Thursday, April 28, 2016

इंटरनेट की दुनिया


एक शिष्य के जीवन में दो ही ऋतुएं होती हैं, एक जब वह सद्गुरू की निकटता का अनुभव करता है और दूसरी जब वह उनसे दूरी का अनुभव करता है. आजकल उसके जीवन में दूसरा मौसम चल रहा है, लेकिन उनकी ‘कृपा’ असीम है कि वह उसे इस ऋतु में नहीं देखना चाहती, वह पुनः उसी निकटता का अनुभव कराना चाहती है, जिसे पाकर उनके भीतर एक प्रेम की लहर दौड़ जाती है. आज भी सद्वचन सुने थे, खुदा का अर्थ है जो खुद आये, उन्हें केवल इंतजार करना है. काल के दायरे में रहने पर मन उन्हें इस दुनिया में खींच कर ले जाता है, पर उन्हें काल से परे उस देश में जाना है, जहाँ आनन्द का मौसम है. उस दुनिया में उड़ान भरने के लिए वे उन्हें बार-बार बुलाते हैं. उनकी पुकार को वे अनसुनी कर ही नहीं सकते, इतनी शिद्धत से वह उन्हें पुकार रहे हैं.

‘मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे, जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि पुनि ताते आवे’ उसके मन की भी ऐसी ही दशा है आजकल. पुण्य उदय होते हैं तो भीतर प्रकाश छा जाता है, गुरु की कृपा का अनुभव होता है. उसकी आध्यात्मिक यात्रा भी बीच में ही दम तोड़ देती यदि कृपा ने पुनः हाथ पकड़ कर न उठा लिया होता. साधक थोड़े से अनुभव पाकर ही स्वयं को ज्ञानी, ध्यानी समझने लगता है. उसे लगता है अब गुरू की क्या आवश्यकता, भीतर से आनंद मिलने लगता है तो वह सोचता है अब स्वनिर्भर हो गया, पर उसे पता नहीं कि उसकी सामर्थ्य ही कितनी है, तत्वज्ञान हो जाने पर भी उसमें टिके रहना सरल नहीं. पूर्वजन्मों के संस्कार कब प्रकट हो जाएँ. उसे पिछले दिनों अपनी कमियों का अहसास कई तरह से हुआ. उसका ज्ञान अल्प है, तुच्छ है, अधूरा है. उसकी भाषा भी संयत नहीं है और उसका समाज के लिए कोई योगदान भी विशेष नहीं है. ऐसे में व्यर्थ ही स्वयं को विशेष मानने की भूल करना अहंकार ही तो है. ध्यान में कई अच्छे अनुभव हुए हैं पर अभी यात्रा बहुत शेष है, अभी तो वे कुछ भी नहीं जानते, कल क्लब की अध्यक्षा ने उसे क्लब की तरफ से मृणाल ज्योति का संयोजक नियुक्त किया, उनसे मिलकर कार्यों की जानकारी लेनी होगी.


गुरु माँ गा रही हैं, ‘प्रभो जी मोरी विनती सुनो’, इंटरनेट पर उनका भजन सुन पा रही है. गीता पर उनका प्रवचन भी उपलब्ध है. नन्हे का कम्प्यूटर कल ठीक हो गया, वह मानसिक रूप से परिपक्व है पर अपने स्वास्थ्य तथा नींद का ख्याल नहीं रखता. उसे उसने कहा, child is the father of the man यह कहावत उसने सिद्ध कर दी है. कल पिता जी से बात हुई, उन्होंने उसकी किताब पूरी पढ़ ली है, उन्होंने कहा कि यह किताब उसने दिल से लिखी है, कुछ दिनों से कुछ नया नहीं लिखा. आज बहुत दिनों बाद कायोत्सर्ग ध्यान किया. सद्गुरू को भी सुना वह कह रहे थे भीतर जो अधूरापन, तलाश जारी है वह साधक को जड़ नहीं बैठने देती, वह उसे आगे बढ़ने को प्रेरित करती है, प्रभु अनंत है, उसका ज्ञान अनंत है, उसे जानने का दावा करने वाले वे उसकी शक्ति का एक कण भी तो नहीं है, प्रेम की एक बूंद भी तो नहीं हैं और ज्ञान की बस झलक भर ही तो पायी है, इसलिए साधक बार-बार उड़ान भरता है और अनंत आकाश की एक झलक पाकर उसे लगता है कि कुछ मिला तो थोड़े दिन बाद फिर कुलबुलाहट होने लगती है कि कुछ और है जो अनजाना है, कि वे तो कुछ जानते ही नहीं !

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