आज उसने सुना, “जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न चेतना का विकास ही
है, पदार्थ चेतना को प्रभावित करते हैं. शुद्ध हुई चेतना ही आत्मा के पथ पर ले
जाती है. आत्मा मन, बुद्धि तथा संस्कार के माध्यम से जगत को ग्रहण करती है तथा
इन्हीं के माध्यम से स्वयं का अनुभव करती है, यदि देह में रहते हुए आत्मा का अनुभव
करना है तो इन्हें शुद्ध बनाना होगा. मन में शुभ संकल्प उठें तथा बुद्धि उन्हें
साकार करने का निर्णय दे तभी शुभ संस्कार बनेंगे. वर्तमान में रहना, प्रतिक्रिया न
करना, मैत्री भाव तथा मिताहार बुद्धि को शुद्ध करने के लिए आवश्यक हैं”. उसका शरीर इस समय तप रहा है, बिना बुखार के. कुछ ही
पलों में पसीना निकलेगा और तपन शांत हो जाएगी, आजकल ऐसा दिन में दो-तीन बार तो हो
ही जाता है. उम्र के इस दौर में ऐसा होना स्वाभाविक है डाक्टर ने कहा है.
आज महीनों बाद मृणाल ज्योति गयी. माहौल थोडा शांत व हल्की उदासी से ओत-प्रोत
लगा. बच्चे भी पहले की तरह हँसते हुए नहीं लगे. एक बच्चे ने कहा, फिर मिलेंगे. मन
में करुणा जगी, कितने विवश लगे वे, उनकी आत्मा उन अधूरे शरीरों में कितनी तंग होती
होगी, कौन जाने उनके भीतर कैसे विचार उठते
हैं? वे अपने को व्यक्त कहाँ कर पाते हैं ? उनकी एक टीचर ने शाम को फोन किया, वह
कम वेतन के बारे में बात कर रही थी. स्कूल के अधिकारियों ने बताया कि वे तंग आ
चुके हैं सरकार की योजनाओं का पूरा लाभ उन्हें नहीं मिल पाता है. सरकारी अधिकारी काम
को आगे नहीं बढ़ाते. संसार में कितने दुःख हैं. आतंक का शिकार यह प्रदेश कितना
पिछड़ा हुआ है. गाँधी जी ने सेवा को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया, सेवा के माध्यम
से वह अपने सत्य और अहिंसा के साधनों की परख करते थे. उसके जीवन में सेवा के अवसर
अब थोड़े-बहुत आने लगे हैं पर वे बहुत कम हैं. जून उसकी पूरी मदद करते हैं. वह उसे
ईश्वर से दूर ले जाने का प्रयत्न करते हुए ईश्वर के निकट ले जाते हैं. वह अभी इस
बात को नहीं समझते कि ईश्वर से प्रेम करना मानवीय आवश्यकता है. उसे उनसे कोई
वाद-विवाद नहीं करना चाहिए, उनकी समझ में तो यह पागलपन ही है. वह तो उन्हें
शुद्धात्मा ही देखती है और इस सृष्टि के जर्रे-जर्रे की तरह उनसे भी असीम प्रेम
करती है. ईश्वर हर क्षण उसके साथ हैं और ईश्वरीय प्रेम उसके भीतर-बाहर हर ओर फैला
है. यह सारा जगत उसी का रूप है. मनसा-वाचा-कर्मणा वह किसी का अहित न करे, यही उसका
प्रयास है. वह उसकी इच्छा की पूर्ति तत्काल करते हैं और सोचते हैं कि जगत के मोहजाल
में उसे खींच लेंगे, पर उसकी वे सारी इच्छाएं परमात्मा के मार्ग पर ले जाने वाली
ही हैं. वह भी तो पुण्य के भागी हो रहे हैं. उसका हृदय प्रेम से लबालब भरा है. इस
प्रेम का कारण कोई नहीं, पात्र भी कोई नहीं. यह तो सहज ही है सारी समष्टि के लिए
और उससे परे उस परम पिता परमात्मा के लिए, बल्कि वही तो प्रेम रूप में उसके भीतर
विराजमान है !
पिछले कुछ दिनों से वह बापू की आत्मकथा पढ़ रही थी, अभी कुछ देर पूर्व ही
समाप्त की. वे सत्य के अन्वेषक थे और उनका साधन एकमात्र अहिंसा था. अहिंसा के बल
पर वे सत्य की खोज कर रहे थे. बुद्धि की शुद्धि के बिना कोई अहिंसा का पालन नहीं
कर सकता और राग-द्वेष से मुक्त हुए बिना वह सम्भव नहीं. राग-द्वेष से मुक्त होने
के लिए अहंकार का सर्वथा त्याग करना होगा, स्वयं को भुलाकर समष्टि के साथ एकता का
अनुभव करना होगा. उसके बाएं कान में सुबह से तथा इस समय दायें कान में सोहम् की
मधुर गुंजन सुनाई दे रही है, भीतर अखंड शांति का साम्राज्य है.
आज सुबह पिता जी आ गये, जून रात्रि को ढाई बजे ही उन्हें लेने चले गये थे.
सासुमाँ बहुत खुश हैं, वे अपने साथ खाने-पीने का ढेर सारा सामान लाये हैं. दीपावली
का त्योहार आने ही वाला है, तैयारी तो हफ्तों पूर्व ही आरम्भ हो जाती है. वे अपने
भीतर भी दीवाली मनाते हैं और बाहर भी, भीतर की सफाई तथा शुद्धि भी करते हैं जैसे
बाहर की. अमावस के अंधकार का प्रतीक है अज्ञान..जिसे आत्मज्ञान का दीपक जलाकर
मिटाना है. मधुर भावों की मिठास से उर को मीठा करना है. उसके भीतर भी उजाला ही
उजाला हो, चिदाकाश में दीप जले हों, अनहद का संगीत गूँजता हो तो ही सदगुरू की
शिक्षा की अधिकारिणी वह कही जा सकती है. आज उन्हें सुना, नारद भक्ति सूत्र के आधार
पर वह व्याख्या कर रहे थे, प्रेम का वर्णन नहीं कर सकते, वह भाव से परे है,
भावुकता प्रेम नहीं है, भीतर की दृढ़ता ही प्रेम है, सत्यप्रियता ही प्रेम है और
असीम शांति भी प्रेम का ही रूप है. भीतर ही भीतर जो मीठे झरने सा रिसता रहता है वह
भी तो प्रेम है. प्रभु हर पल प्रेम लुटा रहे हैं. तारों का प्रकाश, चाँद, सूर्य की
प्रभा, पवन का डोलना तथा फूलों की सुगंध सभी तो प्रेम का प्रदर्शन है. प्रकृति
प्रेम करती है, घास का कोमल स्पर्श और वर्षा की बूंदों की छुअन सब कुछ तो प्रेम ही
है. वृद्ध की आँखों में प्रेम ही झलकता है शिशु की मुस्कान में भी प्रेम ही बसता
है. प्रेम उनका स्वभाव है और प्रेम से ही वे बने हैं. प्रेम ही ईश्वर है !
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