पिछले दिनों उसने आर्ट ऑफ़ लिविंग
से जुड़े स्वामी मधुसूदन(हनी) की कहानी उनकी जुबानी सुनी और फिर शब्दों में उतारी.
बहुत रोचक है. वह हिमाचल के बाशिंदे हैं I पिताजी व्यापारी
हैं I वे दो भाई हैं I मधु छोटे हैं, उनके अनुसार स्कूल
तथा कॉलेज में वह बहुत शरारती छात्र हुआ करते थे I कुछ मित्रों का एक गैंग था, जो धमाचौकड़ी मचाने
में सबसे आगे रहता था I अन्य छात्रों की ऐसी
परेशानियों को हल करने का भी उन्हें शौक था जिसमें कुछ दादागिरी करने का मौका मिले I बड़े भाई से सदा उनकी स्पर्द्धा चलती रहती थी I वह जो करते वही मधु भी करना चाहते I ऐसे तो अध्यात्म में कोई विशेष रुचि नहीं थी, यहाँ
तक कि टीवी पर कोई दाढ़ीवाले बाबाजी प्रवचन दे रहे हों तो वह चैनल बदल देते थे I किसी बाबा की आँखों में नहीं देखते थे इस डर से कि
कहीं वह सम्मोहित न कर दें, लेकिन एक बार जब वह
कुछ दिनों के लिये बाहर गये, भैया ने ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ का बेसिक कोर्स कर लिया, लौटे तो उन्होंने भी कोर्स करने की जिद की I पिताजी ने कहा तुम अभी छोटे हो, २० वर्ष के होने
पर ही कोर्स कर सकोगे पर वह इतनी प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे, सो फार्म में अपनी
उम्र ज्यादा लिखवा कर चले गये I कोर्स में कुछ समझ
में नहीं आता था I हर दिन कुछ गृहकार्य
दिया जाता था, वह भी नहीं किया, लेकिन ‘सुदर्शन क्रिया’ करने के बाद भीतर कुछ ऐसा परिवर्तन हुआ जो शब्दों
में कहा नहीं जा सकता I मधु जब छठी-सातवीं
का विद्यार्थी था तो अक्सर मन में कई विचार उठते थे..... इस सामान्य से प्रतीत
होने वाले जीवन के पीछे अवश्य कुछ और भी है... केवल खाना-पीना, पढ़ना और सो जाना
मात्र इतना ही तो जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता..... मन में प्रश्न भी उठते थे कि
कौन सी शक्ति इस ब्रह्मांड का नियंत्रण कर रही है? मन में इतने विचार कहाँ से आते
हैं? जीवन में एक नियमितता कहाँ से आती है? लगता था कि कई
बातें एक अंतराल के बाद पुनः घटित हो रही हैं, लेकिन कारण समझ से बाहर था I इन सवालों का जवाब खोजने निकला तो शिक्षकों व
मातापिता दोनों ने कहा इस उम्र में ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों करते हो, पढ़ने में
मन लगाओ I धीरे-धीरे मन में सवाल उठने बंद हो गए और वह अपनी
सामान्य दिनचर्या में व्यस्त हो गये I
सन् २००२ की बात है गुरूजी
हिमाचल आ रहे थे, सत्संग स्थल निवास से आधे घंटे की दूरी पर था I जब मित्रों ने कहा सत्संग चलते हैं तो पहले तो मना
कर दिया क्योंकि एक तो पिताजी कहीं भी आसानी से जाने नहीं देते थे, दूसरे उन्हें
डर था कि सत्संग में जाने से इमेज खराब हो जायेगी, लोग क्या सोचेंगे? कौन उनसे मदद
माँगने आयेगा? पर मित्रों ने जोर दिया और किसी तरह पिताजी को राजी कर वहाँ पहुँचे I गुरूजी के आने से पहले मंच पर बायीं ओर बैठ गये
बल्कि यह कहना सही होगा कि उन्हें बैठा दिया गया I मन में तर्क-वितर्क चल रहे थे I लोग भजन गा रहे थे
और मस्त थे, तार्किक बुद्धि ने सोचा बिना किसी कारण ये इतने प्रसन्न क्योंकर हैं ? तभी गुरूजी का प्रवेश हुआ, वे हाथ में पकड़ी माला
को घुमाते हुए लगभग नाचते हुए से आये और आसन पर आराम से बैठ गए I बुद्धि ने कहा कि सत्संग में बड़े-बड़े वीआईपी आये
हैं, गुरूजी उनको सम्बोधित करके जरूर कोई गूढ़ ज्ञान की चर्चा करेंगे किन्तु यहाँ
तो बात ही कुछ और थी I एकदम अनौपचारिक ढंग
से गुरूजी ने पूछा, ‘हाँ, सब कैसे हो? खुश हो? सबने ‘हाँ’ में उत्तर दिया, मन में
विचार चलने लगे कैसे गुरु हैं यह?, कि तभी वे मधु की दिशा में पलटे एक पल रुके,
फिर सामने देखा.. अगले ही पल फिर पलटे और उंगली से अपनी ओर आने का इशारा किया I सामने जो मित्र था उसे कहा, “जाओ गुरूजी तुम्हें बुला रहे हैं, शायद उन्हेँ पानी चाहिए” वह गया और लौट आया, गुरूजी ने फिर कहा, “नहीँ तुम इधर आओ” मेरी बायीं ओर दूसरे मित्र
थे उन्हें मंजीरे देकर भेज दिया, पर गुरूजी ने कहा, “तुम जो चश्मा लगाये हो इधर आओ,” इधर-उधर देखा यकीन नहीं हो रहा था कि उन अनजान को
वह क्यों बुला सकते हैं I डरते-डरते उनके पास
गया, उन्होंने पूछा, “हाँ, हनी कैसे हो? कुछ
बोलना चाहा पर जवाब तो कुछ सूझा नहीं, भीतर प्रश्न उठा, आप को मेरा नाम किसने बताया? गुरूजी ने फिर कुछ
सामान्य प्रश्न किये, खुश हो? पढ़ रहे हो? बिजनेस भी कर रहे हो? धीरे-धीरे मन संयत
हुआ और जवाब दिए पर तार्किक मन भीतर सवाल कर रहा था हजारोँ लोग बैठे हैं और गुरूजी
इतनी साधारण बातें कर रहे हैं I अंत में उन्होंने आश्रम
आने का निमंत्रण दिया, घबरा कर ‘हाँ’ में सर हिला दिया I अपनी जगह आकर बैठे तो लगा जैसे कोई स्वप्न देखा
हो, लेकिन भीतर कुछ बदल गया था I सत्संग के बाद घर
पहुँचे तो कितने ही दिनों तक गुरूजी की याद बनी रही फिर अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो
गये I
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