जीवन पुनः-पुनः एक पहेली बन कर
सामने आता है. कितनी बार ऐसा लगता है मानो सारे राज खुल गये अब जो जानना था जान
लिया पर आगे चलते ही एक नया मोड़, एक अनजानी डगर, एक नया रहस्य सम्मुख आ खड़ा होता
है, और वे भौंचक तकते रह जाते हैं. उसे अपने कर्त्तव्य का पता था, ऐसा लगता था.
परमात्मा की कृपा का अनुभव होता है, अपने भीतर उस विराट के साथ एकता का अनुभव होता
है, भीतर शांति व आनंद भी पाया है लेकिन जीवन है तो सहज ही कर्म करने की इच्छा
जागृत होती है. प्रकृति के वशीभूत होकर सभी कर्म कर रहे हैं. अच्छे-बुरे, खरे-खोटे
जैसे भी कर्म प्रकृति में हो रहे हैं वे न्याय हैं अर्थात वैसे ही होने हैं. मन
में संकल्प उठते हैं जो कार्यों में परिणत होते हैं. जो इच्छाएँ अधूरी रह जाती
हैं, वे स्वप्न बनकर आती हैं, अथवा तो विचारों के रूप में मन में घूमती रहती हैं.
जो क्रियान्वित हो जाती हैं, वे तृप्ति दे जाती हैं. यही कर्म दिन-रात चला करता
है. इस विशाल सृष्टि का कोई प्रयोजन है क्या ? शायद नहीं, यह आनंद का विस्तार है,
प्रेम का प्रदर्शन है, जो आत्मा के सहज गुण हैं..इनका अनुभव करना और इनका अनुभव
औरों को कराना ही आत्मा का लक्ष्य है. इसके सिवा इस जग में क्या करने को है ? क्या
पाने को है ? और क्या जानने को है ? तो निर्णय यही हुआ कि निज आनंद में मगन रहना
और अन्यों को भी ख़ुशी बांटना, बस यही जीवन का मकसद है. ढेर सारी उपलब्धियाँ हासिल
करके अभिमान का पुलिंदा बढ़ाए चले जाने से तो बेहतर है कि निरहंकारी होकर मुस्कान
बिखेरना ! उसे अब पढ़ने में रूचि नहीं रह गयी है, लगता है पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ..
उस दिन एक सखी से कहा था कि
उसकी अनुपस्थिति में उसके पतिदेव व सासुमाँ दोनों उसे याद कर रहे थे, अच्छा लगा था
उन्हें. उन्होंने चिड़िया का एक वीडियो दिखाया, जिसमें नीले गले व हरे पंखों वाली
एक छोटी सी चिड़िया पेड़ में अपनी चोंच के हथियार से बिल्कुल गोल आकार में एक घोंसला
बनाती है, भीतर घुसकर बुरादा निकलती है और घूमकर मुआइना करके आती है, चिड़िया का
साथी भी आता है, वह उड़ जाती है और तब वह काम करता है. फिर दोनों मुग्ध भाव से अपने
घर को देखते हैं. हर वर्ष वे नया घर बनाते हैं. कौन जाने वे पंछी भी नये हों, नये
पेड़ पर बनाते हों हर साल ! उसने कहा था कि एक कविता लिखेगी इन भावों पर. आज वक्त
है. मौसम भी अच्छा है. गगन पर बादल हैं, नीचे हरियाली है. पिताजी घर गये हैं. जून
ऑफिस में हैं. माँ अपने रोग के कारण थोड़ी परेशान सी उस कमरे में बैठी हैं. खाली
बैठे रहने से मस्तिष्क भी कुंद हो जाता है, वृद्धा हो या वृद्ध कुछ न कुछ करना सबके लिए बहुत
जरूरी है. पिताजी के न रहने से माँ का अकेलापन और बढ़ गया है, अभी कुछ देर पूर्व
उसे देखने आई थीं और अब आवाज लगा रही हैं, देखना चाहती हैं कि वह मौजूद है या नहीं
! पड़ोसिन से उसने कहा कि वे अपनी लेन तथा पीछे की लेन की महिलाओं व पुरुषों को
बुलाकर सत्संग की शुरुआत क्यों न करें. उसके पतिदेव आर्ट ऑफ़ लिविंग के टीचर हैं.
देखें क्या होता है, जून भी अब सत्संग में उत्सुक हैं. उसने लिखा-
मदमाता मार्च ज्यों
आया
सृष्टि फिर से नयी
हो गयी
मधु के स्रोत फूट
पड़ने को
नव पल्लव नव कुसुम
पा गयी I
भँवरे, तितली, पंछी,
पौधे
हुए बावरे सब अंतर
में
कुछ रचने जग को देने
कुछ
आतुर सब महकें वसंत
में I
याद तुम्हें वह
नन्हीं चिड़िया
नीड़ बनाने जो आयी थी
संग सहचर चंचु
प्रहार कर
छिद्र तने में कर
पाई थी I
वृत्ताकार गढ़ रहे
घोंसला
हांफ-हांफ कर श्रम
सीकर से
बारी-बारी भरे चोंच
में
छीलन बाहर उड़ा रहे
थे I
आज पुनः देखा दोनों
को
स्मृतियाँ कुछ जागीं
अंतर में
कैसे मैंने चित्र
उतारे
प्रेरित कैसे किया
तुम्हीं ने I
देखा करतीं थी खिड़की
से
क्रीडा कौतुक उस
पंछी का
‘मित्र तुम्हारा’ आया देखो
कहकर देती मुझको
उकसा I
कैद कैमरे में वह
पंछी
नीली गर्दन हरी पांख
थी
तुमने दिल की आँख से
देखा
लेंस के पीछे मेरी
आँख थी I
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