आज ध्यान में कैसे सुंदर दृश्य दिखे, उनके भीतर भी एक सृष्टि है, जो बाहर है वही
भीतर भी है. परमात्मा को प्रेम करना उस सृष्टि में प्रवेश करने का प्रवेश पत्र है.
न जाने कितने जन्मों से वह परमात्मा उनकी राह देख रहा है, बाट जोह रहा है, पुकार
रहा है. आत्मा को जीने की इच्छा है, वह सुख-दुःख का संसार खड़ा कर लेती है, तब भी
भीतर का परम प्रेम ज्यों का त्यों रहता है, अछूता और निर्मल ! उस प्रेम को पाने की
शर्त यही है कि आत्मा स्वयं ही वह प्रेम बन जाये, जैसे लोहा आग बन जाता है और बीज
वृक्ष बन जाता है, वे पुनः अपने रूप को पाते हैं पर बदला हुआ रूप. उस क्षण तो
उन्हें मिटना ही होता है. आत्मा यदि एक क्षण को स्वयं को असीम सत्ता में लीन कर दे
तो वह क्षण उसके जीवन को बदल सकता है. ऐसे भी वह पल-पल मिट रही है, बदल रही है, यह
परिवर्तन उसके न चाहने पर भी होते ही हैं. यदि वह इस सत्य को स्वीकार ले कि जीवन
क्षण भंगुर है, इसमें कोई सार नहीं है. जन्म भर की कमाई मृत्यु के एक झटके में
समाप्त हो जाती है, जबकि आत्मा का विकास कभी पतन में नहीं बदलता, वह उन्नति की ओर
ही अग्रसर होता है. कैसा विरोधाभास है यहाँ लेकिन परमात्मा के क्षेत्र में संसार
के सारे नियम टूट जाते हैं. यहाँ का गणित ही उल्टा है. प्रेम, शांति, आनन्द,
ज्ञान, शक्ति और पवित्रता से बना परमात्मा ही उनकी असली पहचान है. न जाने वह कौन
सा क्षण रहा होगा जब उसे भूलकर उन्होंने यह आवरण ओढ़ा होगा. धीरे-धीरे वे इसमें
फंसते गये, फिर एक दिन याद आई और उसने उन्हें बुला लिया, कंकड़ छोड़ हीरे देने के
लिए !
शब्दों के जाल
में फंसे रहकर उन्हें कुछ मिलता नहीं, बल्कि उलझन और बढ़ जाती है. शब्दों के अर्थ
तथा उनके पीछे छिपे भाव ही उन्हें मुक्त करते हैं. कितनी ही सूचनाएं वे भर लें
अपने भीतर पर ज्ञान को उपलब्ध नहीं होते. जब तक भीतर की आवाज सुनने का अभ्यास नहीं
होता तब तक ज्ञान का केवल बोझ ही होता है. वास्तविक ज्ञान तभी मिलता है जब सहज
होकर जीना आ जाये, कोई आग्रह नहीं, कोई कामना नहीं, समय का सदुपयोग करते हुए हल्के
होकर जीना !
आज सुबह उसने
सुंदर वचन सुने थे, भगवान सिद्धांतों व श्रेष्ठताओं का समुच्चय है, आदर्शों का नाम
है, आदर्शों के प्रति जो त्याग और बलिदान है, वही भगवान की भक्ति है. प्रमाणिकता
जहाँ है वहाँ स्नेह, सामर्थ्य तथा सहयोग बरसता है.कोई प्रकाश की और चले तो छाया
पीछे-पीछे चलती है. देवता के पास है देवत्व, अर्थात गुण, कर्म और स्वभाव, तीनों की
अच्छाई को देकर देवता निवृत्त हो जाते हैं. साहसिकता भी दैवीय गुण है. देवत्व जब
आता है तब सहयोग बरसता है. देवता व्यक्ति के भीतर एक हूक, एक तड़प, एक उमंग, एक ऐसी
ललक पैदा कर देते हैं जो उसे आदर्शों की ओर बढने को विवश कर देती है.
सद्गुरू हर पल
उनकी रक्षा करते हैं, उनकी नजर उन पर है, हर घड़ी वह उनका ध्यान रखते हैं. कहते हैं
कि साधक उनका काम करें, वह साधकों का काम कर देंगे. वह कहते हैं कि साधना,
स्वाध्याय, सेवा और संयम ये चारों आत्मोकर्ष के लिए आवश्यक हैं. साधना कुसंस्कारी
जीवन को संस्कारी जीवन में बदलती है. स्वाध्याय मन की मलिनता को धोने का उपाय है. सेवा
से बड़ा तप और इससे बड़ा पुण्य कोई नहीं. इन्द्रिय, मन, समय तथा अर्थ का संयम साधकों
को करना है. ऐसा करने पर उन्हें चार नियामतें भगवान प्रदान करते हैं. पहला-ऋत, दूसरा-शौर्य,
तीसरा-साधन, चौथा है श्रम. ऋत से सत्य तथा
सत्य से तप की उत्पत्ति होती है.
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