Thursday, May 7, 2015

ईसा की वाणी


ईसा ने जगत के लिए अपने प्रेम का प्रदर्शन स्वयं मरकर किया. वह कहना चाहते हैं कि यदि कोई उससे प्रेम करता है तो उसे भी मरना होगा, ध्यान में जो हर दिन मरता है वह आत्मा में जीता है. ईसा भी जी उठे थे इसका अर्थ उसे यही लगता है कि देह की सुख-सुविधाओं को ताक पर रखकर उसे परहित में लगाना है. देह जितना-जितना सधेगी आत्मा उतनी-उतनी जगेगी. ज्यादा सुख भी दुःख का कारण बन जाता है, सुविधा भोगी की आत्मा कभी जागृत नहीं होती. सेवा से ही जीवन का विकास होता है. जीवन में प्रमाद न हो, तंद्रा, निद्रा कम से कम हो, आलस्य न हो, इन्द्रियों की न सुने बल्कि उस चैतन्य की सुने जो भीतर निरंतर देख रहा है, साक्षी है, जो उन्हें चमकाना चाहता है ताकि वे अपना सच्चा स्वरूप देख सकें, जो अनंत है अविनाशी है. ईश्वर से प्रेम है यह सिर्फ होठों से नहीं जीवन से दिखाई पड़ना चाहिए. जीवन तो वैसा ही रहा जैसे पहले था तो सारा प्रेम मात्र मनोधर्म बन कर रह जायेगा !

अभी-अभी पिछले कुछ पन्नों पर लिखे अपने मन के विचार-भाव उसने पढ़े. एक और वर्ष खत्म होने को है. वर्ष के अंतिम माह का दूसरा दिन है. पिछले दो दिन व्यस्त रही, सो कुछ नहीं लिखा. आज भी सुबह ढेर सारे कपड़े प्रेस करने थे, और इस समय यानि दोपहर के एक बजे का कार्य भी तय था, फिर डायरी का ध्यान आया. अध्यात्मिक पथ पर ले जाने वाले अपने सद्गुरु की शिक्षाएं वह इसमें लिखती आ रही है. अपने अनुभव भी और अपने मन के भाव भी. अटूट सम्पत्ति जो इस पथ के राही को मिलती है वह है ज्ञान, धैर्य, संतोष और आनंद. सद्गुरु ने उन्हें आनंद और प्रेम से ओतप्रोत कर दिया है. हृदय न जाने किस लोक में रहता है कि भौतिक बातें अब किसी और ही दुनिया की लगती हैं. ईश्वर को कोई यदि अपने जीवन से जोड़ता है तो व्यर्थ के कार्य-कलाप अपने आप ही छूटते चले जाते हैं. सार को सम्भालने की आदत रहती है तब संसार छूटने लगता है. व्यर्थ का शब्द मुँह से निकले तो मन स्वयं को कचोटता है. कोई गलत कार्य न हो, किसी प्राणी की हिंसा न हो, ये सारी बातें मन सचेत होकर देखता है. आते-जाते, खाते-पीते वह मनमोहन याद आता रहता है, आता ही रहता है, उसे अर्पित करके भोजन किया जाता है, उससे इतनी निकटता का अनुभव होता है कि हर कार्य में उसे शामिल किया जाये ऐसे प्रेरणा होती है. संतों के प्रति कृतज्ञता, सम्मान की भावना और शास्त्रों के स्वाध्याय की प्रेरणा जगती है. ध्यान करना नहीं पड़ता होने लगता है. तन हल्का-हल्का सा रहता है, मन खिला-खिला से, वह कान्हा अगर किसी का मीत बनता है तो वह निर्भार होकर रहता है. उसके संकल्प अपने-आप ही पूर्ण होने लगते हैं, कहीं कोई अभाव नहीं रहता !      



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