नन्हा आज स्कूल नहीं गया, कितना उदास था,
चुपचाप आँखों से आंसू गिर रहे थे, इतने छोटे बच्चे को इस तरह चुपचाप रोते नहीं
देखा उसने कभी, उसको टेस्ट की चिंता थी, जो शायद आज होता भी नहीं, सुबह से दो-तीन
बार टायलेट गया तो उसे चिंता हो गयी, स्कूल नहीं भेजा, सेंट्रल स्कूल में टायलेट
गंदे हैं, पानी भी नहीं रहता, यह सब नन्हे ने ही तो बताया था, अभी तक तो ठीक है
वह, खेल रहा है, स्कूल उसके लिए बहुत आवश्यक है, उसका दिल स्कूल में रहता है. फिर
भी बच्चा आखिर बच्चा है, जितनी जल्दी उदास होता है उतनी ही जल्दी भूल भी जाता है.
कल छोटे भाई का पत्र मिला, अब वह खुश है ऐसा उसके पत्र से लगा तो है. कल रात उसे
नींद नहीं आ रही थी, पिछले कई दिनों से घर में काम चल रहा है, घर दिन भर पूरा खुला
रहता है, रात को नन्हे को सुलाने के लिए जल्दी-जल्दी काम निपटा कर वे सोने आ जाते
हैं, कभी कभी ज्यादा थकन भी विश्राम में बाधा बनती है.
सितम्बर का एक दिन बीत गया
है कल और पिछले तीन-चार दिनों से डायरी नहीं खोली, जून का दफ्तर बंद था, और नन्हे
का स्कूल भी, वे डिब्रूगढ़ गए थे. जगजीत सिंह की गजल आ रही है-
“खत लिखते कभी और कभी खत
को जलाकर तनहाई को रंगीन बना क्यों नहीं लेते
तुम जग रहे हो मुझे अच्छा
नहीं लगता चुपके से मेरी नींद चुरा क्यों नहीं लेते”
जो कुछ वह सोचा करती है
अक्सर कोई काम करते समय या रात को जब नींद नहीं आ रही होती है वह सब लिखते समय याद
क्यों नहीं आता है. एक उड़ता-उड़ता सा विचार मन में रहता है कि उसे एक स्कूल खोलना
है गरीब बच्चों के लिए, उन्हें पढाना है, लेकिन यह विचार मात्र ही है, कैसे होगा
यह इसके बारे में सोचा ही नहीं, जून को कहने से उनकी प्रतिक्रिया अनुकूल तो नहीं
होगी, कहेंगे, समय कहाँ है ? जगह कहाँ है? और न जाने कितने सवाल जिनका उत्तर वह
नहीं दे पायेगी.
क्यों नहीं दर्द फूट पड़ता
अगर कोई दर्द सचमुच है
कहीं
नम कर दे आँखों को अंदर ही
अंदर
क्यों नहीं कोई खुशी छलक
उठती
अगर कोई खुशी सचमुच है
रोशन कर दे जो भीतर बाहर
क्यों नहीं कोई गीत उग आता
अगर कोई गीत सचमुच है
रसमय कर दे जो अंतर
क्यों नहीं कोई स्वप्न
सजता
अगर कोई स्वप्न सचमुच है
एक कर दे जो बिछुड़े हुओं
को
शब्दों की कमी क्यों खटकती
है
थी पहले विचारों की, क्यों
है ऐसा कि
जब यह है तो वह नहीं...वह
है तो..
उसने कल एक कहानी पढ़ी, दो
मित्रों की कहानी..जिनमें शत्रुता हो जाती है, शत्रु बनने के लिए पहले मित्र बनना
ही पड़ता है, गलतफहमियों की दीवार अपनों के बीच ही तो खड़ी हो सकती है, अनजानों के
मध्य तो नहीं...जितनी जल्दी यह गिर जाये उतना ही अच्छा ये बात दोनों ही चाहते हैं,
क्योंकि शत्रुता ओढ़ी हुई है, चुभती है, भीतर मित्रता का सरवर बह ही रहा है, उसकी याद
अभी ताजा है. पहले की दोस्ती याद आती है, एक को चोट लगती थी तो दर्द दूसरे को होता
था, अब एक दूसरे की तरफ से उदासीन हो गए हैं, लेकिन यह उदासीनता कब तक टिकेगी...जब
प्रेम नहीं टिका जो दैवीय गुण है तो शत्रुता कब तक टिकेगी..कहानी का अंत सुखद था.
गलतफहमियां गिर जाती हैं और फिर दोनों एक हो जाते हैं एक बार फिर झगड़ने के लिए
शक्ति जुटाने के लिए...शायद यही जीवन है.
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