं उनके प्रति हृदयों में करुणा का भाव जगे, दूसरों को वे उसी प्रकार माफ़ करें जैसे ईश्वर उन्हें करता है. वह उनके हजार अपराध माफ़ करता है फिर भी वे चेतते नहीं हैं. ज्ञान ही मुक्ति का उपाय है, ज्ञान ही भक्ति का प्रेरक है.    


Thursday, May 14, 2015

रेत के महल


“नित्य-अनित्य, पुण्य-पाप का भेद जानना ही विवेक है, आसक्ति मिटाना वैराग्य है. तृष्णा ही दरिद्रता है, जब तृष्णा न हो, मन में समृद्धि हो, वही वैराग्य है. जब विवेक और वैराग्य सध जाये और साधना का सहयोग भी मिले तभी भक्ति का उदय होता है.” सद्गुरु के वचन उसके हृदय को शीतलता से भर देते हैं. कैसी अद्भुत शांति का अनुभव होता है, उनके वचन सुनने से जैसे तृप्ति नहीं होती, पर मन में कहीं गहरे संतुष्टि भरती जाती है. मन उसी तृप्ति को चाहने लगता है. तब इस जगत की बातें बहुत छोटी महत्वहीन लगने लगती हैं. यह माया जाल अपने पुर्जे खोल कर रख देता है. तब कहीं भी मन टिकता नहीं, सिवाय उसके. यह पल-पल बदलता संसार और रेत के महलों से इन्सान के स्वप्न ढहते नजर आते हैं. सब छलावा ही लगता है, सच्चा सिर्फ वही एक लगता है. सारे संबंधों के पीछे टिके स्वार्थ स्पष्ट दीखते हैं. इस जगत की सीमाएं भी दिखती हैं, देह की सीमाएं, रिश्तों की सीमाएं और मनों की सीमाएं. मन जो पल-पल रूप बदलते हैं, जो निश्छल नहीं रह पाते, जो कभी असत्य का सहारा भी ले लेते हैं और कभी सत्य से न डिगने का प्रण लेते हैं, बुद्धि भी रूप बदल लेती है तो फिर कोई किसका भरोसा करे. एक उसी का जो इन सबसे परे है, सभी प्रकृति के गुणों के वशीभूत होकर कार्य कर रहे हैं. मन परवश है, मुक्त वही  है जिसने मुक्त की बाँह थामी है, अपने स्व को जाना है. निज का आनंद जिसने पा लिया वह क्यों जायेगा जगत से आनंद का प्रसाद पाने, वह तो अपने आनंद को लुटाने का ही कार्य करेगा न. सद्गुरु ने उसके भीतर आनंद के जिस स्रोत का पता बताया है, वह अनंत है !

पिछले दो-दिनों से उसका मन संशय ग्रस्त है. संसार उसे अपनी ओर खींच रहा है और ईश्वर की भक्ति अपनी ओर. ऐसा विरोधाभास पहले तो प्रतीत नहीं हो रहा था. हृदय में जैसे कोई कुहरा छा गया है और यह कुहरा दम्भ का हो सकता है. कथनी और करनी में अंतर जितना अधिक होगा, दम्भ का कुहरा उतना घना होगा. मन पर कोई घटना कितनी देर तक प्रभाव डालती रहती है, इससे भी उसके घने होने का सबूत मिलता है. ऐसे में कोई उसकी सहायता कर सकता है तो वह है कृष्ण का प्रेम. उसे अपने स्वभाव में स्थित रहना होगा पूरी निष्ठा के साथ और दिखावे की आडम्बर की कोई आवश्यकता ही नहीं हैं. अंतर का प्रेम अन्तर्यामी उठने से पूर्व ही स्वीकार लेते हैं. जीवन का लक्ष्य एक हो, रास्ता एक हो और मन में दृढ़ता हो, तभी मंजिल मिलेगी. अंतर के प्रेम का झरना सूखने न पाए, रिसता रहे बूंद-बूंद ही सही ताकि संवेदना भीगी-भीगी रहे, वाणी में रुक्षता न आए, न आँखों में परायापन, प्रेम सभी पर समान रूप से बरसे ! साधक के लिए करने योग्य एक ही कर्त्तव्य रह जाता है, वह है इस संसार को असत्य मानना अथवा स्वप्न  मानना. उसके शरणागत होकर उसके संसार में काम आने का प्रयत्न करना, जीवन का लक्ष्य हो ईश्वर, रास्ता हो समर्पण और कर्म हो सेवा तभी वह  मुक्त है !

उसे अपने अवगुणों पर नजर रखनी होगी, वे पनपें नहीं बल्कि जड़ को उखाड़ फेंकना है. सबसे अधिक तो वाणी का दोष है. ज्यादा बोलना हानिप्रद है. बल्कि ज्यादा सोचना भी क्योंकि बोलने और सोचने में ज्यादा अंतर नहीं है. मन के भीतर भी बोलना नहीं होना चाहिए. लोगों से मिलते वक्त भी स्मरण बना रहे, तभी याद रहेगा कितना बोलना है. ईश्वर तो दूर वह स्वयं को भी भुला देती है और परिस्थिति की गुलाम बनकर कुछ भी बोल देती है जिसका परिणाम कभी भी सुखद नहीं होता. दूसरा अवगुण है, समय का दुरूपयोग. जीवन सीमित है, इसका एक-एक क्षण कीमती है. जीवन मिला है जीवन के लक्ष्य को पाने के लिए, सुख-सुविधाएँ जुटाकर देह को आराम देने के लिए नहीं बल्कि नियमों का पालन कर तन, मन, व आत्मा को निर्मल बनाने के लिए. चित्त की शुद्धि ही उसके पाने का मार्ग खोलती है. वही साध्य है और वही साधना !


Monday, May 11, 2015

मौन का बल


वह पंचकोश नहीं है, पंच प्राण भी नहीं है, वह उस परमात्मा का अंश है, अभी प्रज्ञा उतनी निर्मल नहीं है जिसमें उस आत्मा का दर्शन सदा होता रहे, लेकिन यह शरीर छूटे इसके पूर्व इसका उपयोग परमात्म दर्शन के लिए कर लेना है. आज सद्गुरु ने मन्दाग्नि दूर करने का एक अच्छा उपाय बताया, वज्रासन में बैठकर, शस बाहर निकल कर पेट  आगे–पीछे करना है. आजकल जून भी सत्संग में रूचि लेने लगे हैं. ईश्वर के प्रति प्रेम ऐसे ही तो बढ़ता है. धीरे-धीरे कोई उनकी महिमा सुनता है, उनके बारे में पढ़ता है तो मन में और जानने की जिज्ञासा होती है. जो उन्हें प्रेम करता है उसे वह अपनी खबर स्वयं देते हैं. उन्होंने वचन दिया है की बुद्धि योग प्रदान करेंगे, उसे उन पर पूर्ण विश्वास है, स्वयं पर भी उन्ही के कारण भरोसा है. बरसों से जो आग धीरे-धीरे सुलग रही थी, गुरू के ज्ञान की चिंगारी से पूर्ण रूप से जल उठी है. अब तो अज्ञान समाप्त होना ही चाहिए, ईश्वर दर्शन होना ही चाहिए. इससे कम कुछ भी नहीं, मन स्थिर है, साक्षी भाव को दृढ़ करते जाना है. वह जितना कठिन है उतना ही सरल भी. उसका यह परम सौभाग्य है कि सुबह ही सत्संग मिलता है.

हर क्षण मन पर नजर रखनी होगी, मन ही बांधता है और मन ही मुक्त करता है. कृष्ण के चरणों में अंकुश का चिह्न है, ऐसा ही अंकुश मन के लिए चाहिए अर्थात भगवान के श्रीचरण ही उसके मन पर अंकुश लगा सकते हैं. अपने प्रयत्नों से वे हार जाते हैं और मन के बहकावे में आ जाते हैं. आज उपवास का दिन है अर्थात ईश्वर के निकट बैठने का दिन, आज सुबह दो मिनट के लिए ही सही उसने मन के कहने पर टीवी देखने की तृष्णा को बढ़ावा दिया, जबकि उस समय उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी. ऐसा भी नहीं है कि उससे विशेष हानि हुई हो पर बात नियन्त्रण की है. उन क्षणों में वह स्वयं को भुला बैठी थी. भक्ति का मार्ग एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, अन्यथा मंजिल एक मृगतृष्णा ही रह जाएगी.


अज सुबह अभी उसने बिछौना छोड़ा भी नहीं था, उठकर सुमिरन कर रही थी कि कृष्ण की छवि मन में कौंध गयी, अत्यंत सुंदर मोहक रूप कृष्ण का अपने आप दिखा. कल शाम से ही उसका मन शिकायती हो गया था कि अब दर्शन नहीं होता कि...और वह.. उसके मन की भावना को समझ कर भक्ति के मार्ग पर उसे पुनः दृढ़ करने के लिए आते हैं. कृतज्ञता से आखें भर आती हैं. आज क्रिया के दौरान बचपन की कुछ ऐसी यादें हो आयीं जो सुखद नहीं हैं, न जाने कैसे-कैसे रहस्य मन छिपाए रहता है संसार से, पर कृष्ण से कुछ भी छिपा नहीं है, वह अतीत भी जानते हैं और हर पल की खबर रखते हैं. उनके आश्रय में आने के बाद मन ठहरना सीखता है. वह ज्ञान देते हैं, निष्काम कर्म करना सिखाते हैं और प्रेम करना तो कोई उनसे सीखे. वह तब, जब सहायता की कोई उम्मीद नजर नहीं आती प्रेम भरे हाथों से थाम लेते हैं, सारा दुःख हर लेते हैं, हल्का कर देते हैं, ऐसे ईश्वर को त्याग कर इस मिथ्या संसार में जो मन लगाये वह मूर्ख ही होगा. परमात्मा ने कितनी मधुर स्मृतियाँ दी हैं पर उन्हें न याद कर कोई संसार के दुखों को रोता है. आज टीवी पर सद्गुरु को देखा, एडवांस कोर्स ले रहे थे, कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग जो सीधे गुरूजी से ही ज्ञान पा रहे थे. उन्होंने कहा प्रसन्न मौन में ही सच्ची भक्ति है, इधर-उधर की बातें न तो मन में भरनी हैं न भीतर का अपरिपक्व मन बाहर लाना है. वे कहते हैं, मौन में वाणी का बल है, मौन में ही मन का भी बल है अर्थात विचारों का, जब मन स्थिर होता है तब कोई जो चाहता है वही विचार मन में आता है, अन्यथा बिन बुलाये विचार शांति को भंग करते हैं. कृष्ण ही उसके सहायक हैं और गुरू की कृपा !    

गुलदाउदी के फूल


कल जून का प्रजेंटेशन था, सभी डायरेक्टर आये थे और सीएमडी भी. वह काफी दिनों से इस पर कार्य कर रहे थे. अच्छा रहा, पूरा दिन वहीं लग गया पर शाम को जब वह घर आये तो चेहरा सफलता की चमक से दमक रहा था. पिछले कई महीनों से वह अपनी टीम के साथ इस कार्य में व्यस्त थे. आज वह फील्ड गये हैं. उन्हें अपने कार्य में इस तरह लगे देखकर बहुत अच्छा लगता है. जबसे उन्होंने कोर्स किया है, जीवन नियमित हो गया है. तन-मन स्फूर्ति से भरा रहता है और अब वह सुबह-सुबह सत्संग भी सुनते हैं. कहीं गहरे छिपी भक्ति की भावना भी उभर रही है. वह पहले से शांत हो गये हैं. योग करने से मन को एकाग्र कर पाते हैं. सद्गुरु की उन सभी पर असीम कृपा है. उसे ध्यान में अब अधिक रूचि हो गयी है, ध्यान उसके लिए स्नान जैसा आवश्यक कार्य हो गया है. जिसमें आत्मा को स्नान कराते हैं ताकि जो भी धूल-धब्बे उस पर लग गये हैं वह धुलें और कबीर की तरह वह भी कह सके “ ...जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया” जीवन में जो कुछ भी मिलता जाये या छूटता जाये सहज भाव से उसे स्वीकार करते हुए अपने एकमात्र लक्ष्य की ओर बढना है. कृष्ण का हाथ थामा है, अब वही रास्ता दिखायेगा, वह अपना वचन भूल नहीं सकता ! आज इस समय ग्यारह बजे हैं, उसे अकेले ही भोजन करना है. जून के आने में अभी देर है. आज शाम को उन्होंने एक मित्र परिवार को भोजन के लिए बुलाया है.  

ठंड अब शुरू हुई है, दिसम्बर का मध्य आने वाला है. सुबह सवेरे एक परिचिता ने फोन करके कुछ फूल मांगे, थोड़ी देर के लिए मन संशय में पड़ गया, उसे फूल तोड़ना अच्छा नहीं लगता पर बाद में लगा यह भी तो मोह है, तत्क्षण कहा, वह ले सकती है, सम्भवतः वह आएगी अथवा उसके रवैये से यह समझेगी कि वह उसे देना नहीं चाहती, खैर अब जो होगा उसे देखना है, भूत को तो बदल नहीं सकते. शायद वह सजग नहीं थी, तभी मन मोहित हो गया, और चित्त में कुछ देर को विक्षोभ हुआ. फूल भी तो परमात्मा के हैं, सहज ही देने की प्रेरणा मन में जगे इसके लिए उसे स्वयं को भरपूर मानना होगा. ताकि भविष्य में दोनों हाथों से देने की कला विकसित हो. मनुष्य अपनी इच्छा से ही धनी या निर्धन बनता है.


आज क्रिया के उपरांत अद्भुत अनुभव हुआ, जैसे वह अनंत है, निस्सीम, भीतर के खजाने जैसे खुल रहे हैं. क्रिया करने से पूर्व सद्गुरु और कृष्ण से प्रार्थना की थी. सच्चे दिल से की प्रार्थना कभी व्यर्थ जा ही नहीं सकती, उसे तो पल-पल अपनी प्रार्थना का जवाब मिलता है. वह कृष्ण उसकी बात सुनता है बल्कि वह स्वयं को उसे जनाता है. घर में पिछले दो दिनों से सफाई, रंग-रोगन का कार्य चल रहा है. जून ने छुट्टी ली है दो दिनों की. नन्हा स्कूल गया है, कल उसकी पिकनिक अच्छी रही. पानी में सभी बच्चे बहुत देर तक रहे. कल रात काफी वर्षा हुई, गुलदाउदी के पौधे जो फूलों से भरे थे, पानी की बौछार से झुक गये थे, सुबह उन्हें ठीक किया तो ऐसा लग रहा था जैसे वे उसके स्पर्श को महसूस कर रहे हों. जीवन कितना अद्भुत है न, हर वस्तु में चेतना है, एक ही चेतना, सभी में स्पंदन है, वे वस्तुओं को उनके वास्तविक स्वरूप में देखें तो सभी कुछ कितना सुंदर है. एक नंग-धडंग काला-कलूटा बच्चा भी अपने भीतर वही चेतना छिपाए है, असीम सम्भावनाओं का भंडार.. उनके शरीर, मन, बुद्धि भले ही सीमा में बंधे हों, पर उनकी आत्मा यानि वे जो वास्तव में हैं, वह असीमित है, उसके सान्निध्य में वे भी असीम हैं, जीवन मुक्त, चिन्मय और शाश्वत !  

Thursday, May 7, 2015

ईसा की वाणी


ईसा ने जगत के लिए अपने प्रेम का प्रदर्शन स्वयं मरकर किया. वह कहना चाहते हैं कि यदि कोई उससे प्रेम करता है तो उसे भी मरना होगा, ध्यान में जो हर दिन मरता है वह आत्मा में जीता है. ईसा भी जी उठे थे इसका अर्थ उसे यही लगता है कि देह की सुख-सुविधाओं को ताक पर रखकर उसे परहित में लगाना है. देह जितना-जितना सधेगी आत्मा उतनी-उतनी जगेगी. ज्यादा सुख भी दुःख का कारण बन जाता है, सुविधा भोगी की आत्मा कभी जागृत नहीं होती. सेवा से ही जीवन का विकास होता है. जीवन में प्रमाद न हो, तंद्रा, निद्रा कम से कम हो, आलस्य न हो, इन्द्रियों की न सुने बल्कि उस चैतन्य की सुने जो भीतर निरंतर देख रहा है, साक्षी है, जो उन्हें चमकाना चाहता है ताकि वे अपना सच्चा स्वरूप देख सकें, जो अनंत है अविनाशी है. ईश्वर से प्रेम है यह सिर्फ होठों से नहीं जीवन से दिखाई पड़ना चाहिए. जीवन तो वैसा ही रहा जैसे पहले था तो सारा प्रेम मात्र मनोधर्म बन कर रह जायेगा !

अभी-अभी पिछले कुछ पन्नों पर लिखे अपने मन के विचार-भाव उसने पढ़े. एक और वर्ष खत्म होने को है. वर्ष के अंतिम माह का दूसरा दिन है. पिछले दो दिन व्यस्त रही, सो कुछ नहीं लिखा. आज भी सुबह ढेर सारे कपड़े प्रेस करने थे, और इस समय यानि दोपहर के एक बजे का कार्य भी तय था, फिर डायरी का ध्यान आया. अध्यात्मिक पथ पर ले जाने वाले अपने सद्गुरु की शिक्षाएं वह इसमें लिखती आ रही है. अपने अनुभव भी और अपने मन के भाव भी. अटूट सम्पत्ति जो इस पथ के राही को मिलती है वह है ज्ञान, धैर्य, संतोष और आनंद. सद्गुरु ने उन्हें आनंद और प्रेम से ओतप्रोत कर दिया है. हृदय न जाने किस लोक में रहता है कि भौतिक बातें अब किसी और ही दुनिया की लगती हैं. ईश्वर को कोई यदि अपने जीवन से जोड़ता है तो व्यर्थ के कार्य-कलाप अपने आप ही छूटते चले जाते हैं. सार को सम्भालने की आदत रहती है तब संसार छूटने लगता है. व्यर्थ का शब्द मुँह से निकले तो मन स्वयं को कचोटता है. कोई गलत कार्य न हो, किसी प्राणी की हिंसा न हो, ये सारी बातें मन सचेत होकर देखता है. आते-जाते, खाते-पीते वह मनमोहन याद आता रहता है, आता ही रहता है, उसे अर्पित करके भोजन किया जाता है, उससे इतनी निकटता का अनुभव होता है कि हर कार्य में उसे शामिल किया जाये ऐसे प्रेरणा होती है. संतों के प्रति कृतज्ञता, सम्मान की भावना और शास्त्रों के स्वाध्याय की प्रेरणा जगती है. ध्यान करना नहीं पड़ता होने लगता है. तन हल्का-हल्का सा रहता है, मन खिला-खिला से, वह कान्हा अगर किसी का मीत बनता है तो वह निर्भार होकर रहता है. उसके संकल्प अपने-आप ही पूर्ण होने लगते हैं, कहीं कोई अभाव नहीं रहता !      



Wednesday, May 6, 2015

अवतारों की कथाएं


आज सुबह सुबह बाइबिल की घटनाओं से जुड़ा एक स्वप्न देखा, वह प्रभु को पुकार रही है, जैसे प्रेरित पुकारते थे और वह सारे कष्टों को हर लेता है. कैसा अद्भुत आनंद है ईश्वर में जो निरंतर झरता ही रहता है. उसके कानों में एक झींगुर के गीत सी एक ध्वनि हमेशा गूँजती रहती है. कभी-कभी चिड़ियों के कूजने की आवाज भी और यह हर पल उसे उसकी याद दिलाती है. आज टीवी पर श्रीश्री को भी देखा, सुना. अवतारों की जो कथा उन्होंने उस दिन आरम्भ की थी, आज पूर्ण कर दी. राम अवतार में ईश्वर ने मर्यादा का पालन करना सिखाया तो कृष्ण अवतार में उत्सव मनाना. फिर बुद्ध अवतार में मौन रहकर प्रज्ञा की खोज. कल्कि अवतार यानि वर्तमान में रहते हुए हृदय से परायेपन की भावना का नाश करना. साधना के द्वारा जब हृदय में इतना प्रेम जग जाये कि कोई दूसरा लगे ही नहीं, सभी अपने ही लगें तो समझना चाहिए कि हृदय में कल्कि अवतार हुआ है. सारे अवतार मानव के भीतर भी होते हैं. उन्होंने कितने सरल शब्दों में बताया, कृष्ण संतों के हृदय रूपी नवनीत को चुराते हैं. बाबाजी ने आज बहुत हँसाया, वह इतनी अच्छी राजस्थानी भाषा बोलते हैं. मस्ती से छलकती हुई उनकी वाणी सुनकर ईश्वर की निकटता का अहसास होता है. देहभाव से मुक्त कर वह आत्मभाव में स्थित कर देते हैं. संतों के गुणों का बखान नहीं किया जा सकता, वे सोये हुए ज्ञान को जागृत करते हैं, सत्संग प्रदान करते हैं, जो बहुमूल्य है !

आज भी सद्गुरु के वचन सुने. मन जो इधर-उधर बिखरा हुआ है उसे युक्तिपूर्वक हटाकर एक केंद्र पर लाना ही ध्यान है. ईश्वर की कृपा सहज, स्वाभाविक रूप से सदा प्राप्त होती ही रहती है जैसे सूरज की धूप, तो उसके लिए मन को सहज रूप से ध्यान में लगाना है. इसमें कोई जोर जबरदस्ती नहीं चलती. मन वर्तमान में रहे तो यह अपने आप होता है. आज का वर्तमान ही कल का भूत बनने वाला है और भविष्य तो वर्तमान पर निर्भर है ही. भक्ति पूजा, आराधना और समर्पण सहज कार्य हो जाएँ तो समझना चाहिए की ज्ञान फलित हो रहा है. मन में क्या चल रहा है इस पर नजर रखना भी सहज होना चाहिए.  

आज साधना के तीसरे और चौथे सोपानों – षट सम्पत्ति तथा मुमुक्षत्व के बारे में सुना. मन बेचैन न हो प्रसन्न रहे तो शम की सम्पत्ति पास है. दम अर्थात इन्द्रियों का निग्रह. कुछ मनचाहा हो या अनचाहा, उसे सहन करने की क्षमता का नाम ही श्रद्धा है. ज्ञान को पाने की इच्छा, पाने की सम्भावना ही श्रद्धा है. देह से दिन-रात तरंगें उठती रहती हैं. यह समता में हों तो समाधान है. तरंगे ग्रहण भी की जाती हैं, यह आदान-प्रदान समता में हो तो तृप्ति का अनुभव होता है. किसी भी कार्य में खुश रहने की क्षमता ही उपरति है. उपरति होने से कोई संवेदनशील होता है. वह समष्टि का प्रिय है, और यह समष्टि चाहती है कि वह प्रसन्न रहे. जीवन का अंतिम ध्येय क्या है, इसे जानना ही, जानने की इच्छा ही मुमुक्षत्व है. जब सब कुछ बंधन लगता है, तभी मुक्ति की चाह होती है. आजादी की प्यास ही मुमुक्षत्व है. पूर्ण तृप्ति की प्यास ही मुमुक्षत्व है. नित्य की तृप्ति अनित्य से कैसे हो सकती है !