आज पैतालीसवां गणतंत्र दिवस है, उसने सोचा, क्यों नहीं मिलते
वे शब्द जो भावों को बिना मुलम्मा चढ़ाए व्यक्त कर सकें, ऐसे भाव जो दबे ढके पड़े
हैं, मन के ब्रह्मांड की असीमता में, अनुभव सीमित हैं लेकिन उम्मीदें हजार, इन
छोटे-छोटे टुकड़ों को धो-पोंछकर, संवार कर एक गलीचा बनाना है जो रंगदार तो हो ही, कोमल भी
हो, जो आकाश के नीले रंग से मिलता-जुलता हो और धरती की हरियाली से भी ! कभी तो यह
भटकाव खत्म होगा और उसकी कलम से झर-झर करते झरने की मानिंद गीत फूट पड़ेंगे, अभी तो
रास्ते पर चलते-चलते एक दीवार सी खड़ी हो जाती है आगे, वापस लौटना पड़ता है हर बार.
लेकिन यह बेचैनी, यह खामख्याली सी, यह सुगबुहाहट यूँ ही तो नहीं है, कहीं कुछ है
जिसे रूप नहीं मिल पा रहा है, व्यक्तित्वहीन...बेचेहरा..कोई है जो दस्तक तो दे रहा
है पर उसकी आवाज अभी पहुंच नहीं रही है. अकेलेपन का अहसास ऐसे में और बढ़ जाता
है...क्या दुनिया का हर रचनाकार अकेला नहीं है अपनी रचना के साथ. कौन जाने..वह तो
किसी से मिली भी नहीं, मिलने का प्रयत्न ही नहीं किया.
कल रात एक स्वप्न देखा, जिसका शीर्षक दिया जा
सकता है, “प्यार”, वह अभी कॉलेज में पढ़ती है, पहली नजर में ही उसे उनसे प्यार हो
गया है, जून एक स्कूल टीचर हैं, वह किसी सिलसिले में स्कूल गयी है, एक बच्चे को वे
दोनों झुककर एक साथ कुछ कहते हैं तो दोनों के सिर मिल जाते हैं, फिर दूसरी बार जानबूझकर
वे ऐसा करते हैं, वह घर आ जाती है पर कुछ दूरी तक वह उसके पीछे है, घर की सीढियाँ
चढ़ने से पहले पलटकर देखती है, वह अपना हाथ बढ़ाते हैं, वह बढ़ाती उसके पूर्व उसकी
नौकरानी वहाँ से गुजरती है, रुक जाती है फिर हाथ बढ़ाने ही वाली थी कि पिता सीढियों
से उतरते हैं और वह बिना कुछ कहे ऊपर चढ़ जाती है और छत से देखती है ...और लो..वह
भी ऊपर देखते हैं और उनकी नजरें मिल जाती हैं, सुबह से इस स्वप्न का नशा दिलोदिमाग
पर छाया है, प्यार में इतनी कशिश है कि स्वप्न में भी इसका जादू सिर चढ़ कर बोलता
है...उठते ही यह स्वप्न उसने जून को बताया, अगर रोज ऐसे मधुर स्वप्न आकर जगाएं
तो..सवा नौ हुए हैं अभी कितने काम बाकी हैं पर नन्हे को स्कूल बस तक छोड़ने के बाद
सबसे पहले उसने डायरी उठायी, कल दोनों घर पर ही थे, सुबह एक परिवार आया, शाम को
दूसरा, दिन कैसे बीत गया पता ही नहीं चला.
कल सुबह मधुर थी, दोपहर मदभरी, शाम सजीली थी और
रात को लेकिन नींद गायब थी, किसी का उदास रहना अच्छा नहीं लग रहा था, लोग आखिर
इतने निराश क्यों हैं, कभी वह भी ऐसे ही
निराश रही होगी पर अब वे सब कल की बातें हैं..जिंदगी के छोटे-छोटे सुखों को,
वर्तमान को जीने का रहस्य जान लिया है उसने और जून ने भी, उनका असीम प्रेम ही तो
बल देता है, परिस्थिति कैसी भी हो, उससे निकल जाने का कोई न कोई रास्ता तो रहता ही
है हमेशा. थोड़ी देर पहले वह पड़ोसिन को थोड़ी सब्जी देकर आयी अपने बगीचे की, अच्छा
लगा, उसके यहाँ नई नौकरानी आ गयी है. स्वीपर आज दूसरे दिन भी नहीं आया है, पर अब
समय नहीं है, पौने ग्यारह बजे हैं यानि उसके पाकगृह में जाने का वक्त, आज बूंदी का
रायता बना रही है नन्हे और जून को अच्छा लगेगा यह सोचकर. कल असमिया भाषा का पहला
पाठ पढ़ा अ, आ इ... ऊ तक सिर्फ स्वर, कल जून हिंदी की पत्रिकाएँ भी लाए हैं, धर्मयुग
और सरिता, कितने दिनों बाद पढ़ेगी, क्लब गए तो काफी दिन नहीं हुए पर पुस्तकालय गए
हो गए हैं, आज से वे टीटी खेलने भी जायेंगे.
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