सितम्बर का महीना खत्म होने को है, आज कई
हफ्तों के बाद कलम उठाई है. पहले जून अस्वस्थ रहे फिर वह कोलकाता चले गये, नूना घर
की सफाई में लगी रही. फिर नन्हा अस्वस्थ हुआ और फिर वह व्यस्त रही दुनियादारी में.
ईश्वर से जो निकटता उन दिनों वह पुस्तक पढते समय अनुभव की थी उसी का असर है कि
इतने झंझटों या कहें सांसारिक कार्यों के बीच भी उसकी याद बनी रही, जिसने उसे शांत
रखा है. कुछ देर पूर्व जून से कुछ पूछ रही थी, पर निष्कर्ष यही निकला कि जिन बातों
पर वश नहीं उसके बारे में सोच कर अपना समय व्यर्थ करने से कोई लाभ नहीं. आज उन
पंजाबी दीदी का पत्र आया है, संभवतः कोलकाता में वे उनसे मिलेंगे. गुलदाउदी के
पौधों को धूप में रखा है, लेकिन धूप फिर आँखें चुरा रही है, ईश्वर से थोड़ी धूप
मांगी है और वह देगा भी जरूर.
अभी-अभी वह गमलों की कुड़ाई करके आई है, जब इन
पौधों में फूल आएंगे तो यह सारी मेहनत(अगर यह मेहनत है तो) या कार्य सफल होगा, और
अगर फूल न भी खिले तो भी उसे कोई अफ़सोस नहीं होगा, पौधों की देखभाल की इतना ही
पर्याप्त नहीं क्या ? शनिवार को बाहर ट्रक जो मिट्टी ड़ाल गया था, मजदूर आज उसे
अंदर ला रहे हैं, नई मिट्टी में यकीनन फूलों का रंग शोख होगा. आज भी धूप नहीं है,
धूप की इतनी कमी शायद ही कभी इतनी महसूस की हो, जब धूप बिखरी रहती थी तब कद्र नहीं
की उसकी. जून का एक बटन आज दफ्तर में टूट गया..पहली बार ऐसा हुआ इतने बरसों में.
कल उसकी पुरानी पड़ोसिन ने हरा ब्लाउज सिल कर दे दिया, सुंदर सिला है, जून ने भी लो
बैक पर कोई एतराज नहीं किया.
कल मीटिंग सामान्य रही, पहली बार तम्बोला खेला. वह अपनी
बंगाली सखी के साथ गयी थी, मगर सदा की तरह उसने वहाँ खुद को अकेला पाया..यह
अकेलापन उसकी नियति बन चुका है.. भीड़ में रहते हुए भी अकेलापन. धूप निकली है सुबह
से पहली बार, उसने सोचा सारे गमले धूप में रख देगी, यह लिखने के बाद.
महीने का अंतिम दिन, आज नन्हे का हाफ डे है,
बचपन में ऐसा होने पर बच्चे ‘आधी छुट्टी सारी’ गाते हुए आते थे. नन्हा आज सुबह फिर
उठना नहीं चाह रहा था, वह पहले से कुछ दुर्बल भी हो गया है, अगले महीने उसके यूनिट
टेस्ट हैं, पढ़ाई उतनी नहीं हो पायी है जितन होनी चाहिए. उसके प्रिंसिपल ने यूनिट
टेस्ट का टाइम टेबिल देकर अच्छा किया है. निर्माण कार्य भी चल रहा है स्कूल में.
कुछ पल पहले राधाकृष्णन व विवेकानंद की पुस्तकों के कुछ अंश पढ़ने का प्रयत्न किया
पर सफल नहीं हो पायी, लगता है अब काफी पढ़ लिया है, अमल में लाना चाहिये जितना पढ़ा
है. सुबह से झुंझला रही थी, कारण कुछ खास नहीं पर जून के आते ही कहना होगा. कल शाम
वे एक परिचित परिवार के यहाँ गए, गृह स्वामिनी ने नूडल्स खिला दिए, रात को वे खाना
भी नहीं खा सके, हर बार उनके यहाँ जाने पर ऐसा ही होता है.
दोपहर के पौने दो बजे हैं, पंखे की घर-घर के
आलावा और कोई आवाज कहीं से भी नहीं आ रही है, जैसी ख़ामोशी बाहर है, वैसी ही मन में
भी, खुशवंत सिंह कहते हैं कि शांत मन क्रियेटिव नहीं हो सकता, लेकिन अशांत मन क्रिएटिव
ही होगा, ऐसा भी तो नहीं है न. कल बापू का जन्मदिन है, संडे मैगज़ीन में एक लेख आया
है उनके बारे में, अभी पढ़ा नहीं है, लाल बहादुर शास्त्री नेहरु के प्रिय थे एक जगह
पढ़ा, उनका भी जन्मदिन है कल. बचपन में यह गीत कितना सुना करते थे- आज है दो
अक्टूबर का दिन... सुबह समाचारों में
भूकम्प से हुई तबाही के चित्र देखे, सुन-देखकर यह ख्याल आता है कि कौन जाने एक दिन
उनका भी यही हश्र हो, दुःख तो होता ही है उन ग्रामवासियों के लिए, जो सोये-सोये ही
गहन निद्रा में लीन हो गए, पूरा परिवार एक साथ..मानव कितना बेबस है प्राकृतिक
आपदाओं के सम्मुख. उन्हें इसी माह घर जाना है, पता नहीं कैसा होगा इस बार का सफर,
एक लिस्ट भी बनानी है जो सामान कोलकाता से खरीदना है, चचेरे भाई-बहन, भतीजियों के
लिए उपहारों की भी, उपहार देने में जो सुख है वह लेने में कहाँ ?
सुंदर संस्मरण
ReplyDeleteसाभार.....
अदिति जी,स्वागत है...
ReplyDelete