आज उससे पहले ही नन्हे ने उसकी डायरी में कुछ लिख दिया-
“इस साल यानि १९९३ में मैं
बहुत खुश हूँ. आज मैं इतना खुश हूँ कि कोई सोच भी नहीं सकता. वैसे यह डायरी है तो
माँ की, पर मैं यानि सोनू इसमें लिख रहा
हूँ. इसलिए मैं यह डायरी बंद कर रहा हूँ, अब माँ कल से इसमें लिखेंगी”,
जब वह लिख रहा था अपने
छोटे छोटे हाथों से तो वह सोच रही थी-
उसकी आँखों की चमक में
छुपी हैं
मेरी सारी खुशियाँ, नन्हे
हाथों में कैद हैं.
मेरी आत्मा की हँसी ही तो
फूट रही है
उसकी मुस्कानों में
नन्हे कदमों में चैन है,
थिरकन है जिंदगी की...
आज सुबह उठते ही एक दुखद
समाचार मिला, पास के गांव के दो व्यक्तियों (पति-पत्नी) ने ट्रेन के आगे जाकर
आत्महत्या कर ली, वह बेचैन हो उठी, भीतर कैसी कड़वाहट भर गयी, कुछ था जो बाहर आना
चाहता था, कुछ कहना, कुछ लिखना चाह रही थी पर विचारों को केंद्रित नहीं कर पा रही
थी. कोई इतना दुखी भी हो सकता है कि ..आत्महत्या जैसा विचार मन में आये..और फिर उस
विचार को क्रियान्वित भी कर ले. शायद वे अज्ञात भविष्य से डर गए थे-
जब अज्ञात का भय इंसान को
जकड़ लेता है,
सुन्न कर देता है मस्तिष्क
को,
आस-पास की हर वस्तु डराती है,
छूटना चाहे पर नहीं छूट पाता
उसके शिकंजे से...
नए वर्ष के दस दिन बीत गए
हैं, आज ग्यारहवाँ दिन है, परसों छोटा भाई, अपने परिवार के साथ वापस चला गया, अभी
वे लोग सफर में ही होंगे. इतने दिनों बाद इस तरह अकेले शांत वातावरण में बैठकर
स्वयं से सम्बोधित होना अच्छा लग रहा है. उसने छह खत लिखे, माँ-पिता को तो खत भाई
के हाथों कल ही मिल जायेगा. नए साल के दो कार्ड आए हैं, एक उसकी छोटी ननद व उसके
पति का, एक चचेरे भाई का..फूलों से सजे हुए कार्ड्स. मौसम बहुत ठंडा और भीगा सा
है, शायद नन्हे को ठंड लग रही होगी, या फिर बच्चे खेल-कूद, और पढाई में इतने
व्यस्त रहते हैं कि उन्हें भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी की परवाह ही नहीं रहती. आज सुबह
पता नहीं क्यों उसका मन उदास था, कुछ भी करने को मन नहीं कर रहा था, तभी लक्ष्मी
ने हेल्पिंग हैंड बढ़ाया और मन हल्का हो गया, उसने कहा, छोटे-छोटे कपड़े प्रेस कर
देगी और बड़े वह कर ले. शाम को उसकी एक सखी आएगी, उन्हें पॉपी की पौध देनी है और
चिवड़ा-मटर खिलाना है
आज भी बादल हैं पर बरस नहीं रहे हैं, सुबह नींद
देर से खुली, जून जल्दी-जल्दी तैयार होकर गए. ठंड से किसी हद तक डरते भी हैं.
नन्हे का गणित का टेस्ट है आज, कल उसे गुणा करना सिखाया गया. मेज पर ढेर सारी
पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए एकत्रित हो गयी हैं, पिछले दिनों वे सब घूमने में व्यस्त
रहे, पर अब उसका मन इन पत्रिकाओं में उतना नहीं लगता, अब कुछ और चाहिए मस्तिष्क
को, जो इस तरह की पत्रिकाएँ नहीं दे पातीं, जो पूरी तरह से भौतिकतावादी होती हैं.
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