Tuesday, September 1, 2015

पुनर्नवा


आज ‘गुरू पूर्णिमा’ है. सद्गुरु की कृपा का अनुभव उसे कल से ही हो रहा है. कल शाम को स्वयं ही मंत्रजाप होने लगा, आँखों से जल कृतज्ञता स्वरूप बहने लगा. सुबह क्रिया में अपने आप ही दर्शन होने लगे. मन कितने उच्च भावों में स्थित है. जीवन में सद्गुरु का आना एक विलक्षण घटना है. यदि उसके जीवन में यह न घटा होता तो कितना अधूरा होता यह जीवन ! गुरू नई जीवन दृष्टि देते हैं, असत से सत की ओर ले चलते हैं. साधना से समाधि की ओर ले चलते हैं. मन की बिखरी हुई ऊर्जा को एक दिशा प्रदान करते हैं. जब जीवन में यह प्रश्न जगता है कि आखिर यह जगत क्यों ? कहाँ से आया, और वे यहाँ क्यों हैं तो इन प्रश्नों का उत्तर सद्गुरु ही देते हैं. भीतर की सोयी चेतना को जगाकर वह सत्य स्वरूप से परिचय कराते हैं. साधक को जिस क्षण लगता है कि वह पूर्ण है, प्रेम का सोता फूट पड़ता है, भीतर सरसता छा जाती है तो बाहर भी उसकी तरावट का अहसास होता है. जीवन में एक गति, एक लय का जन्म होता है. गुरू तत्व यूँ तो हर तरफ फैला है पर साधक की उस तक पहुंच नहीं है, एक बार जब भीतर उसकी झलक मिल जाती है तो हर जगह उसका दर्शन होने लगता है. जीवन में कोई कमी रह जाये तो गुरू कदम-कदम पर मार्ग दर्शन करता है. वह पुरानी सारी मान्यताओं को छुड़ाकर नया बना देता है, ‘पुनर्नवा’..जो गुरूजी की एक पुस्तक का नाम भी है. भीतर जड़ता समाप्त हो जाती है, विवेक नया सा हो जाता है और प्रतिक्षण बढ़ता रहता है..आत्मा में रहकर ही यह सम्भव है, अहंकार तो जड़ है वह सिकुड़ना जानता है, मन रक्षात्मक है, आत्मा प्रेमात्मक  है !  

आज ध्यान में उसे अद्भुत अनुभव हुआ. रंगीन प्रकाश तथा रंगीन छोटी-छोटी कांच या पत्थर की गोलियां दिखीं, बेहद सुंदर और चमकती हुई. पहले तो कभी ऐसा नहीं दिखा. बाद में उसने स्वयं के शरीर को आग में जलते हुए देखा पर उस पर कोई असर नहीं हो रहा था. गुरू माँ ने बताया कि जो नींद में स्वयं को देख लेता है वह मृत्यु से डरता नहीं. जो हर पल अपने भीतर के प्रति सजग हो गया है, वह मुक्त है, मृत्यु से भी मुक्त है वह ! कल शाम वे सत्संग में गये उससे पूर्व वह उन परिचिता के घर गयी जिनके पति की मृत्यु बोन मैरो के कैंसर से हो गयी. वह दुःख की साकार मूर्ति लग रही थीं. कल शाम मुम्बई में ग्यारह मिनट में सात विस्फोट हुए. लोगों ने साहस का परिचय दिया, समय के अनुसार लोगों को भीतर से साहस भी मिलने लगता है.

कल रात स्वप्न में स्वयं को देखा, मन ही स्वप्न रचता है व उसको भोगता है, मन की दुनिया निराली है, पर उसे इस मन से पार जाना है, जहाँ तक मन की सीमा है, वहाँ तक सुख-दुःख का घेरा है उसके पार जाते ही अखंड आनंद का सागर लहरा रहा है, उसे उसी सागर में ड़ुबकी लगानी है, किनारे पर खड़े होकर चंद बूँदें ही अभी उसे मिली हैं, उन फुहारों में भीगकर मन तृप्त हो रहा है, जब तृप्ति पर्याप्त नहीं लगेगी, प्यास और बढ़ेगी तो आगे बढना ही होगा..सद्गुरु सागर के उस तट से पुकार रहे हैं, वे अभी इसी तट पर हैं, उनके पास पहुंचने के लिए वे ज्ञान की नाव भेज रहे हैं, भक्ति और श्रद्धा की पतवारें भी उन्होंने दी हैं. वह नाव में बैठ भी चुकी है, उस तट पर जाने की यात्रा ही कितनी सुखद है..आज सुबह पाँच बजे के बाद नींद खुली, नन्हा अभी कुछ देर पहले सोकर उठा है, और अब टीवी देखने लगा है. बचपन और युवावस्था कितने बेफिक्र होते हैं, जीवन के गूढ़ प्रश्नों से बेखबर, उसने भी अपने जीवन के इतने वर्ष ऐसे ही बिताये होंगे पर अब समय नहीं खोना है. भीतर की जागृति हर पल कायम रहे, पर ऐसा होता नहीं है. खासतौर से तब, जब वह अन्य लोगों से व्यवहार कर रही होती है. एक अजीब सा रूखापन जबान में आ जाता है. एक शुष्कता सी, जो मध्य के सम्बन्ध को और बिगाड़ देती है. जब उसकी कोई चाह शेष नहीं रह गयी तो जगत उससे माँग क्यों करता है कि सदा उसकी तरफ प्रेम भरी दृष्टि से ही देखे. सही को सही और गलत को गलत कहने की छूट क्या नहीं मिलनी चाहिए, पर दुःख देकर मन स्वयं भी दुखी होता है !

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