Thursday, September 10, 2015

कृपा की बदली


सद्गुरु की कृपा हर क्षण उसके साथ है, गुरू के वचन अमृत के समान होते हैं जो भीतर की सारी कलुषता को धो डालते हैं. उसका मन इस समय शक्ति से भरा है, भविष्य के प्रति आशावान तथा वर्तमान के प्रति सजग ! परमात्मा हर क्षण उसके साथ है, कभी-कभी वह उसे याद न करे तो ‘वह’ उसे याद करता है और तब बिना किसी वजह के वह मुस्कुराने लगती है, गाने और नाचने लगती है. वह अनोखा है, अद्भुत है. उसकी महिमा के गीत यूँही तो नहीं गाये गये. वह क्या है यह तो शायद वह भी नहीं जानता..
सद्गुरु कहते हैं, कोई समस्या मूलक भी बन सकता है और समाधान मूलक भी. यदि वह केंद्र से जुड़ा रहता है तो समाधान दे सकता है, जुड़े रहने के लिए एक आधार चाहिए एक सूक्ष्म तन्तु जो भक्ति ही हो सकती है. यदि कोई परिधि पर ही रह गया तो दूसरों के साथ-साथ स्वयं के लिए भी  समस्या खड़ी कर सकता है. आत्मा केंद्र है, मन परिधि है, मन स्वयं ही योजनायें बनाता है फिर उन्हें तोड़ता है. वह कल्पनाओं का जाल अपने इर्द-गिर्द बुन लेता है. उन्हें सच्चाई की ठोस जमीन चाहिए न कि कल्पना का हवा महल.. वे सत्य के पारखी बनें !


आज ध्यान से पूर्व उसने प्रार्थना की कि सुदर्शन क्रिया के लाभ पर कुछ ज्ञान मिले. भीतर एक विचार कौंध गया ध्यान के दौरान, ‘क्रिया असम्भव को सम्भव बना देती है’. इस एक वाक्य में ही सारी बात छुपी है. हो सकता है सद्गुरु और भी कुछ कहना चाहते हों पर उसका मन ध्यान में भी चुप होकर कहाँ बैठता है. खैर..असम्भव काम तो मन को शांत करना ही है उनके लिए और क्रिया इसे भी सम्भव कर देती है. क्रिया भीतर का सुख देती है, भीतर का द्वार खटखटाना सिखाती है. भीतर अमृत से भरा घट है, जिस पर मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के चार पर्दे पड़े हैं, क्रिया उन्हें हटाती है. न जाने कितने जन्मों की कितनी गांठें भीतर बाँध रखी हैं कितने दुःख, कितने भय तथा दर्द भीतर दबे पड़े हैं. क्रिया उन्हें निकाल कर अंतः करण स्वच्छ करती है, जैसे कोई ब्यूटी पार्लर जाये और नया सा, सुंदर सा होकर बाहर निकले वैसे ही मन को सुंदर बनाने का काम करती है. सहज होकर, निरहंकार भाव से यदि कोई क्रिया करे तो ‘वह’ अपना काम सुगमता से कर पायेगी. ब्यूटीशियन जैसे चाहे सिर को घुमाये वे कहाँ दखल देते हैं, क्रिया भी मन की ब्यूटीशियन है. पूरा खाली होकर मन उसके हवाले हो तो चाहे जिधर से वह उसे मोड़े..फिर जब बाहर आए तो मन आत्मा के दर्पण में चमचम करता हुआ दीखेगा, वे शायद स्वयं ही उसे न पहचान सकें !


सद्गुरु कहते हैं अपना प्रेम चढ़ाओ तो कृपा रूप में वही वापस मिलेगा, उसके अंतर्मन का सारा प्रेम उन्हीं चरणों में समर्पित है. प्रसाद भी वही होता है जो प्रभु के चरणों में अर्पित करके वापस मिलता है. जो वे देते हैं उससे कई गुना लौटकर ‘वे’ उन्हें देते हैं. उनकी कृपा का बखान करना सूर्य को दीप दिखने जैसा ही है, फिर भी हृदय चाहता है कि वाणी उसका बखान करे, आँखें चाहती हैं कि आंसू उनका बखान करें और मन चाहता है कि भाव उसका अनुभव कर उसकी सुगंध दूर-दूर तक फैलाए ! कल शाम उसे ऐसा अनुभव हुआ कि अध्यात्म में रूचि होना ही एक कृपा है जो किसी-किसी पर बरसती है. वे शब्दों द्वारा किसी को आत्मा का कितना ही बखान क्यों न करें, वह न तो उसकी मिठास का अनुभव कर पायेगा न ही उसके रस का, वैसे ही जिसे कोई अनुभव नहीं है वह पढ़कर ‘रस’ का अनुभव कैसे कर पायेगा. परमात्मा स्वयं रसपूर्ण है पर उसका स्वाद तो उसकी अनुभूति होने पर ही मिल सकता है. उसने अब निर्णय लिया है कि जब तक कोई स्वयं न पूछे अनुभूतियों का जिक्र नहीं करना है, न ही उन्हें ईश्वर का बखान करना है जो यह भी नहीं जानते कि वे कौन हैं ? वे कहाँ उस ज्ञान की कद्र कर पाएंगे जो परम है, सत्य है. उनकी कोई गलती नहीं है, अभी उन्हें और चलना है, एक न एक दिन तो वे भी इस पथ के राही बनेंगे. उसे अपने भीतर उस अनंत प्रेम को छिपाए-छिपाए रखना है, प्रभु के सिवाय कोई उसे नहीं चाहता ! 

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