Thursday, April 7, 2016

आदमीनामा


आजादी की इकसठवीं सालगिरह ! आज उन्होंने पहली बार झंडा ऊँचा लगाया है. ओशो कह रहे हैं सतयुग और कलियुग दोनों साथ-साथ चलते हैं, व्यक्ति पर निर्भर है कि वह किस युग में रहना चाहता है. उसका जीवन अंधकार से भरा हो अथवा प्रकाश से यह उसके ऊपर निर्भर है. राम, कृष्ण इसलिए पूजे जाते हैं क्योंकि उन्होंने सतयुग में रहना चुना, उनके साथ ही रावण, कंस तथा अँधेरे में रह रहे लोग भी थे. ‘मैं’ जब शुद्ध ‘मैं’ में परिवर्तित हो जाता है, अहंकार मुक्त हो जाता है तो सारे प्रश्न स्वयं हल हो जाते हैं.
आज भी घर में रंगाई-पुताई का काम चल रहा है. सारा घर अस्त-व्यस्त है, लेकिन उसका मन अनंत विश्राम में डूबा है. मजदूरों के रूप में भी वही चेतना है. वही जड़ में है वही चेतन में. वह जब एकटक कहीं देखती है, दीवार हो या घास का मैदान, सब कुछ रूप बदलने लगता है. जैसे सब कुछ पिघल रहा हो, नजर बदली तो नजारे बदले ! ऑंखें बंद करते ही जैसे आकाश नजर आता है नन्हे-नन्हे सितारों से युक्त ! भीतर व बाहर एक ही सत्ता है और सत्ता में परम शांति है, विश्राम है, आनन्द है, कितना अनोखा अनुभव है यह, कोई नहीं समझ सकता जब तक कि वह स्वयं ही न जाने. सद्गुरू ने उसे यह अनुभव कराया है, कृपा का पात्र समझा है. उनकी वह दृष्टि जो उस पर पड़ी थी, भीतर बीज बो गई थी, अब वह पनपने लगा है !
उनके देश में कितनी ही उन्नत, महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ संस्थाएं हैं, जहाँ ज्ञान है, प्रकाश है और जीवन-मूल्यों की शिक्षा दी जाती है. जहाँ कला है, विज्ञान है, शोध है, आदर्श हैं, समूह भावना है, जहाँ देश की विरासत को, प्रेम को बढ़ावा दिया जाता है. जहाँ सीखने का, जानने का और कुछ नया करने का जोश है, जहाँ सामान्य से ऊपर उठकर कुछ ऐसा करने की प्रेरणा मिलती है जिसका असर सारी मानवता पर पड़ता है अथवा तो जहाँ मानव अपने भीतर से जुड़ता है. वह भी अपने भीतर से जुड़ी है, जहाँ एक ऐसी सत्ता का साम्राज्य है जो प्रेम के तन्तुओं से बनी है, शांति जिसका आधार है और आनन्द के वस्त्र जिसने धारण किये हैं. वह सत्ता ज्ञान की तलवार लिए है और सुख के कमल पर बैठी है, वह पावन सत्ता उनमें से हरेक के भीतर है, सभी एक न एक दिन उसका ज्ञान पा लेंगे. सद्गुरू की कृपा से इस जन्म में उसे वह ज्ञान मिला है. उसका समय, उसकी ऊर्जा, उसकी वाणी, उसके विचार, उसकी बुद्धि सभी कुछ उसी से भरी हुई हो. वाणी में दोष अब भी बहुत दिखाई देता है, भीतर छल भी है और द्वेष भी साफ दिखाई देता है. अब से पूर्ण प्रयत्न करेगी कि ऐसी गलती दोबारा न हो. अभी कुछ देर में एक छात्रा पढ़ने आने वाली है, उसे ‘आदमीनामा’ पढ़ाया था. नजीर की यह कविता इसी फितरत पर तो बयान दर्ज करती है, आदमी कितने रंग बदलता है. रक्षक भी वही है, भक्षक भी वही है. कभी वह प्रेम का पुतला बन जाता है तो कभी क्रोध का अंगार, कभी द्वेष से भर जाता है तो कभी ऐसा अनुरागी कि उसे देखकर फरिश्ते भी शरमा जाएँ !

पिछले चार दिनों से डायरी नहीं लिखी, याद नहीं आता क्यों समय नहीं मिला. कल इतवार था सो तो ठीक है, शनि को भी वह सुबह योग सिखाने जाती है, शुक्र व गुरूवार को क्या व्यस्तता थी, उम्र के साथ-साथ याद भी कमजोर पड़ती जाती है. अगले वर्ष अर्ध शतक लग जायेगा. अभी कल की ही बात लगती है, विवाह से पहले घर के सामने रहने वाली एक पागल सी लडकी ने पूछा, कितने साल की हैं आप, तो ‘बीस’ जवाब में सुनकर वह बोली, इतनी बड़ी ! पर आज तो अर्ध शतक भी ज्यादा नहीं लगता. मन तो वैसा ही है बल्कि गुरूजी की कृपा से बच्चों जैसा हो गया है ! अभी-अभी एक सखी से बात की, उसे नन्हे के जॉब की खबर उसकी बिटिया ने दी है.   

No comments:

Post a Comment