Thursday, March 28, 2013

एक घर आस-पास


  

 आज उन के जाने के बाद कामों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि अब जाकर वह थोड़ा वक्त निकाल पाई है, सुबह देर हुई उन्हें उठने में सो सब काम ही लेट होते चले गए, कल की सुबह अच्छी रही, दोपहर भी और शाम भी..वे बाहर गए थे एक मित्र के यहाँ बीहू की चाय पीने. माँ ने नन्हे के लिए एक स्वेटर बनाकर भेजा है, बहुत सुंदर है, कभी वह भी ऐसे ही स्वेटर बना सकेगी अपने.. के लिए. लेकिन अभी जो स्वेटर वह जून के लिए बना रही है, आगे बढ़ ही नहीं पा रहा है, आज से ज्यादा समय देगी, नहीं तो सर्दियाँ खत्म हो जाएँगी और..नन्हा चम्पक पढ़ रहा है इस समय, कल उसके स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम है, वे जायेंगे. आज धूप खिली है पूरी तरह, पहले दो दिनों की वर्षा ने धरती को कितना हर-भरा कर दिया है, पौधों में जैसे जान आ गयी है, और ऐसे ही उजाला भर गया है उसके दिल में जून के आने से. अभी कुछ देर में वह आ जायेंगे, अभी भोजन पूरा नहीं बना है, पर ये चंद लाइनें ...जिसमें नूना वह सब लिखना चाहती है जो महसूस कर रही है. थोड़े दिनों की दूरी स्नेही जनों के लिए टॉनिक का काम करती है. दूर होने पर वे एक-दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह देख सकते हैं, नजदीकियां कभी-कभी दृश्य को धुंधला कर देती हैं न, उसकी सारी खूबियाँ वह महसूस कर रही थी जब वह उसके पास नहीं थे..विवाह के नौ वर्षों बाद जैसे वे एक-दूसरे को नए सिरे से पहचान रहे हैं...कितनी बातें करनी हैं उससे, पर वक्त ही नहीं मिलता क्योंकि अब जितना भी वक्त मिले उसे कम लगता है...

  पिछले पांच दिन व्यस्त थी, नन्हे का स्कूल बंद था, फिर ‘क्लब मीट का सप्ताह’, रोज ही शाम को क्लब जाते थे वे, समय निकाल ही नहीं पायी, समय शायद मिलता भी पर एकांत नहीं, सो मन स्थिर नहीं, एकाग्र भी नहीं. आज नन्हा स्कूल गया है और जून डिपार्टमेंट, और वह अपने विचारों के साथ है. काफी कुछ घटा पिछले दिनों, कई लोगों से मिलना भी हुआ. कोलकाता से उनके एक पुराने परिचित आये. कल खत लिखने का दिन है, उसने सोचा, इस बार पंजाबी दीदी को भी लिखेगी. मौसम आजकल मेहरबान है, सो क्लब के कार्यक्रम भी सुसम्पन्न हो गए, पर जिसका उसे इंतजार था, यानि पत्रिका, वह तो मिली नहीं, शायद कुछ दिनों बाद मिले, छपी तो है ही, पहले कभी इतनी उत्सुकता से प्रतीक्षा नहीं की, इस बार जाने क्या बात है, जिसका उसे भी पता नहीं, इसका अर्थ हुआ कि अचेतन मन में ऐसे कितने विचार हैं, जिनका चेतन मन तक को भान नहीं है. शनिवार को फिल्म देखी, “वह छोकरी” मन आक्रोश से भर उठा और कल की फिल्म में भी सड़क पर, फ़ुटपाथ पर पलने वाले बच्चों की दयनीय स्थिति देखकर बहुत दुःख हुआ, इतनी सुख-सुविधाओं में रहकर कभी-कभी वे ईश्वर से, जीवन से शिकायत करते हैं लेकिन अनाथ जिनका इतनी बड़ी दुनिया में कोई नहीं, कैसे जीते होंगे, बड़े होकर अपराधी बन सकते हैं ऐसे ही कुछ लोग शायद...इस दुनिया में सभी को अपने-अपने सुखों व दुखों के साथ जीना ही है. कोई क्या कर सकता है, वह क्या कर सकती है ? हाँ, इतना तो कर सकती है कि उन अनाथों का दुःख शब्दों में व्यक्त कर सके, लेकिन इससे उनका दुःख कम तो नहीं होगा, न सही, उनके दुःख को महसूस करने वाला कोई है यह संतोष तो होगा, तो पिछ्ले पन्नों पर यही लिखेगी, उसने घड़ी की ओर देखा, साढ़े दस बजने को हैं और अभी ढेर सा कम बाकी है.

  आज एक नया स्वीपर आया है, बुद्धू सा लग रहा है, ऐसे व्यक्तियों को देखकर और पिछले दिनों टीवी पर एक घर आस-पास में अज्जू को देखकर भी बचपन में मिली पिता के एक सहकर्मी की बेटी की स्मृति हो आती है कितनी मासूम थी वह, जिसे उसके माता-पिता छिपा कर रखते थे, और अपनी संतानों में भी नहीं गिनते थे. साढ़े दस हो गए है न, अभी उन्हें  आने में आधा घंटा है, आते ही उन्हें भोजन मेज पर लगा हुआ चाहिए, ताकि आराम से झपकी ले सकें, जितना लम्बा लंच ब्रेक यहाँ होता है शायद ही कहीं और होता हो, पूरा डेढ़ घंटा, कोई चाहे तो एक घंटा आराम से सो सकता है, पर उसे लगता है इतना भी क्या आराम पसंद होना, अति हर चीज की बुरी होती है, कितने सारे काम पड़े हैं घर के, समय ही नहीं मिल पाता जिन्हें करने का, शाम को तो बिलकुल नहीं...कल शाम वे पुस्तक मेला गए थे, पर वहाँ केवल असमिया किताबें थीं. कल नन्हा एक जन्मदिन की पार्टी में गया था, उसे रिटर्न गिफ्ट इतना अच्छा मिला है, वह जो उपहार ले गया था उसकी तुलना में, जून भी कभी-कभी कंजूसी कर जाते हैं. कल उसने छह खत लिखे, अच्छा लगा इतने दिनों बाद सबसे बातें करके. अबसे हर सोमवार को कम से कम दो पत्र तो लिखेगी ही, अभ्यास बना रहता है. दोपहर को पडोसिन के यहाँ जाना है, स्वेटर का नया डिजाइन सीखने, वह बहुत स्वेटर बनाती है हर साल ही. आज उसने दाल-पालक यानि साई-भाजी (सिंधी में) बनाया है, अभी फुल्के बनाने हैं. सचमुच यह स्वीपर अज्जू से कम नहीं है.  


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