Monday, April 25, 2016

मौन का सागर


भीतर मौन छा गया है, आजकल लिखना नियमित नहीं हो पाता, कभी-कभी लगता है कुछ करने को नहीं रहा, परम विश्रांति को पाया मन शायद ऐसा ही होता होगा. कोई चाहत नहीं तो कोई उद्वेग भी नहीं, कुछ पाना नहीं तो कुछ सोचना भी नहीं, इस जगत में जो प्रारब्ध शेष है उसे सहज भाव से स्वीकारना है और जितना सम्भव हो सके जगत को लौटाना है. सद्गुरू कहते हैं जगत और परमात्मा का भेद भी नहीं रहे, सब एक ही है, कोई विरोध नहीं, जब जो जैसी परिस्थिति आये उसमें वैसे ही मस्त रहना, जैसे आज सफाई कर्मचारी नहीं आया है, पर काम हो ही जायेगा.

भिवानी, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी, जोधपुर, उपरोक्त शब्दों और फोन पर हुई बात के आधार पर एक कविता लिखनी है एक परिचिता के लिए उनके विवाह की पचीसवीं वर्षगांठ पर ! इस समय दोपहर के एक बजे हैं. पुनः सुंदर वचन सुन रही है, संत कहते हैं कि आनन्द को पाने के लिए आनन्द से होकर ही गुजरना पड़ता है, जीवन को देखने की जैसी किसी की क्षमता होती है, जीवन वैसा ही दिखाई देता है. जीवन से छुटकारा धर्म का लक्ष्य नहीं, परम जीवन ही धर्म का लक्ष्य है. आनन्द के भाव से जीवन, उसका सौन्दर्य, सत्य उपलब्ध होता है. दुःख का भाव हटाकर आनन्द का भाव भीतर समोना होगा. जो जीवन को दुःख के भाव से देखना चाहता है वह गुलाब में कांटे ही देखेगा और जो जीवन को सुख के भाव से देखता है वह काँटों में फूल देखता है. दुखी, निराश व उदास चित्त अँधेरे को ही देखता है, आनन्द से भरा व्यक्ति अंधेरे को भी प्रकाश में बदल सकता है ! संसार और परमात्मा दो नहीं हैं, आनन्द के भाव में देखें तो यही संसार परमात्मा में बदल जाता है.


आज छब्बीस नवम्बर है, पिताजी की शादी की सालगिरह, माँ आज होतीं तो उनकी भी. कल नन्हा आ रहा है, इस समय ट्रेन में बैठा है. कल शाम को वह पब्लिक लाइब्रेरी की fund rasing meeting में गई. अच्छा अनुभव रहा. कल रात ध्यान के रहस्य के बारे में सुना, मन में उठते शब्दों का निरिक्षण करना चाहिए, चेतना जब किसी वस्तु को देख लेती है तो वह वस्तु विलीन हो जाती है, केवल शुद्ध चेतना ही शेष रह जाती है. ऋषिमुख में श्री श्री के विचार पढ़ते-पढ़ते भी ध्यान घटित होने लगता है. वह कहते हैं, चेतना ही निकटस्थ है, मन, बुद्धि व चित्त उसके बहुत बाद है, स्मृति और कल्पना में मन की ऊर्जा व्यर्थ जाती है किन्तु चेतना यदि स्वयं में रहे अर्थात मन चेतना में खो जाये तो ऊर्जा से भर जाता है. वे व्यर्थ ही अपनी शक्ति का अपव्यय करते हैं. जबकि शक्ति बनाने का कार्य उनके ही हाथ में है, कैसा अद्भुत ज्ञान है यह.. जिसे पाकर सारा जगत अपना हो जाता है, सहज समाधि घटित होती है और तब सारे शास्त्र, सारे कर्मकांड, सारी किताबें छोटी पड़ जाती हैं. अनुभव से प्राप्त ज्ञान का एक कण भी उधार के ज्ञान से बड़ा है. उसका मन शांत है क्योंकि इस क्षण वह शांति के उस सागर से जुड़ा है, वह जीवित है, जड़ नहीं है, वह प्रेमपूर्ण है और वह संतुष्ट है, वह है ही नहीं ! 

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