Tuesday, April 12, 2016

कमल और चाँद


फिर एक अन्तराल ! सितम्बर आधा बीत गया, जानती है किसी दिन उमंग जगी तो पीछे के पन्ने भी भर जायेंगे क्योंकि अब समय ठहर गया है. दिन, महीने, साल सब एक से लगते हैं. समयातीत हो जाना क्या इसी को कहते हैं. मन का मौसम अब एक सा रहता है. आज, कल परसों का भेद भी खो गया है. सुबह दोपहर शाम भी, हर पल भीतर प्रकाश उगता हो तो कोई बाहर नजर क्यों डाले. जून कल टूर पर गये हैं. हैदराबाद, बैंगलोर और फिर दिल्ली, इतवार को लौटेंगे तब तक तो रोज लिखने का समय आराम से मिल जायेगा. कल दोपहर वह मृणाल ज्योति गयी थी. हॉस्टल के लिए UBI ने फर्नीचर प्रदान किया है. बच्चों के हंसते चेहरे तथा नृत्य देखकर सभी को अच्छा लगा. चाहे उनके शरीर में कमी हो, मन को प्रसन्न होने से कौन रोक सकता है. बुद्धि भी कम हो पर आत्मा को खिलने से कौन रोक सकता है. आत्मा वैसी ही मुखर है उनके भीतर जैसे किसी सामान्य बच्चे में ! आज भी कल की तरह धूप बहुत तेज है. माली ने काम किया ऐसी ही कड़कती धूप में. बगीचा अब शोभनीय होता जा रहा है. माली के बिना जैसे जंगल सा हो गया था वैसे ही मन उपवन भी सद्गुरू के बिना वीरान हो जाता है.

आज विश्वकर्मा पूजा है, पिछले कई वर्षों से इस दिन वे दफ्तर जाते थे. इस वर्ष जून यहाँ नहीं हैं सो उसका भी जाना नहीं हो सकता. कुछ देर पहले सभी को विश्वकर्मा पूजा का sms भेजा है, दो-तीन का जवाब भी मिल गया है. माली आज भी आया है, गुलाब के पौधों की कुड़ाई कर रहा है, अक्टूबर में, पूजा के अवकाश वे इसकी कटिंग करेंगे. उसका मन आज उदास है, मन है ही कहाँ, यह कहने से भी तो आज काम नहीं चल रहा है. रात को स्वप्न में चन्द्रमा दखा, पूर्णमासी का गोल चमकता हुआ चाँद, पर मन बीच में आ गया, कहने लगा देखो यह चाँद और उसी क्षण चाँद गायब हो गया. आत्मा में टिकना नहीं हो पाया, सद्गुरु से पूछे, वह क्या कहते हैं. वह तो कहते हैं जो दिखता है चाहे वह खुले नेत्रों से हो अथवा बंद आँखों से वह प्रकृति का ही अंश है, जो देखने वाला है वही वह है सो उसमें ही टिकना है, और वह कुछ करने से नहीं होने वाला, सहज हो जाये तो वही है उसके सिवा कुछ भी नहीं, इसलिए जब जैसी परिस्थिति आ जाये उसे स्वीकारते चलना है. सुबह देर से उठी तो सारे काम देर से हुए हैं, जल्दी भी नहीं है, दोपहर को छात्रा भी नहीं आ रही है. कम्प्यूटर काम नहीं कर रहा, उसके पास समय की बहुतायत है. डायरी के पन्नों की प्रतीक्षा समाप्त हो सकती है और कमल के पौधों की देखभाल भी !


कल वह ‘विश्वकर्मा पूजा’ में गयी, जून के एक सहकर्मी की पत्नी ने फोन किया और उसे साथ ले गयी. क्विज में भाग लिया, उनकी टीम जीत भी गयी. आज भी ट्यूशन नहीं थी सो सारी खिड़कियाँ साफ करवायीं, उनका घर अब बिलकुल साफ हो गया लगता है, बगीचा भी ठीक-ठाक लगता है. कल रात खिले कमल के पास बैठी रही, आकाश में चाँद था, झींगुरों की आवाज को छोडकर कोई ध्वनि नहीं थी. मौन था. इस समय दोपहर के दो बजे हैं, शाम का कार्यक्रम आरम्भ होने से पूर्व उसके पास पूरे दो घंटे हैं. आज भी मन मुक्ति का अनुभव नहीं कर रहा है. गुरूजी कहते हैं ऐसा ढाई दिन होता है, ऐसे में और भाव से साधना करनी चाहिए. शाम को सत्संग में भी जाना है. माँ अभी सो रही हैं, पूछो तो कहती हैं, उन्हें नीद कहाँ आती है, लेटी रहती हैं, उनके पास और कोई काम जो नहीं है, कितना सीधा सरल जीवन, कोई जवाब देही नहीं, कोई लक्ष्य नहीं, कुछ भी तो नहीं, बस ऐसे ही जिए चले जाना, उनके मन में भी विचार तो आते होंगे, पर ऐसी भाषा नहीं जो उन्हें व्यक्त कर सके. कल जो sms भेजे थे ज्यादातर अनुत्तरित ही रहे, उन्हें पता ही नहीं है कि विश्वकर्मा पूजा नामक कोई उत्सव भी होता है. अभी उसे Genesis of Imagination  पढ़नी है.     

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