वे कितनी साधना करते हैं पर क्रोध,
लोभ, मान, माया तो खत्म नहीं होते. जब तक यह ज्ञात नहीं होता कि वे कौन हैं? कर्ता
कौन है? आत्मा में स्थिति हुए बिना वे कभी भी दुखों से मुक्त नहीं हो सकते. आत्मा
अकर्ता है तो वह भोक्ता भी नहीं हुआ. वे वास्तव में वही चैतन्य हैं, मन, बुद्धि,
चित्त, अहंकार तो आत्मा की ही शक्ति से हैं. कल से वह ‘गॉड लव्स फन’ पढ़ रही है. गुरूजी
का ज्ञान अनमोल है, अनोखा है, अद्भुत है और अनुपम है. कितनी सरल भाषा में कितने
गूढ़ विषय को वह समझा देते हैं. कुछ वर्ष पहले यह पुस्तक पढ़ी थी पर अब कुछ भी याद
नहीं था. यूँ तो सारा ज्ञान उनकी आत्मा में ही है, सद्गुरु उनकी आत्मा ही तो हैं.
वह ईश्वर के सच्चे प्रतिनिधि हैं जो उन्हें उनका परिचय कराने आये हैं. वह कहते हैं
कि उन्हें प्रसन्न रहकर अपने जीवन को एक खेल समझते हुए, एक उत्सव समझते हुए जीना
चाहिए. उनका ध्यान अपने मन की समता पर होना चाहिए, परिस्थितियां कैसी भी हों, उनसे
प्रभावित न हों क्योंकि यह जगत भ्रम रूप ही है अर्थात स्वप्न रूप ही है, यहाँ कुछ
भी स्थायी नहीं है, जब यह जीवन ऐसा ही है तो इसे लेकर इतना गम्भीर होने की क्या
आवश्यकता है, इस जीवन में उन्हें बाहर से ख़ुशी लेने की भी जरूरत नहीं है. वे स्वयं
ही ख़ुशी के स्रोत हैं. उनके मन की उलझन का कारण यही है कि वास्तव में वे जानते
नहीं कि कौन हैं ?
पिछली दो रात्रियों से ॐ ध्यान करके सोये वे पता ही नहीं चला रात्रि कैसे बीत
गयी. स्वप्न भी नहीं आये, आये भी होंगे तो याद नहीं रहे. मन में हर क्षण उसी
परब्रह्म की स्मृति बनी हुई है. ध्यान में ऐसा अनुभव हुआ कि वह बिलकुल निकट ही है.
वे जो भी सोचते हैं वह भी तो उसी स्रोत से आता है. लेकिन वह सारी सोचों से परे है.
आज मौसम ठंडा है, रात को वर्षा हुई है. शाम को पंजाबी सखी के यहाँ सत्संग है. आज
जून माँ को अस्पताल ले गये थे सुबह, अपने स्वभाव के अनुसार वह परेशान नजर आ रही
थीं. घर में सबको शांत देखकर वह भी अब बदल रही हैं. परमात्मा ने उन्हें इसलिए ही
निकट रखा है कि वे एक-दूसरे से कुछ सीखें ! आज सुबह सद्गुरु को सुना ‘नारद भक्ति
सूत्र’ पर उनके प्रवचन कितने गहरे हैं और कितने सरल भी, प्रेम को वे लाख चाहें,
पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं कर सकते. उनके भीतर प्रेम का दरिया ठाठें मार रहा है, वे
उसे महसूसते हैं पर बाहर नहीं ला पाते. संत पारदर्शी हो जाते हैं. उनके भीतर का
प्रेम बाहर रिसने लगता है.
भक्ति, ज्ञान तथा कर्म ये तीनो आपस में जुड़े हैं परमात्मा का ज्ञान होने पर
भीतर भक्ति का अनुभव होने ही लगता है और तब सद्कर्म होने लगते हैं या वे सद्कर्म
करते हैं तो ज्ञान का उदय होता है और तब भक्ति मिलती है, अथवा तो भक्ति धीरे-धीरे
ज्ञान तक ले जाती है फिर निष्काम कर्मों तक. उसके जीवन में भक्ति है, ज्ञान है तथा
कर्मों का आरम्भ हो चुका है. इस शरीर को बनाये रखने के लिए भगवान की सुंदर
व्यवस्था है, मन भक्ति में लगे इसकी भी व्यवस्था प्रभु ने उसके लिए कर दी है.
ज्ञान के साधन हैं, सत्संग है, जो कुछ एक साधक को चाहिए वह सभी कुछ है देर
परमात्मा की तरफ से नहीं है, देर जो भी है वह उसकी तरफ से ही है.
वही सच्चा पुरुषार्थ है जो आत्मा के लिए किया गया हो. इस क्षण हृदय शांत है,
अभी कुछ देर पूर्व ही वह ध्यान करके उठी है. भीतर के सारे द्वंद्व समाप्त हो गये
हैं. यह जगत तथा शरीर दोनों समानधर्मी हैं, परिवर्तनशील तथा सुख-दुःख के कारण. किन्तु
आत्मा परमात्मा का अंश है सो सदा अछूता है. मन इन दोनों के बीच का पुल है, वे इस
पुल पर खड़े हैं. चाहे तो आत्मा के आनंद को प्राप्त करने के लिए भीतर उतरें अथवा
जगत की ओर मुड़ें, जहाँ छलावा ही छलावा है. मन के इस पुल पर खड़े उन्हें कितने जन्म
बीत गये हैं, वे कभी इधर तो कभी उधर का रुख लेते हैं, फिर दोनों से घबराकर बीच में
आ जाते हैं, वे न तो पूरी तरह संसार के हो पाते हैं और न ही पूर्ण रूप से आत्मा को
जान पाते हैं. इसी तरह यह जन्म भी न गुजर जाये, सद्गुरु उन्हें चेताते हैं. एक बार
आत्मा के पारस का स्पर्श हो जाये तो जगत उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता, सारी साधना उसी
डुबकी के लिए है, जो उन्हें आत्मा के सागर में लगानी है.
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