Saturday, July 16, 2016

गीत का जन्म


आज ध्यान में किसी ने पूछा कि वह ईश्वर को क्यों पाना चाहती है, क्या इसके पीछे यश की कामना है ? ईश्वर को क्या यश का साधन बनाया जा सकता है ? संतों का यश भी तो चारों दिशाओं में फैलता है, पर वे तो परमात्मा ही हो जाते हैं. उसका मन कामनाओं से मुक्त नहीं हुआ है. जो कुछ भी उन्हें इस जीवन में प्राप्त होता है, सब कर्मफल है, फिर उसका उपयोग वे जिस तरह करें वे नये कर्म उनके भविष्य की दिशा निर्देशित करते हैं. आत्मा में रहकर परमात्मा की निकटता का अनुभव करके भी यदि कोई संसार ही पाना चाहता है तो उसे सीधे रास्ते से ही जाना चाहिए. सद्गुरु क्या आये उसका कल्याण कर गये. पल भर के उस हाथ के स्पर्श में पता नहीं क्या था कि उसकी साधना जो बैलगाड़ी की गति से चल रही थी, जेट की गति में आ गयी है. भीतर कितना बदलाव आ गया है. मन अब नन्हे शिशु की तरह निरीह तकता है. बुद्धि अपनी मनमानी नहीं कर पाती. सद्गुरु को कल उलेमा को सम्बोधित करते सुना वे इराक़ गये थे, शिया और सुन्नी में मेल कराने, कल वह सीडी भी देखे, जिनमें यहाँ के उनके कार्यक्रम की रिकार्डिंग है. ‘मेरी दिल्ली मेरी यमुना’ के बारे में नेट पर पढ़ा सुना था, कल उनके मुख से सुना, कैसे एक व्यक्ति आत्मा की शक्ति को जागृत करके परमात्मा के समकक्ष पहुँच सकता है. परमात्मा की तरह प्रेम का सागर बन सकता है. परमात्मा की तरह समता व द्रष्टा भाव में रह सकता है. सत+चित+आनंद की मूर्ति उसके सद्गुरु को कोटि-कोटि प्रणाम !


कल दोपहर कुछ देर के लिए वर्षा थमी थी, शाम होते-होते बादल फिर घिर आये और इस समय घना घटाकाश छाया है. कल रात एक स्वप्न देखा. पहाड़ी कच्चे रस्ते से किसी के साथ जा रही थी कि पैर फिसलता है और वह नीचे गहरी खाई में जा गिरती है पर भूमि स्पर्श से पूर्व ही जैसे कोई शक्ति उठा लेती है और हवा में तैराते हुए ऊपर ले जाती है. गिरते समय भार की कमी महसूस हो रही थी और गुरुत्व का स्पष्ट अनुभव हुआ था, ऐसे ही चढ़ते समय भी...कितना स्पष्ट अनुभव था. भगवद्गीता में कृष्ण ने कहा है उनके भक्त का पतन नहीं होता. पता नहीं वह भक्त है या नहीं लेकिन वह उनसे प्रेम करती है. आज स्नान के बाद मन नृत्य कर रहा था, भीतर शब्द फूट रहे थे, फिर कदम भी थिरकने लगे, कुछ ऐसी पंक्तियाँ थीं- सद्गुरु का हाथ हो, झुका हुआ माथ हो तो क्या कहने..सद्गुरु का ज्ञान हो, अंतर का ध्यान हो..सद्गुरु का संग हो, उतरे न रंग हो..सद्गुरु की वाणी हो, गा गा के सुनानी हो..सद्गुरु सा मीत हो, उसके ही गीत हों..वह अपना सा लगे, जग सपना सा लगे..इस भजन या गीत की धुन अपने आप ही भीतर से फूट रही थी, जीवन में यदि परमात्मा का प्रेम हो तो जीवन उत्सव बन जाता है, वरना दुःख, चिंता, ईर्ष्या, द्वेष, बेचैनी तथा उलझनों में फंसे ही रहते हैं..एक को पा लें तो सब मिल जाता है. एक खो जाये तो सब कुछ होते हुए भी इन्सान खाली ही रह जाता है, परम ही वह अनमोल खजाना है जिसे हर कोई ढूँढ़ता फिरता है, उससे कम में उसे तृप्ति मिल भी कैसे सकती है..मिलनी भी नहीं चाहिए..

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