Friday, April 8, 2016

फूलों की घाटी


आज उसने अपने तीन ढीले-ढाले किन्तु सुंदर लिबास एक परिचिता दर्जिनी को दिए, वर्षों से उन्हें ऐसे ही पहनती आ रही थी, उसने कहा है, उन्हें उसके नाप का बना देगी. मौसम आज भी भीगा-भीगा है, एक बादलों भरा दिन ! कल अवकाश था, शाम को वे क्लब गये एक हास्य फिल्म दिखाई गयी. एक जगह साधना सत्र में ‘क्रिया’ करायी जानी थी, पर उसने जाने की जिद नहीं की, अब कोई आग्रह नहीं रह गया है, जून जाना नहीं चाहते सो वे दोनों वही करेंगे जो दोनों को पसंद है, ताकि अमन बना रहे. ‘क्रिया’ का अंतिम उद्देश्य भी तो अमन ही है न. फिर प्रेम करने का दम भरने वाले जिसे प्रेम करते हैं उसके लिए अपनी इच्छाओं का त्याग ही करना जानते हैं. ‘क्रिया’ से कुछ पाना भी शेष नहीं रहा, अपनी आत्मा व परमात्मा को जिसने एक बार एक जान लिया अब उसके लिए जगत में पाने योग्य कुछ शेष नहीं रहता, जिसे अमृत मिल गया अब वह और क्या चाहेगा. अगले महीने जून को दस दिनों के लिए बाहर जाना है, तब सम्भव हुआ तो कहीं भी जा सकती है, आर्ट ऑफ़ लिविंग, मृणाल ज्योति तथा अन्य किसी सेवा कार्य के लिए ! कल आचार्य राम की गोमुख यात्रा का विवरण पढ़ा, बहुत अच्छा लगा. वे भी कभी जायेंगे पहाड़ी यात्रा पर, फूलों की घाटी, बद्रीनाथ, केदारनाथ और धौला ! यह इच्छा भी वह अनंत को समर्पित करती है, वह चाहेगा तो फलीभूत होगी. ईश्वर हर क्षण उसका सहायक है, वह उसका मित्र है !

सत्संग एक साधक के लिए अमृत के समान है. आचार्य श्री का संग किया तो उसे भी कोई देवदूत मिल गया है. ध्यान में कितना अभूतपूर्व अनुभव घटा, जैसे कोई प्रेम से भिगो गया हो. एक मूर्ति क्षण भर में कितना-कितना स्नेह लुटा गयी, वह कोई दिव्य आत्मा थी शायद. सुबह प्राणायाम के बाद भी आज्ञा चक्र पर एक सुंदर विग्रह के दर्शन हुए. सूर्यदेव की कोई भव्य मूर्ति या कृष्ण..कोई उससे कुछ कहना चाहता है, वही परमात्मा है, वही इस जगत का नियंता है !


आज समय मिला है कि बैठकर अपने तथाकथित अधूरे रह गये कार्यों की एक सूची बनाये, ऐसे तो मानव के सारे कार्य कभी पूर्ण नहीं हो सकते, मृत्यु की घड़ी आ गयी हो फिर भी लगता है कुछ छूट गया है. सबसे पहले बात पत्रों की, दो पाठकों के पत्र आये थे, जिनका जवाब देना है. एक पत्र गुरु माँ को भी लिखना है भावांजलि भेजते हुए. कविताएँ टाइप करनी हैं, किताबों की आलमारी साफ करनी है नये कमरे की. लाइब्रेरी की किताब बदलनी है, कविगोष्ठी के आयोजन के बार में विचार करना है. आज कविताएँ पढ़ीं दिनकर की और भी कुछ कवियों की, अज्ञेय की भी. सभी के शब्दों के पीछे एक सवाल छिपा है, सभी को परम सत्य की तलाश है, उस परम सत्य की जो उन्हें झलक दिखाकर छिप गया है, जैसे कोई लुभाकर कुछ छिपा ले. कवि होना ही एक खोज होना है, भीतर एक हीरा होने का पता तो जिसे चल जाये पर वह हाथ नहीं आये. कवि न समाज का अंग रह पाता है जैसे और लोग रहते हैं, मात्र यांत्रिक जीवन जीने वाले और न ही वह संत की सी तृप्ति का अनुभव कर पाता है, वह इन दोनों के मध्य में रहता है, एक मधुर प्यास लिए, वह आनन्द के चरम को भी अनुभव करता है तो पीड़ा के गह्वर में भी उतरता है.

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