Tuesday, September 29, 2015

दीपों का उत्सव


कल दीपावली है, उन्होंने रात को दीवाली भोज का आयोजन करने का निश्चय किया है. छह-सात परिवारों को बुलाया है. आज छोटी दीवाली है, दोपहर को गुलाबजामुन बनाने का विचार है, कुछ देर के लिए क्लब भी जायेंगे. कल सुबह बच्चों को मिठाई बांटने तथा योग की कक्षा लेने भी जाना है, सो कल का दिन व्यस्तता में बीतने वाला है. आज जून को लंच पर घर आने में एक घंटे की देर हो गयी है, फोन भी नहीं किया, उसके शरीर पर भूख के लक्षण अथवा तो कहें समय पर भोजन न  मिलने के लक्षण दिखाई दे रहे हैं. कल शाम को कई रिश्तेदारों से फोन पर बात हुई, त्योहार पर भीतर से जुड़ने की स्वाभाविक इच्छा जगती है. उत्सव मानव के जीवन में सरसता तो लाते ही हैं, उन्हें जोड़ते भी हैं. अभी-अभी उसने जून को फोन किया तो उन्होंने काट दिया, शायद किसी मीटिंग में हैं, और अब फोन आया, दस मिनट में आ रहे हैं.
खो जाता है छोटा मन
उत्सव घटता है
दुखों से मुक्ति का मिलता है प्रसाद
उजाले की प्रसाद युक्त आभा भर जाती है भीतर
कृतज्ञता और आनंद के मध्य में है वह
एक सौभाग्य है जिसका मिलना..
अंधकार में छिपे ढके
कुछ रह जाते हैं विहीन उससे
वंचित जीवन की एक बड़ी उपलब्धि से
खो देते हैं इस सुंदर संपदा को...   

दीपों का यह उत्सव अंतर्मुख होने के लिए है, पूरे वर्ष का लेखा-जोखा करने के लिए है. पाप और पुण्य की बैलेंस शीट बनाने के लिए है. पुण्य होने से जमा होता है और पाप से उधार होता है. क्रोध आदि पाप बाँधते हैं और प्रेम पुण्यशाली है. उन्हें देखना है कि किस तरह यह बैलेंस शीट ठीक रहे, नुकसान न हो, मुनाफा बढ़े. उनसे किसी को दुःख न हो, यदि हो भी गया तो तुरंत प्रतिक्रमण कर लें. यह जगत प्रतिध्वनित करने वाला कुआं है, उनके कर्मों के अनुसार ही उन्हें फल मिलते हैं. दीवाली पर वे यह तय करें कि सुख की दुकान खोलनी है. उनके जीवन में जो भी कोई आये उसे उनसे केवल सुख ही मिले..उनके जीवन का पूर्ण लाभ इस जगत को मिल सके, वे स्वयं को पूर्ण अभिव्यक्त कर सकें तभी उनका इस जगत में आना सार्थक होगा. उनका वास्तविक कर्त्तव्य क्या है ? धर्म क्या है ? यह गुरू ही बताते हैं. टीवी पर मुरारी बापू कह रहे हैं कि मानव जीवन पाकर भी जो भीतर की मुस्कान को जाग्रत नहीं कर सका वह पूर्ण जीया ही नहीं और वह धर्म भी धर्म नहीं जो सहज मुक्त रूप से हँसना नहीं सिखा देता.

पिछले हफ्ते मंगल को वे गोहाटी गये, माँ-पापा वापस चले गये हैं. उस दिन के बाद आज सोमवार को डायरी खोली है. इस समय सिर में हल्का दर्द है, सम्भवतः अपच के कारण. किसी ने ठीक ही कहा है, पहला सुख नीरोगी काया, उधर ससुराल में माँ को भी सिर में थोड़ी सी चोट लग गयी है वह गिर गयी थीं जब शाम को गली में टहलते समय भैंस ने उन्हें गिरा दिया. जीवन में सुख-दुःख एक क्रम से आते ही हैं. आज सुबह ध्यान करने बैठी तो कितने सारे विचार आ रहे थे, मन अपनी सत्ता बनाये रखना चाहता है. यात्रा के दौरान कई बार ऐसा लगा कि मन खाली हो गया है, कितनी शांति का अनुभव होता था तब, कल पिताजी से बात हुई, उनका जन्मदिन धूमधाम से मनाया गया. बड़ी बुआ व फुफेरी बहन का फोन नम्बर उन्होंने दिया, दोनों अस्वस्थ हैं, शाम को वह बात करेगी.

पुनः-पुनः वह असजग होती है और पुनः-पुनः सद्गुरु के वचन मन को नये विश्वास से भर देते हैं. वह फिर अज्ञात की ओर चल पड़ती है, वह परमशक्ति जो अपना अनुभव तो कराती है पर दिखाई नहीं देती. जगत दीखता है, मन दीखता है, विचार तथा भावनाएं दिखती हैं पर वे जहाँ से प्रकटे हैं वह स्रोत नहीं दीखता. ध्यान में वह उसी में स्थित होती है पर ध्यान भी तो ज्यादा गहरा नहीं हो पाता, यहाँ-वहाँ का कोई विचार आ ही जाता है. सद्गुरु से की गयी प्रार्थना ही मनोबल बढ़ाती है.  




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