आज बिजली ने फिर बहुत परेशान किया, पूरी दोपहर.. फिर शाम को
भी गायब रही, नौ बजे के बाद आई. गर्मी भी बेहद थी, पसीना बहा देने वाली गर्मी.
दोपहर को पाकिस्तानी लेखक ‘इब्ने इंशा’ की आखिरी किताब के कुछ पन्ने पढ़े. तंज बड़ा
चुभता हुआ है इस किताब में. उसने जून को तीन कवितायें भेजने का वायदा किया है, कभी
ऐसा होगा कि एक ही पल में पंक्तियाँ फूटतीं जाएँगी....मन उभर कर पन्ने पर अंकित हो
जायेगा. शाम को वे भाई-भाभी के यहाँ गए, भाई के स्वभाव में गम्भीरता अभी तक नहीं
आई है, बिलकुल बच्चों का सा स्वभाव है उसका. उन्होंने बर्फ वाला बेल का शर्बत
पिलाया, जो उसे पसंद नहीं आ रहा था,पर वे दोनों इतनी तारीफ कर रहे थे कि उसने भी
हाँ में हाँ मिला दी. आने के बाद से ही उसका गला शिकायत करने लगा था. साढ़े दस हो
गए हैं, नन्हा सो गया है, दोपहर को सो नहीं पाया ठीक से, उसके दांत में छोटा सा
काला पदार्थ फंस गया था, उसका पूरा ध्यान
नहीं रख पाती, वह कभी-कभी. छोटी-छोटी बात पर टोक देती है, कल से इस बात का ध्यान
रखेगी. पापा के प्यार से दूर वह उसके पास ही तो रह रहा है, दोनों का प्रेम देना
चाहिए न. उसके लिए उससे बढ़कर कुछ है ?
आज जून का फोन आया, पर दो-तीन बार कट जाने के बाद,
बात पूरी न हो सकने के कारण मन कुछ उखड़ा-उखड़ा सा रहा सुबह. फोन पर वह कुछ उदास भी
लगे, शायद उसके खत में मकान की परेशानियों की बात पढ़कर, लेकिन अपने और उनके प्रति
ईमानदार तो रहना ही चाहिए. उसने सोचा, वे दोनों कितने भी चिंतित हो लें, बातों को
दिल से लगा लें. होना तो वही है जो होना है, जहां तक हो सके अपने आपको इन सारी दुनियावी
बातों से ऊपर ही रखना चाहिए. उसने सोचा, वैसे भी जून का दिल बहुत बड़ा है, वह सदा
की तरह उसकी भूल को भुला देंगे. दोपहर को भाभी, भतीजी आ गए सो घर में हलचल रही.
उसने तुलसी-अदरक की चाय पीकर गले को ठीक किया.
कल से घर के बाहर की पुताई शुरू हो जायेगी. कल
शाम को वे अपने घर की छत पर गए, छत पर पड़ी मार्बल चिप्स को बोरी में भरकर रखा,
पिता भी वहीं थे. नन्हा भी, शायद उसी धूल से उसकी आँखें फिर हल्की लाल हो गयी हैं.
माँ-पिता उनके मकान के लिए कितना श्रम कर रहे हैं. वे सदा उनका भला चाहते हैं,
किसी का बुरा न चाहने वाले सीधे-सादे स्वभाव के... सब्जी वाले ने थोड़ी सब्जी
ज्यादा दे दी तो परेशान हो जाते हैं कि कल जाकर उसे पैसे दे देंगे. सुबह पॉलिश लाए तो सोच रहे थे कि
गलती से कहीं दुकानदार ने कम पैसे तो नहीं ले लिए. उस दिन अखबार वाले को चालीस
पैसे देकर ही माने. मनोरमा में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कवितायें पढीं.
@ सब्जी वाले ने थोड़ी सब्जी ज्यादा दे दी तो परेशान हो जाते हैं कि कल जाकर उसे पैसे दे देंगे. सुबह पॉलिश लाए तो सोच रहे थे कि गलती से कहीं दुकानदार ने कम पैसे तो नहीं ले लिए. उस दिन अखबार वाले को चालीस पैसे देकर ही माने.
ReplyDelete- जय हो!
विश्वास नहीं होता न, पर ऐसे ही हैं पिताजी, माँ अब नहीं हैं, एक बार उनके घर में चोरी हो गयी, सांत्वना देने के लिए फोन किया तो कहने लगे, हमसे ज्यादा जरूरत उसे रही होगी...
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