एक माह का अंतराल, कारण एकाध
नहीं कई गिनाये जा सकते हैं, लेकिन आज इसकी सुध ली है तो एक सखी के फोन के कारण.
सुबह-सुबह उसने पूछा, दादा साहब फाल्के अवार्ड इस वर्ष किसे मिला है, वह नहीं बता
सकी. पिछले कई दिनों, घर से आने से पहले व बाद में भी लिखना-पढ़ना छूट ही गया था.
डायरी लिखने से कुछ विशेष समाचार भी नोट हो जाते हैं, अब जैसे
कि विश्वकप फुटबाल में ब्राजील, इटली, बुल्गारिया और स्वीडन की टीमें सेमी फाइनल
में पहुंची हैं. पिछले दिनों कई अच्छी बातें हुईं. नन्हे का जन्मदिन उन्होंने
अच्छी तरह से मनाया, पिताजी की चिट्ठी आई थी, उनके मकान में किरायेदार रहने आ गए
हैं., यानि वह मकान अब घर बन गया है. आज दोनों घरों पर पत्र भी लिखने हैं. मौसम
आजकल बेहद गर्म है, काफी दिनों से वर्षा नहीं हुई है.
आज सुबह जून को विदा करने जब बाहर गयी तो प्रकृति की
सुंदरता को देखकर मन विभोर हो उठा. ग़ालिब के शेर को गुनगुनाते हुए, बेला के फूलों
की खुशबु समोते हुए...
पानी में भीगा ऐसे मन
अंतर में एक नदी उग आई
हरी दूब के कोनों को छूकर पोरों
में
हरियाली, नदी किनारे छायी
बृहस्पति ग्रह के शूमेकर धूमकेतु के टुकड़ों के टकराने की
घटना सदियों बाद हुई है, अगर धरती से भी कोई धूमकेतु टकराए तो प्रलय ही आयेगी न.
कल लिखना शुरू ही किया था कि जून आ गए और वे हास्पिटल गए.
उसकी दायीं आँख में कभी-कभी पानी आता है, सुबह से गले में चुभन है. यह सब उसकी गलत
सोचों का नतीजा है, आलस्य और मद का
परिणाम. हर समय श्रम करने की अपनी आदत को छोडकर विश्राम करने की आदत का परिणाम. नन्हे
को छोड़ने गयी तो तो एक अस्थमा का बूढा मरीज कुछ सहायता मांगने आया, उसने मना कर
दिया, अगर कुछ दे ही देती तो क्या फर्क पड़ जाता, बल्कि मन को बेचैनी न होती. पर
जून को शायद अच्छा नहीं लगता, लेकिन उसके समझाने पर वह भी सहमत हो जाते संभवतः.
डेक पर यह गजल आ रही है-
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार
आदमी
उस अकेले व्यक्ति के लिए
कितनी सही हैं ये लाइनें. कई दिनों से पुरानी पड़ोसिन से नहीं मिली, शायद आज ही वे
लोग आयें. दीदी का पत्र भी कई दिनों से नहीं आया है, यूँ तो किसी का भी नहीं आया
है, सारे रिश्ते मुंह देखे के ही होते हैं, लेकिन यह कोई अफ़सोस करने की बात नहीं
है, रिश्ते हैं, रिश्ते होते हैं, यह भी क्या कम है? नन्हा बड़ा होगा तो उसके
बच्चों को बुआ, चाचा इन रिश्तों का अर्थ भी नहीं मालूम हो पायेगा शायद...दुनिया
सिमटती जा रही है और फैलती भी जा रही है एक साथ ही.
अभी-अभी जून के लाए एक उपन्यास पर नजर पड़ी, कुछ पल पूर्व
पढ़ी ‘स्वामी योगानंद’ की आत्मकथा के अंश का असर हवा हो गया. मन इतना अस्थिर क्यों
है, सांसारिक विषयों में कितनी आसानी से रमता है, भगवद विषयों में उतनी ही कठिनाई
से. उसने स्वयं ही उसे छूट दी हुई है, कई बहाने हैं इसके लिए कि वे सब बातें भी
जीवन में आवश्यक हैं जिन्हें हम सांसारिक कहते हैं. कल धर्मयुग में ‘साधु वासवानी’
के शिष्य ‘जे पी वासवानी’ का प्रवचन दुबारा पढ़ा था, उन्होंने भी कहा, ईश्वर सिर्फ
कल्पना जगत की वस्तु नहीं है, उसे हर क्षण अपने कार्य कलाप में शामिल करना होगा.
उन सभी बातों से दूर रहना होगा जो हमें ईश्वर से दूर ले जाती हैं. कल शाम उसकी
असमिया सखी आई, वे काफी देर तक बातें करते रहे, समय का भान ही नहीं रहा. सुबह एक
सखी ने फोन करके पूछा, रक्षा बंधन कब है, मंझले भाई ने खत का जवाब नहीं दिया, न ही
बड़े व छोटे भाई का ही खत आया है, जवाब आने पर ही राखी भेजेगी ऐसा दिमाग कहता है,
पर दिमाग दिल के आगे हार ही जायेगा... डायरी लिखते समय सभी की यादें घेर लेती हैं,
अपने करीब न जा पाए क्या इसलिए ? छोटी बहन का पत्र अच्छा सा पत्र आया है, एक महीने
पूर्व का लिखा, शायद लिखकर पोस्ट करना भूल गयी होगी.
जगजीत सिंह की यह गजल कितनी
अच्छी है-
धूप में निकलो, घटाओं में
नहा कर देखो
जिंदगी क्या है किताबों को
हटकर देखो
No comments:
Post a Comment