पिछले दो
दिन यूँ हीं गुजर गए जैसे हर बार गुजरते हैं. शनिवार को नन्हा स्कूल नहीं गया था, ऐसे
में सुबहें थोड़ा व्यस्त हो जाती हैं, उसकी मार्कशीट मिल गयी है, सोशल में दो नम्बर
कम हैं बाकि सभी विषयों में शत-प्रतिशत अंक मिले हैं. अभी-अभी एक पत्र लिखा है, घर
जाना है पर जाने क्यों यात्रा का उत्साह नहीं है. पत्र में क्या असत्य लिखा था ?
क्या वह अपनों से भी अर्थात अपने से भी झूठ बोल सकती है...रात को फिर अजीब स्वप्न
देखे..सर्वोत्तम में एक लेख पढ़ा था, उसमें लिखा था नींद गहरी न हो तो स्वस्थ नहीं
रहा जा सकता, या फिर...पर जब ‘वह’ उसके पास है तब इतनी माथापच्ची करने की उसे क्या
जरूरत है.
कल मंझले भाई की चिट्ठी आयी, उससे एक सवाल पूछा
था उसने, जब वह ‘योगी कथामृत’ पढ़ रही थी. उसने बहुत अच्छा जवाब दिया है. विनोबा जी
ने अध्यात्मवादी होने के लिए तीन निष्ठाएं बतायी हैं-
निरपेक्ष नैतिक मूल्यों पर
आस्था,
जीवमात्र की एकता और
पवित्रता में विश्वास तथा
मृत्यु के बाद भी जीवन की
अखंडता में विश्वास
भाई ने तो स्वीकार किया कि पहली
निष्ठा में वह खरा नहीं उतरता और अगर वह अपने मन में झांक कर देखे तो... वह भी अभी
बहुत पीछे है, प्रयास करती है, मगर कई बार असफल रहती है. विश्वास उसे तीनों में
है. अच्छाई में विश्वास हो..यह तो सभी के साथ होता है लेकिन उसका पालन कौन कितना
करता है.
कल उन्हें घर जाना है, जून अवश्य ही मना करेंगे
यह डायरी ले जाने के लिए..वह भी सबके साथ कहाँ लिख पायेगी बल्कि एक पतली कॉपी या
कुछ पन्ने ले जाने से ठीक रहेगा...अपने विचारों या भावनाओं को उकेरने के लिए.
लगभग एक महीने बाद वह लिख रही है. यात्रा के दौरान कई
खट्टे-मीठे अनुभव हुए, जिन्हें मन के पृष्ठों पर तो आज भी स्पष्ट देख रही है.
माँ-पिता का जीवन के प्रति अनूठा उत्साह देखकर मन गहरे तक प्रेरित होता है. घर में
सभी से मिलकर अच्छा तो लगा पर एक-दो बार ऐसा भी लगा कि एक औपचारिकता है जो सभी
निभाए चले जा रहे हैं.. पर इस पर अफ़सोस नहीं होता..यह तो परम सत्य है कि इंसान हर
काम अपनी खुशी पहले देखकर करता है, यह बात सभी के लिए सत्य है. उन्हें यहाँ आए
चौथा दिन है, पहले दिन उसकी उड़िया सखी मिलने आई, खाना खिलाया. यानि उम्मीद के दिए
जल रहे हैं और कयामत तक जलते रहेंगे. दूसरों के लिए सोचना यदि हम शुरू कर दें तो
दूसरे खुदबखुद..आज इस वक्त साढ़े दस बजे हैं, सिर भारी है, शरीर की हल्की सी पीड़ा
भी मन को कैसे प्रभावित कर लेती है, तभी जो वास्तव में लिखना चाहिए था वह न लिखकर
सिर की बात लिख गयी. नन्हे की ऑंखें यात्रा के दौरान शहर के प्रदूषण से लाल हो गयी
थीं, बहुत संवेदनशील हैं वे धूल व धुएं के प्रति.
दिसम्बर का महीना शुरू हो
चका है कल से, और उसे खबर भी न हुई, बड़े भैया का जन्मदिन था कल, उन्हें खत या
कार्ड कुछ भी तो नहीं भेजा. इस बार उनसे कुछ ही घंटों के लिए मिल सकी, भाभीजी भी
काफी बदली हुई लगीं, वह बड़ी बुआ जी की तरह लगीं रुआब वाली और कुछ मूडी..आज सुबह से
सोच रही थी कि लिखना है पर अब दो बजे वक्त मिला है, डेढ़ घंटा अखबार व संडे पत्रिका
पढ़ रही थी, पर इतना पढ़ने का कुछ फायदा भी हुआ, सतही जानकारी से कोई लाभ होता है,
अखबार सरसरी निगाह से ही पढ़ा और संडे भी कुछ पन्नों को छोड़कर. यूँ कहे कि आजकल कोई
बात उसे प्रभावित नहीं कर पाती है तो ठीक होगा. ‘गीता’ पढ़ते-पढ़ते ही मन शायद अब
किसी भी घटना में बंध नहीं पाता, तटस्थ हो गया है. कल सुबह बाएं तरफ आयी नई तेलुगु
पड़ोसिन के यहाँ गयी, उसकी दो जुड़वां बेटियां हैं, अच्छा लगा उनसे मिलकर. दोपहर को
दायीं ओर वाली उड़िया पड़ोसिन के पास. कल मन था कि घर में लग ही नहीं रहा था.
कल शाम वे एक मित्र के यहाँ
गए उनके विवाह की वर्षगाँठ थी, उनका बगीचा भी देखा. आज खत लिखने का दिन है, दोपहर
को लिखेगी. नन्हे की ऑंखों की लालिमा तिनसुकिया के डॉ की दवा से ठीक हो गयी है,
उसे फोन करके धन्यवाद कहना चाहिए. कल रात वे देर तक बातें करते रहे, पर सुबह स्कूल
जाने से पहले वह उसकी आँखों में दवा डालना भूल गयी, जून आते ही पूछेंगे. गर्म पानी
का पाइप खराब हो जाने के कारण आने के बाद से उन्हें बाथरूम में गर्म पानी नहीं मिल
पा रहा है, नहाने के लिए पानी गर्म करना पड़ता है. आज भी प्लंबर नहीं आया है अभी
तक.
आपने सही कहा, अच्छाई में विश्वास अधिकांश लोगों को होता है, इसीलिए फिल्म देखते या कहानी पढ़ते समय भी वे अपने को नायक/नायिका की ओर ही पाते हैं और दमित के साथ अक्सर सहानुभूति भी रखते हैं लेकिन जैसे ही वास्तविकता लौटती है, स्वार्थ का चश्मा भी चढ़ जाता है।
ReplyDeleteअनुराग जी,मात्र स्वार्थ के कारण ही नहीं, अज्ञान के कारण भी हमारा अच्छाई में विश्वास टिक नहीं पाता, यह मैं अब कह सकती हूँ..अपने अनुभव से...आभार!
ReplyDeleteमेरा भी यही मानना है,अज्ञान ही मूल कारण है.हमे इतना भी ज्ञान नही कि हमारा स्वार्थ किस में है.
ReplyDeleteआपने बिलकुल ठीक कहा है दीदी...
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