Monday, April 4, 2016

फेन, तरंग, बूंद


शाम के पांच बजे हैं. शाम का नाश्ता बना लिया है और रात के भोजन की तैयारी भी हो गयी है. जून आज देर से आने वाले हैं, सो उसने डायरी उठा ली है. मन पर नजर डाले तो एक इच्छा दिखाई देती है. आंटी के द्वारा कमल के फूल का फोटो देख लिया गया या नहीं, यदि हाँ तो उन्हें कैसा लगा, इसकी जानकारी मन चाहता है. लेकिन कल सवेरे ही उन्हें फोन करना ठीक रहेगा. इसी हफ्ते पुस्तकालय में एक मीटिंग है उसे जाना ही चाहिए. ‘साहित्य सभा’ से एक पत्र आया है जो उसे हिंदी पढ़ने आने वाली छात्रा पढ़कर सुनाएगी. सभी को राखियाँ व पत्र मिल गये हैं पर किसी ने भी जवाब नहीं दिया. आज मानव कितना भावना शून्य होता जा रहा है. उनमें वह भी शामिल है. खैर ! कलयुग का अंत समय है ( ब्रह्मकुमारियों के अनुसार ). बाहर मौसम अच्छा है, शीतल मंद पवन डोल रही है पर वह यहाँ अंदर बैठी है. प्रकृति के निकट जाने का कोई अवसर चूकना नहीं चाहिए. प्रकृति, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी में आत्मा है और जहाँ भी आत्मा है उससे ऊर्जा तो निकल ही रही है. सुबह चार बजे उठी और चालीस मिनट लग गये पानी पीने, नित्य क्रिया आदि करके योग के लिये बैठने में, सुबह वक्त कितनी तेजी से दौड़ता है. आज ध्यान भी एक घंटे से कम हुआ. राखी बनाना शुरू किया, कई सारी बना ली हैं. बनाना कितना सरल है. किसी भी वस्तु से, वस्त्र, ऊन या धागे से ही बनायी जा सकती हैं. सासु माँ बाहर बैठी हैं बरामदे में. वह शांत रहकर सुबह से शाम तक का वक्त कैसे बिना अशांत हुए गुजार देती हैं, अचरज होता है, सुबह टहलने जाती हैं, फिर आकर स्नान, नाश्ता आदि, कभी किचन में कुछ काम कर लेती थीं पर अब उनका मन नहीं होता. दोपहर को आराम करती हैं, कुछ देर टीवी, फिर शाम का भ्रमण और फिर केवल बैठना, शाम को टीवी देखना उन्हें ज्यादा पसंद नहीं है. बीच-बीच में दवा और मालिश आदि में कुछ वक्त जाता है. उनमें धैर्य बढ़ रहा है !
 
आज सुबह से परमात्मा उसे सचेत करने का प्रयत्न कर रहे हैं और उसने जैसे अचेत रहने की कसम खा ली है. सुबह अलार्म बजा तो पांच मिनट बाद उठी. बाथरूम में पानी गिरा दिया बिना इसकी परवाह किये कि बाद में अन्यों को भी बाथरूम इस्तेमाल करना है. नैनी की चाय बनायी तो गैस पर ही उबलती रह गयी, उसने भी ध्यान नहीं दिया. दलिया बनाया तो उसमें सब्जियां डालकर ही छोड़ दिया, दलिया डालना ही भूल गयी, तुर्रा यह कि एक बार खोल कर देखा भी तब भी समझ में नहीं आया कि कुछ गलती हुई है. कॉर्न फ्लेक्स में गाय के दूध की जगह अमूल डाल दिया. हर कदम पर गलतियाँ ही गलतियाँ. परमात्मा सोचता होगा सजग रहने का अब तो प्रयत्न करेगी पर ध्यान में भी वही इधर-उधर के ख्याल. मन टिकता ही नहीं था यह अस्थिर मन किसकी निशानी है, यह प्रमाद की निशानी है. मोह की निशानी. कुछ कर ले, कुछ बन जाये, कुछ पा ले, ऐसा जो ज्वर भीतर है, यह उसी की निशानी है. परमात्मा उन्हें झकझोर कर जगाता है. आँखें खोलो, क्या पाना है? कहाँ जाना ही ? क्यों इतनी भाग-दौड़, क्यों इतनी आतुरता, इतनी शीघ्रता, मन जैसे रेस में भाग रहा है, द्वन्द्वों से ग्रसित मन कहीं टिककर बैठता ही नहीं, ऐसा तो नहीं होता एक साधक का मन, यह सद्गुरू कहना चाहते हैं !
आज सुबह पुनः दस मिनट देर से उठी, पर अपेक्षाकृत मन सजग था सो अभी तक तो कोई भूल नजर नहीं आती, हाँ एक भूल जो हर पल, हर वक्त, चैबीसों घंटे, सातों दिन, बारह महीने जारी है, वह है वाणी की कटुता. वाणी का दोष ठीक नहीं करती है सो यह बढ़ता ही जा रहा है. इसी क्षण इसके प्रतिकार का मौका मिला है, अच्छा है, झट उपयोग कर लेना चाहिए. आज का सत्संग एक नर्सरी चलाने वाले के यहाँ है, पर उनका जाना सम्भव नहीं होगा. कल दिनकर की ‘कवि’ कविता पढ़ी. कवि का हृदय कोमल होता है किसी का भी दुःख हो उसे छू जाता है, उसका हृदय दूसरों की पीड़ा को अनुभव करता है, वह जीवन को एक ऐसे नजरिये से देखता है जिसमें सभी एक हैं, एक ही परिवार के अंग, सबका सभी कुछ साझा है. ऐसा कवि हृदय ही एक दिन परम सत्य की ओर बढ़ जाता है. कल शाम मीटिंग है, फिर एक सखी के यहाँ पूजा में जाना है, पता नहीं, दोनों जगह जाना सम्भव होगा या नहीं. जून कल ‘परंपरा पनीर मसाला’ लाये हैं, उसकी गंध से भी मन भर गया है जैसे भोजन कर लिया हो. सुबह उन्होंने वजन व रक्त दबाव नोट किया, ऊपर का नब्बे से भी कम है और नीचे का साठ से. वजन पचास से. बीपी कम होने से उसे कोई दिक्कत तो नहीं होती. कल जीजाजी ने पर्यावरण पर कुछ भेजने को कहा, उन्हें तीन कविताएँ भेजी हैं.


आज मौसम अपेक्षाकृत गर्म है, वर्षा नहीं हो रही है. सुबह थोड़ा जल्दी उठी, मन शांत है, जिसका बीपी इतना कम हो उसका मन शांत नहीं होगा तो क्या होगा. इस वक्त लग रहा है कि ऐसा कोई भी कार्य नहीं जो करना शेष हो. जैसे सारे कार्य हो चुके हैं. अब तो बस एक उसी की प्रतीक्षा है, यह भी क्या एक कार्य नहीं हुआ, प्रतीक्षा तो उसकी करें जो कहीं दूर हो, आने वाला हो, जो कहीं गया ही नहीं, सदा निकट ही है, जो स्वयं ही है वह भला क्यों और किसकी प्रतीक्षा करे, तो प्रतीक्षा भी नहीं बस अपने होने का अहसास लेकिन इस अपने होने में अहंकार नहीं, केवल होने का अहसास. जब ‘मैं’ ही नहीं रहा तो करेगा कौन, कर्ता नहीं है केवल एक सत्ता है, वह सत्ता सहज रूप से कर्म होते देखती है, शरीर के भीतर श्वास आ जा रही है, दिल धड़क रहा है, हाथ लिख रहा है, मन संकल्प उठा रहा है, लेकिन इन सबको एक सूत्र में बाँधने वाला कोई नहीं, ये सब वैसे ही हैं, जैसे जल में तरंगे, बूंदें, लहरें, फेन सभी अपने आप में स्वतंत्र भी और एक भी !

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