आज एक भतीजी का जन्मदिन है, उनके परिचितों में भी एक मित्र का. शाम को उन्हें
बधाई देने जाना है. पिछले दो-तीन दिनों से ध्यान पर सुना और ध्यान भी किया. बहुत
सारे भ्रम टूटे, भीतर प्रकाश हुआ, अनादि काल से मानव इस सृष्टि के रहस्यों को
जानने का प्रयास करता आया है लेकिन कोई भी आजतक इसे जानने का दावा नहीं कर पाया
है. यह रहस्य उतना गहरा होता जाता है जितना वे इसके निकट जाते हैं. वे कुछ भी नहीं
जानते ऐसा भाव दृढ़ होता जाता है. परमात्मा कौन है, कहाँ है, कैसा है, यह सृष्टि
क्यों बनी, कैसे बनी, ये सारे अति प्रश्न हैं, आजतक कोई इनका उत्तर नहीं दे पाया.
परमात्मा के प्रतीक गढ़ लिए लोगों ने और उन्हें प्रेम करने लगे, प्रेम में आनन्द
है, प्रेम ऊपर उठा देता है, प्रतीकों के सम्मुख झुकने से भीतर कुछ हल्का हुआ होगा,
मानव ने मान लिया कि कोई परमात्मा है जो उसके साथ है, उसकी रक्षा करता है, यह मानना
उनके लिए सही था जो प्रेम से भरे थे पर धीरे-धीरे लोग बिना भाव के ही मूर्तियों के
सामने झुकने लगे. परमात्मा को जिसने भी पाया है अपने भीतर ही पाया है, वह मन की
गहराई में छिपा है जब शरीर स्थिर हो, मन अडोल हो, शान्त हो और भीतर कोई द्वंद्व न
हो तो जिस शांति व आनन्द का अनुभव उन्हें भीतर होता है, वह परमात्मा से ही आयी है.
जून दोपहर का
भोजन करके गये तो वह नेट सर्फिंग करने लगी. पेपर पढ़ा, धरती पर जगमगायेंगे
छोटे-छोटे सूर्य, वैज्ञानिक एटोमिक ऊर्जा का उपयोग कर धरती को ऊर्जा की कमी से
मुक्त कर देंगे. भारतीय वैज्ञानिक भी जुटे हैं, न्यूक्लियर विघटन की जगह विलयन के
द्वारा यह कार्य होगा. सुबह रामदेव जी भी कह रहे थे आगे आने वाले समय में भारत का
पुनर्जागरण होगा. कलियुग की समाप्ति और सतयुग का आगमन होने वाला है, यह संधि युग
है. न कोई ईमेल भेजा न आया, कम्प्यूटर पर टाइप करने का कार्य भी अभी शुरू नहीं हुआ
है. उसके सिर के ऊपरी भाग में हल्का-हल्का सा दर्द है, कल भी था, शायद कोई
प्रारब्ध कर्म उदित हुआ है. आज सुबह बाहर लॉन में सूर्य ध्यान किया. इस समय दोपहर को
भी धूप-छाँव में बैठी है. शाम को उनके यहाँ सत्संग है, प्रसाद के लिए चिवड़ा-मटर
बनाने हैं. माँ बड़ी ननद के पास गुजरात गयी हुई हैं. वहाँ का मौसम ठंडा नहीं है,
खुशनुमा है. इस वक्त मन शान्त है, और न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है, जो प्रकाश,
प्रवृत्ति तथा मोह में भी सम रहता है, वही तो वह है. जो घट रहा है, चाहे वह शरीर
में हो अथवा मन में, बदलने ही वाला है, वह साक्षी है, साक्षी रहकर वह इन प्रपंचों
से पूर्णतया पृथक है, द्रष्टा है, यह हाथ लिख रहा है, परमात्मा की शक्ति से ही,
यदि वह स्वयं को पृथक न जाने तो शरीर व मन के दुःख के साथ स्वयं भी दुखी रहे,
लेकिन ऐसा नहीं है, मन कहता है उसे ढेर सारे कार्य करने हैं. कार्य किये बिना वह
अपने को अधूरा मानता है, वह महत्वाकांक्षी है, लेकिन वह उसकी इस छटपटाहट को देखती
है और मुस्कुराती है !
आज जून घर पर
हैं, साल का अंतिम महीना, धूप गुनगुनी है, छुट्टियाँ शेष हैं सो आज उन्होंने घर के
कुछ काम निपटाए. sun meditation किया, आंगन में झूला लगाया, जिस पर बैठकर संतरे
खाए. बगीचे में पानी डाला, फ्रेंच बीन्स तोड़े और अब वह पढ़ने आने वाले छात्र की
प्रतीक्षा करते हुए लिख रही है. मन को समाधान मिल गया है. आज गुरूजी को भी सुना.
कितने सीधे, सरल, निष्पाप तथा सहज लगते हैं, प्रेम से लबालब, जीवन को जैसा है वैसा
स्वीकारने वाले. जबकि वे व्यर्थ के विचारों में उलझ कर तन व मन दोनों को बोझिल बना
लेते हैं. उसके सर का वह दर्द पित्त की अधिकता से था न कि प्रारब्ध के कारण,
बड़े-बड़े शब्द सीख कर वे स्वयं को ज्ञानी समझते हैं, जो सबसे बड़ी भूल है. श्रद्धा,
विश्वास को यदि रटते रहे और यूँ ही रटते-रटते स्वयं को श्रद्धालु, विश्वासी मानते
रहे तो उनका उद्धार नहीं हो सकता. शब्दों के जाल से मुक्त होकर सहज होकर अपने मन
में झाँकने की जरूरत है. मन यदि लोभ, मोह, क्रोध, वासना तथा अहंकार से मुक्त है तो
सहज ही विश्वासी होगा, उसे बनाना नहीं होगा, ऐसा मन शरण में होता ही है. मन न रहे
अर्थात मन जो विकारी है न रहे तो जो शेष रहता है वही तो आत्मा है. शांति है, वही
तो परमात्मा है !
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