Monday, April 22, 2013

आंधी और तूफान



आज वे बाजार गए थे, उसने सोफा बैक के लिए प्रिंटेड कपड़ा खरीदा, जून को अवश्य पसंद आयेगा, सीनरी बनाने के लिए आधा मीटर दसूती कपड़ा भी. उसने चप्पल भी खरीदी, पर जून के बिना शॉपिंग करने में आनंद नहीं आता, यह उसका वहम ही था कि आयेगा. कल रात की बात याद आते ही सिहरन होती है, वे सोये ही थे कि आंधी-पानी शुरू हो गया, बेर के बराबर आकार के ओले और पानी की बौछारें खिड़की से उनके बिस्तर पर आ गयीं, बड़ी मुश्किल से खिड़कियाँ बंद कीं, फिर बिजली भी चली गयी जो आज दोपहर को आयी. देर तक वे सो नहीं पाए, सुबह के वक्त ही नींद गहरी आई.

  वही रात का समय है, नन्हा भी आज जग रहा है, उसके जन्मदिन के लिए कार्ड बना रहा है, वही  चिड़ियों वाला. कल से उसे बहुत आइसक्रीम खाने को मिल रही है. माँ दूध व ब्रेड की आइसक्रीम बहुत अच्छी बनाती हैं. उसने सोचा जून के आने पर उसे भी खिलाएगी. यूँ लगता है जैसे लिखते समय वह जैसे उससे बातें कर रही हो. अब उसके आने में ज्यादा दिन नहीं हैं. आज उसने मेहमानों की लिस्ट बनाई और उन वस्तुओं की भी जो उसे जून के लिए खरीद कर रखनी हैं.

  आज उसका फोन आया, सब जरूरी बातों के बाद उसने कहा..., पता नहीं क्यों वह नहीं कह पाई, शायद इतने लोग वहाँ थे, पर उस दिन तो केवल माँ, व नन्हा थे, पिता दूसरे कमरे में थे, तब भी नहीं कह पायी थी, उसने मन में यही सोचा कि वह स्वयं ही समझ लें....समझ ही गए होंगे. आज उसका जन्मदिन अच्छा रहा, जून की कमी तो थी ही, पर इतने वर्षों बाद परिवार वालों के साथ एक यादगार अनुभव बन गया. सुबह नींद जल्दी खुल गयी थी, सवा पांच ही बजे थे, मकान पर गयी, बाहर आंगन में वहीं पोर्च में रखा बुरादा इकट्ठा किया, फिर दोपहर से पहले ही नन्हा और पिताजी के साथ दुबारा गयी, लोहे के दोनों गेट साफ किये, बुरादा फेंका, धुलाई की. आज दरवाजों पर पीली मिट्टी का पेंट हो गया, सुंदर लग रहे हैं दरवाजे.

 मंझला भाई अपने परिवार के साथ आ गया है. घर में चहल-पहल हो गयी है, सुबह व्यस्तता में बीती, दोपहर वीडियो पर अंजाम देखी और रात होते-होते उसकी आँखें दुखनी शुरू हो गयी थीं, चुभन शाम से होने लगी थी पर उसने सोचा, शायद लगातार फिल्म देखने के कारण ऐसा हुआ है, पर लगता है कल सुबह ही डॉ के पास जाना होगा. मकान पर पेंटिंग का काम पूरा हो गया है. सैनिटरी का सामान आ गया है, फिटर ने चेक भी कर लिया है.

  आज दीदी का जन्मदिन है, उन सबने उन्हें बहुत याद किया. उसकी आँखें अभी तक ठीक नहीं हुई हैं, सो लिखने का क्रम भी टूटने लगा है, यूँ भी आजकल मस्तिष्क हजार बातों से भरा रहता है कि...यह उथल-पुथल जून के आने पर ही खत्म होगी.

  आज पूरे आठवें दिन सुबह उठने पर उसकी आँखें बिना धोए खुल गयीं. कल रात जून का फोन आया था, उनकी ट्रेन बारह घंटे लेट थी, उसने प्रार्थना की कि अपने माँ –पिता को लेकर बनारस से यहाँ का उनका सफर आराम से बीते, बिना किसी परेशानी के. नन्हा कितने  आराम से सो रहा है, उसे गर्मी, मच्छर कोई भी नहीं जगा सका. अभी सुबह के सवा छह ही हुए हैं, यहाँ बरामदे में कितनी ठंडी हवा आर ही है. परसों से वे अपने घर के बरामदे में बैठेगें, कितनी हवा और कितनी धूप आती है यह तो वहाँ रहने से ही पता चलेगा. फोन की घंटी बज रही है, शायद जून हों, जब भी फ़ोन आता है उसे ऐसा ही लगता है.

किसी पत्रिका में उसने ये पंक्तियाँ पढीं, शायर का नाम नहीं पता, अच्छी लगीं-

पैदा न हो जमीं से नया आसमां कोई
दिल काँपता  है आप की रफ्तार देखकर

भरे बाजार में चलने से पहले सोच लो आकर
न कोई हाथ थामेगा न कोई रास्ता देगा

ऐसा नहीं कि खुश्क मिले हर जगह जमीं
प्यासे जो चल पड़े हैं तो दरिया भी आयेगा

....और ये पंक्तियाँ छोटी बहन के खत से जो उसने छोटे भाई को लिखा था-

तुम्हें सपनों की प्रतीक्षा है
मुझे नींद की
अब तो
मैं जानती हूँ सपनों की असलियत
आँखों से घुसकर वे
आने वाले कल को
अतीत में रख आते हैं
बासी बनाते हैं आज का दिन
बीतने के पहले ही...








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