Wednesday, January 9, 2013

हर कोई चाहता है...क्या?



आज फिर कई दिनों के बाद उसने डायरी खोली है, सोचती रोज थी, पर कुछ लिखे ऐसा मन नहीं होता था. आज खत लिखने बैठी तो इसे भी ले आई और अब यह उसके सामने है. सबसे पहले ध्यान आया कि कुछ देर पूर्व पंजाबी दीदी को फोन किया था मिली नहीं, शायद अस्पताल गयी हों, कल अगर फ्लाईट आई हो तो उसकी एक मित्र भी आ गयी होगी. पर वह  यह सब क्यों लिख रही है, वह तो अपने आप से बातें करने आई थी. क्या खुद का सामना करना इतना मुश्किल है, शायद आजकल हो गया है उसके लिए. कितना कुछ हुआ इन दिनों में, छोटी बहन का विवाह हो गया, वे घर गए, दिल्ली गए, कोलकाता गए वापस आये. उसका गला भी खराब हुआ, कल पिकनिक में गए और भी न जाने कितनी बातें. पर यह सब तो वह  लिखना नहीं चाहती थी, फिर वह क्या है जो लिखना चाहती है, जो उसके मन के अंदर कहीं दबा, छुपा सा रहता है, पर फूट कर नहीं आता...वह कोशिश ही नहीं करती, पर कुछ है जरूर..जो उसे औरों से पृथक करता है, जो सिर्फ उसका है, ऐसा कुछ जो आजतक बाहर आने के लिए ही वहाँ बसा है. धीरे-धीरे वह अपने आप ही बाहर आएगा, जब वह कागज-कलम लिए उसका स्वागत करने को तत्पर रहेगी, जो बाहर आकर भी उसके मन को खाली नहीं करेगा बल्कि भर डालेगा उसे, सम्पूर्णता देगा उसे, कविता में कितनी बड़ी ताकत है यह...कवि को रीता  नहीं करती, जब एक भाव कवि उड़ेंलता है तो कहीं अंतर में एक घट भर जाता है, और ऐसे ही कई भाव सुगबुगा रहे हैं उसके अंतर्मन में, कहीं तो कोई है जो इन्हें समझेगा...पर जब तक ये बाहर नहीं आते खुद ही कहाँ समझती है..और वह कोई कौन होगा शायद कोई भावी पाठक...कितने दिनों वंचित रखा है उसने उन्हें..कितने दिनों प्रतीक्षारत रखा है स्वयं को..पर कभी तो टूटेगा यह मौन?

आज मौसम फिर ठिठुर रहा है, धूप एक पल के लिए आती है फिर चली जाती है. कल नूना ने लिखना शुरू किया तो समय का आभास ही नहीं रहा, जून के आने पर ही पता चला, दिन कैसा अच्छा बीता..शाम को टीटी खेलने गए, हॉल खाली था, वे आराम से खेल सके. कल यात्रा से यहाँ आने के बाद का पहल पत्र बड़े भाई-भाभी का मिला. नन्हा आज सुबह उठना ही नहीं चाह रहा था, कल दोपहर सोया नहीं था शायद इसीलिए, उसे दस-ग्यारह घंटे तो सोना ही चाहिए. पंजाबी दीदी फिर नहीं मिलीं फोन पर, उसने सोचा कुछ देर में फिर करेगी, उन्हें यहाँ से चले ही जाना है इसीलिए शायद वह पहले सा जुडना नहीं चाहतीं, नहीं तो इतने दिन फोन न करें, ऐसा नहीं हुआ. होता है ऐसा, इंसान जब जहां से जाना चाहता है नाते तोड़ना चाहता है पर जब इस दुनिया से जाना होगा...कितनी भयावह लगती है मृत्यु, शायद उतनी है नहीं पर कभी-कभी जब वह सोचती है एक दिन यह सब कुछ छोडकर शून्य हो जाना होगा तो डर लगता है, जीवन से इतना मोह है तभी समझ में आता है. अचानक उसे अपनी असमिया मित्र का ध्यान हो आया, आज उसका मन इधर-उधर ही जा रहा है, वह एकाग्रता जो लेखन में चाहिए, आ ही नहीं रही है, कोई एक विषय हो या एक बिंदु हो जिस पर मन साधना है तो आसान होगा. पर वह आधार, वह बिंदु कहाँ से लाये ? लाना भी अपने अंदर से होगा..ढूँढना होगा मन में गहरे उतर कर, यह खोज भी तो एक विषय हो सकता है. हर इंसान को हर पल किसी न किसी कई तलाश रहती ही है, किसी को सुख की किसी को शांति की तो किसी को दोस्त की और किसी को दुश्मन की... तलाश करते-करते ही जीवन चूक जाता है, किसी को भगवान की तलाश है...भगवान जो कभी नहीं मिलते, कभी उसका मन भगवान को मानने से इंकार क्यों करता है...तब जब दिमाग मन पर हावी हो जाता है. यह मानना न मानना भी तो एक तरह की तलाश है.

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