Showing posts with label सुख-दुःख. Show all posts
Showing posts with label सुख-दुःख. Show all posts

Tuesday, April 12, 2022

सपनों की दुनिया

आज देश के नाम प्रधानमंत्री का सम्बोधन था, कहा, चौथा लॉक डाउन होगा पर नए नियमों के साथ। उन्होंने देश को आत्म निर्भर बनाने की बात भी कही। सुबह उठी तो भीतर मौन था, एक शांति भरा मौन ! गुरूजी के लिए दोपहर को एक कविता लिखी, कल उनका जन्मदिन है, एओएल के हिंदी विभाग में काम करने वाले एक साधक ने उसे सजा दिया है। उसे भविष्य में अन्य कविताएँ भी भेजेगी। चाहे तो फ़ेसबुक पर एक पेज बना सकती है, जहाँ उनके लिए लिखी कविताएँ पोस्ट कर सके। जून छोटी भांजी के लिए लिखी कविता को सुंदर बना रहे हैं, जो अपना जन्मदिन गुरूजी के जन्मदिन के साथ साझा करती है। आज महाभारत में दुर्योधन भी मारा गया। अश्वत्थामा की मणि छिन गयी और उसे उसी पीड़ा के साथ अमर रहने का शाप मिल गया, इतना कठोर दंड ! 


शाम को टहलने गए तो मास्क लगाया था, जून को कठिनाई होती है; पर अभी कोरोना का डर गया नहीं है, न ही कोई दवा आयी है इसके इलाज के लिए। आज काव्यालय के संस्थापक कवि का मेल आया, उनकी एक पुस्तक आयी है, उनकी कविताओं को पढ़कर वह कुछ पंक्तियाँ उन्हें नियमित भेज रही है, उन्हें अच्छा लगा। वाक़ई उनकी हर कविता में एक नया अन्दाज़ है। आज शाम से पूर्व उन्होंने आधा घंटा योग व पुस्तकालय कक्ष में बैठकर पढ़ने के लिए और रात्रि में सोने से पूर्व कुछ समय बालकनी में  बैठने के लिए निकाला है , ताकि उनके घर का हर कोना आबाद रहे। कहीं सुना था कि घर के वे कोने जहाँ कोई नहीं जाता, नकारात्मक ऊर्जा से भर जाते हैं। आज सुबह नींद खुली उससे पूर्व एक स्वप्न में मृणाल ज्योति में खुद को पाया, उसका फ़ोन कहीं छूट गया है, जून से कहा फ़ोन करें, तब विचार आया यह स्वप्न है और नींद खुल गयी। दो दिन पहले एक विचित्र स्वप्न देखा था, जिसमें बहुत सारे हाथी हैं, जीवित भी और चारों तरफ़ आलमारी में उनके छोटे-बड़े चित्र भी। एक हाथी उसे कुचलने के लिए बढ़ता है पर ज़रा भी भय नहीं लग रहा, वह उसके पैरों के नीचे है पर कोई दर्द नहीं हो रहा फिर एक बच्चे के साथ उड़ जाती है, उड़ते समय देह में नहीं है पर साथ में जो बच्चा है उसका गोरा चेहरा और काले बाल स्पष्ट दिखे।


सुबह उपनिषद गंगा में ‘सत्यकाम’ की कहानी देखी, शाम को विष्णु पुराण में ‘ध्रुव’ की। दोपहर को जून ने ‘रजनीगंधा; लगायी यू ट्यूब पर, अमोल पालेकर की फ़िल्म। शिव सूत्र सुना, पढ़ा भी। शाम से मन की समता हटी नहीं है, पहले जून की थोड़ी सी नाराज़गी से मन कैसा व्याकुल हो जाता था, अब वह पुरानी बात हो गयी है। हर कोई अपने सुख-दुःख का निर्माता है, यदि वे नहीं चाहते कि दुखी हों तो संसार की कोई भी बात उन्हें दुखी नहीं कर सकती और यदि उन्होंने तय ही कर लिया है कि उन्हें दुखी रहना है तो छोटी से बात को भी कारण बना सकते हैं। मई आधा बीत गया है, कोरोना संकट कम नहीं हो रहा है। 


रात्रि के साढ़े आठ बजे हैं, वह सिट आउट में बैठकर लिख रही है। हवा बंद है, कुछ देर पूर्व हल्की बूँदा-बाँदी हुई पर गर्मी कम नहीं हुई। कुछ देर पूर्व रात्रि भोजन के बाद वह टहलने गये तो एक घर से गुरूजी की आवाज़ में निर्देशित ध्यान की आवाज़ आ रही थी; कदम वहीं थम गए। एक घर से बाँसुरी की आवाज़ रोज़ आती है, कोई रात को अभ्यास करता है । सभी लोग घर में हैं तो ध्यान, संगीत आदि में समय बिता रहे हैं; इतना तो शुभ हुआ है लॉक डाउन के कारण। कल रात उसने जून से कहा, उसकी बातों को गंभीरता से न लें, आगे आने वाले सोलह वर्षों में ( उसे लगता है इतना ही जीवन शेष है) उसकी किसी भी बात को उन्हें सत्य मानने की ज़रूरत नहीं है, क्यंकि सत्य क्या है यह जिसको पता चल जाता है उसके लिए शेष सब असत्य हो जाता है। ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’ उक्ति तब हक़ीक़त नज़र आती है।  


Friday, January 24, 2020

कर्म का बंधन


 कल दोपहर पहली बार अकेले कार चलायी। सुबह गैराज से गाड़ी निकाली और वापस डाली, पर अभी बहुत अभ्यास करना है. संकरी जगह से कैसे गाड़ी निकाली जाती है, और ट्रैफिक में से कैसे बाहर लायी जाती है, इसे सीखने में काफी समय लगेगा, लेकिन अभ्यास तो जारी रखना होगा. शाम को भजन सन्ध्या थी. उसके पूर्व अस्पताल गयी. एक सखी दो दिनों से एडमिट है. उसका पुत्र युवा हो गया है पर मानसिक रूप से बालक है. शारीरिक रूप से भी आत्मनिर्भर नहीं है. चौबीस घण्टे उसका ध्यान रखना पड़ता है. घर में सास-ससुर भी आये हैं. काम का बोझ ज्यादा है. रात को नींद पूरी न होने के कारण उसका स्वास्थ्य बिगड़ गया. आज गुरू माँ को सुना, पित्त की अधिकता से कितने रोग हो जाते हैं. कफ व वात बिगड़ने से भी षट क्रियाओं को करके शरीर को शुद्ध किया जा सकता है. आज सुबह सुंदर वचन सुने, ‘सुख और दुःख के ताने-बाने से बुना है जीवन, यह जानकर उन्हें दोनों से ऊपर उठना है. राम चाहते तो वन जाने से मन कर सकते थे, पर उन्हें वन जाने में दुःख प्रतीत नहीं होता था. वह राजमहल में रहकर सब सुख भोग चुके थे, वहाँ कोई सार नहीं है, यह जान चुके थे. कर्म का फल सदा के लिए नहीं रहता, कोई भी दुःख आता है जाने के लिए. इसलिए दुःख के कारण आये बुरे वक्त को साधना के द्वारा काट लेना चाहिए.’ जो घट चूका वह खुद के ही कर्मों का फल मिलना था, वर्तमान में भूख-प्यास व नींद के अलावा कोई दुःख है ही नहीं. प्रकृति उनकी परीक्षा लेती है पर श्रद्धा रूपी देन भी उन्हें परमात्मा से मिली है. श्रद्धा को मजबूत करने के लिए ही प्रकृति उनके सामने नयी-नयी परिस्थितियाँ लाती है. जब वे दृढ रहते हैं तो प्रकृति सहायक बन जाती है. शाम के साढ़े छह बजने को हैं. सदगुरू कितनी सरलता से कर्म बंधन से मुक्त होना सिखा रहे हैं. उन्होंने कार्य सिद्धि के तीन उपाय बताये, पहला है प्रयत्न, दूसरा है जो प्राप्त करना है, वह मिला ही हुआ है, यह विश्वास. तीसरा है धैर्य. जैसे बीज हमें मिला है, उसे पोषित करना है. कार्य को सिद्ध करने के लिए, कार्य को सिद्ध हुआ मानकर ही प्रयत्न करने से मन सन्तुष्ट रहता है. यह रहस्य है. परमात्मा को पाना है तो यह मानना है कि वह मेरे पास है, और उसके बाद सत्संग, साधना आदि करना है. सुखी है मानकर जो बढ़ता जाता है, वह सुखी ही रहता है. साधन व साध्य में भेद नहीं मानना है. योगी है मानकर योग करने से योग सिद्ध होता है. मानसिक शांति ज्ञान से ही मिलती है. इसी माह गुरू पूर्णिमा है, गुरूजी के लिए एक कविता लिखेगी. प्रेम, ज्ञान सभी कुछ परमात्मा की देन है, जब कोई यह जान लेता है तो खुद के साथ-साथ समाज के लिए भी उपयोगी बन जाता है. उनके जीवन से एक महक फैलेगी तो वे भी सुखी रहेंगे औरों को भी उनसे सुख मिलेगा ! पिछले दो दिन कुछ नहीं लिखा, इस समय पौने ग्यारह बजे हैं, भोजन बन गया है. जून थोड़ी देर में आने वाले हैं. भागते हुए समय से कुछ मिनट निकाल कर खुद से बात करने का सुअवसर ! आज एक वरिष्ठ रिश्तेदार का जन्मदिन है, पर सुबह भूल ही गयी, उन्होंने स्वयं ही याद दिला दिया, उम्र ने उन्हें परिपक्व बना दिया है. कल क्लब की एक सदस्या से बात की, उनके लिए कुछ लिखा और संबन्धी के लिए भी, उन्होंने वाह ! वाह ! कहकर तारीफ़ की है, पर उसे उसका प्रतिदान लिखने में ही मिल गया. हिंदी लेखन प्रतियोगिता में उसे पुरस्कार मिला है, लिखने वाले कम हैं शायद इसलिए.. उत्सव मनाना अहंकार को पोषित करना ही हुआ न. तारीफ होने पर जो प्रसन्नता का अनुभव करता है वही अपमान होने पर दुःख का भी अनुभव करने वाला है. मन जब इससे ऊपर उठ जाता है, संकल्प रहित हो जाता है. तब संसार नहीं रहता, यानि पल भर में ही इस संसार से मुक्त हुआ जा सकता है. परमात्मा जो अचल, घन, चेतन स्वरूप है, उसमें टिका जा सकता है.


Friday, February 3, 2017

शाम और खामोश पेड़


कल शाम एक सखी की बिटिया से उसके अनुभव सुनकर आनंद आया, उसने सोचा एक कविता लिखकर उसे देगी. रात को मोबाईल पास रखकर नहीं सोयी थी, जून ने फोन किया, वह अधीर हो गये फिर दूसरे फोन पर किया. पिताजी और माँ के बीच नोक-झोंक बढ़ती जा रही है, उसे लगता है यह मोह की पराकाष्ठा है. ऐसे ही लड़ते-झगड़ते सारा जीवन चला जाता है. नवरात्रि का तीसरा दिन है आज, ध्यान में मन लगता है, सद्गुरू कहते हैं, इन दिनों में की गयी साधना का विशेष प्रभाव होता है. एक अन्य सखी के दिए हुए कपड़े व स्वेटर आस-पडोस के बच्चों को बाँट दिए. कुछ कपड़े वे मृणाल ज्योति भी ले जायेंगे. ईश्वर उसके हाथों यह शुभ काम करवा रहे हैं. वह भजन याद आ रहा था, करते हो तुम कन्हैया..मेरा नाम हो रहा है..सचमुच सभी कुछ वही कराता है. आज सुबह स्वप्न था या तंद्रा थी या ध्यान था, उसे अपने भीतर लिखे हुए कुछ वाक्य दिखे. शास्त्रों में कहा गया है कि ऋषियों ने मन्त्र देखे, तभी वे द्रष्टा कहलाये. वे जो भी बुद्धि से लिखते हैं वह उतना प्रभावशाली नहीं होता जितना जो सहज प्रकटता है वह होता है.

माँ को आज अस्पताल जाना पड़ा. उनके पैर में घाव हो गया है. एक सखी ने कहा उनके कपड़े अलग से धोये जाएँ तथा डेटोल में रिंज किये जाएँ. स्नानघर में सीट तथा दरवाजे का हैंडल व नल भी डेटल से पोंछें. उसने पिताजी को भी सजग रहने को कहा कि कहीं उन्हें भी छूत न लग जाये पर वे कुछ और ही अर्थ लगाकर परेशान हो गये. इन्सान अपने सुख-दुःख का निर्माता स्वयं ही है. माँ की मानसिक स्थिति भी ठीक नहीं है. इस समय लेटी हुई हैं. उनके प्रति उसके मन में कोई भाव नहीं जगता, वह कुछ भी समझने की स्थिति में नहीं हैं ऐसा लगता है. उनके भीतर भी उसी परमात्मा की ज्योति है वही जो उसके भीतर है. अपने प्रति भी तो कोई कठोर हो ही सकता है. अस्तित्त्व में जो भी घटता है, वे उससे जुड़े ही हुए हैं. उनके भीतर परम चैतन्य सोया रहता है और वे सारा जीवन दुःख में ही गुजार देते हैं. उसे जगा दें तो भीतर उत्सव छा जाये, जगाना भी क्या कि मन के सारे आग्रह, सारी वासनाएं शांत करके खाली हो जाना है. वह शेष काम स्वयं ही कर लेगा. कल लक्ष्मी पूजा का अवकाश था, शरद पूर्णिमा भी थी. उसके पूर्व पूजा का अवकाश था, समय भाग रहा है.

फिर वही झूला, वही ढलती हुई शाम है.
कई दिनों बाद मिली इस दिल को फुर्सत, आया आराम है
आसमां चुप है सलेटी चादर ओढ़े
पेड़ खामोश है, हवा बंद, नहीं कोई धुन छेड़े
एक खलिश सी है भीतर कोई अपना बीमार है
दुआ के सिवा दे न सकें कुछ ये हाथ लाचार हैं
लो देखो एक कार की रफ्तार से पत्तों में हरकत आयी
हिल-हिल के जैसे भेज रहे उसे दवाई
जीवन है तभी तक तो दिल धड़कते हैं
रोते हैं, हँसते हैं साथ-साथ बड़े होते हैं
दो हैं कहाँ जो कोई असर हो दिल पे किसी बात का
दो हैं कहाँ जो दूजा लगे, अपना सा दर्द है जज्बात का
दुःख कहने से जो भीतर कसक उठती है वह अहम् है..



Friday, September 2, 2016

सुख - दुःख का झूला


दोपहर के ढाई बजे हैं, ध्यान कक्ष में या कहें कम्प्यूटर कक्ष में वह बैठी है, सुबह शाम जो साधना के काम आता है, दोपहर को वहीँ बैठकर वह कम्प्यूटर पर काम करती है. अगस्त माह के लिए हिन्दयुग्म पर नई कविता पोस्ट की. एक ब्लॉग पर भी. पन्द्रह अगस्त के लिए एक पुरानी कविता और मिली. डायरी के पन्नों में न जाने क्या-क्या है. माँ की कहानी लिखनी शुरू की थी, अधूरी ही छोड़ दी है. इंटरनेट एक अच्छा माध्यम है लेकिन उसके पास अन्यों की कविताएँ पढने के लिए समय नहीं मिलता या कहें कि रूचि नहीं है. इसी महीने छोटे भाई का जन्मदिन है क्यों न उसके लिए एक कविता लिखे, सन्यासी हुआ है वह. अगले महीने कृष्ण जन्माष्टमी है, उसके लिए भी लिख सकती है. कल रात जून और सहज हुए और आज सुबह वह अपने सहजतम रूप में थे. उन्हें स्वयं को बदलने में वक्त लगेगा पर यात्रा शुरू हो गयी है तो मंजिल दूर नहीं है. शाम को उनके यहाँ सत्संग है.

आज प्रातः भ्रमण के समय एक परिचित मिले, उसका वजन बढ़ गया है ऐसा उन्होंने कहा, घर आकर देखा तो उनकी बात सही थी. पिछले कुछ दिनों से वे प्रोटीन युक्त भोजन ले रहे हैं. जून आज डिब्रूगढ़ गये थे, डाक्टर से मिलने. अब उनका दर्द ठीक हो जाना चाहिए. आज शाम को वह देर से आने वाले हैं, कम्पनी की पंचवर्षीय योजना के टास्क फ़ोर्स में इस बार उन्हें भी शामिल किया गया है. व्यस्तता उनके लिए ठीक भी है. कल सत्संग में पहली बार एक परिचिता आयीं, जो वर्षों पहले उनकी पहली पड़ोसिन थीं. पंचकोश ध्यान भी किया, साक्षी होकर स्वयं को देखा, ऐसा लगा कितना सहज है सब कुछ, लेकिन जब तक भीतर का पता न था कितना जटिल था. परमात्मा का और उनका सहज स्वभाव कितना मिलता-जुलता है, कितना जटिल बना दिया है शास्त्रों ने, लेकिन अब शास्त्र भी अपना रहस्य खोलते चलते हैं !
वह नन्हीं ही थी अभी, जीवन के चार वसंत भी न देखे थे, किसी वस्तु को पाने की जिद की होगी या किसी के साथ बाहर जाने की, उसे इतना याद है किसी ने जोर से उसे बिस्तर पर पटक दिया..तो सारे दुलार की जो उसने पाया था यह कीमत चुकानी पडती है, यहाँ कोई सुख मुफ्त नहीं मिलता. स्कूल के दिनों की बात है, किसी कारणवश गृहकार्य की जांच समय पर नहीं करवा पायी. डांट के डर से या इस डर से कि कक्षा में जो अपनी प्रतिष्ठा है, वह दांव पर लग जाएगी, अध्यापिका के हस्ताक्षर लाल स्याही से बना लिए. भीतर कुछ टूट गया होगा, आत्मा पर एक धब्बा लग गया होगा, दुःख का एक बीज बो दिया गया होगा. लेकिन कारण था वही कि दुनिया उसे अच्छा समझे. उम्र बढती रही, भीतर नये तरह के स्वप्न जगने लगे. पढ़ाई-लिखाई छोडकर मन कल्पनाओं में गुम हो गया. आदर्श प्रेम को आधार बनाकर न जाने कितने दिवास्वप्न देखे लेकिन तब यह ज्ञान नहीं था कि स्वयं को जाने बिना, स्वयं को प्रेम किये बिना, ईश्वर को प्रेम किये बिना असली प्रेम से पहचान ही नहीं होती. भाई-बहनों के साथ झगड़े किये, दुःख के और बीज बोये. रेडियो पर गाने सुने, कानों को तृप्ति मिले, मन को तृप्ति मिले..उस मन को जिसका स्वभाव ही अतृप्त रहना है. जो कभी संतुष्ट होना जानता ही नहीं. जो सदा रोता ही रहता है, अभाव का रोना..अभी स्कूल में ही थी, एक बार घर में सबके नये वस्त्र सिले, उसके लिए क्यों नहीं आये..भीतर कोई घाव फूट पड़ा हो जैसे..माता-पिता के स्नेह पर इल्जाम लगाया कि उसे छोड़कर सभी प्रिय हैं. दुःख का बीज बोया गया. विवाह हुआ तो भीतर नये स्वप्न करवट लेने लगे..एकाधिकार की भावना ने बहुत दुःख दिया. जिस पर पूर्ण विश्वास किया वही कठोर भी हो सकता है, जो कोमल है वही कठोर भी है, लेकिन यह स्वीकार नहीं था. अहंकार को चोट लगती तो भीतर यह भाव जगा कि क्या इस जगत में बिना दुःख के कोई सुख नहीं है ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मन सदा विश्रांति का अनुभव करे. यह सुख-दुःख का झूला बहुत झूल लिया अब तो इसके पार क्या है, यह देखना है. जगत का सत्य सामने आ गया यह ज्ञात हुआ कि जिन संबंधों पर जीवन टिका था, वे कुछ ऐसे तत्वों पर टिके हैं जिनके नीचे आधार नहीं है, रेत का महल है यह संसार, अपने मन के सरे खेल नजर आने लगे !




Friday, August 5, 2016

नवधा भक्ति


दो-तीन दिन की धूप के बाद मौसम ने फिर अपना मिजाज बदल लिया है, पुनः बादल बरस रहे हैं. आज सुबह वे फिर भ्रमण के लिए निकले. नेहरू मैदान में कल रात भर की वर्षा के बाद पानी भरा हुआ था पर लोग फिर भी चल रहे थे सो वे भी गये. जूते, ट्रैक सूट सभी भीग गये. जून अब पहले से ठीक लग रहे हैं. उसे लगता है यह अस्वस्थता उनके भीतर से उठी पुकार का परिणाम है कि अस्तित्त्व उन्हें देखे, उन पर ध्यान दे. हर दुःख अपने भीतर एक सुख छिपाए रहता है, जैसे हर सुख अपने भीतर एक दुःख..अब वह परिवर्तन के लिए तैयार हैं. जीवन के प्रति उनकी रूचि बढ़ी है और इधर उसका क्या हाल है ? उसे लगता है, प्रगति नहीं हो रही है, कारण वह अपने समय का बेहतर उपयोग नहीं कर रही है. सद्गुरु से इस विषय में राय लेना ठीक रहेगा, उन्हें एक पत्र लिखेगी, वह जहाँ कहीं भी होंगे उसे निर्देश देंगे कि क्या करना उचित होगा. उसे मान की कामना है तभी न कविता भेजकर यही उम्मीद बनी रहती है कि कोई प्रतिक्रिया मिलेगी. जब तक संसार से सुख पाने की आशा बनी हुई है तब तक परमात्मा से प्रेम कैसे टिकेगा..परमात्मा उसकी इस झूठी आस को चूर-चूर कर देना चाहते हैं, अहंकार की पुष्टि के अलावा क्या होने वाला है..न जाने कितनी बार मान चाहा है और फिर अपमान के घूँट भी पीने पड़े हैं. अपमान और मान दोनों मिलते हैं यहाँ एक साथ..दोनों से ऊपर उठना है और इसके बावजूद अपना काम किये जाना है..किये ही जाना है. फल पर उनका अधिकार नहीं केवल कर्त्तव्य पर ही उनका अधिकार है !

कल शाम को उसकी कामना का दंश केवल उसे ही नहीं चुभा बल्कि जून को भी पीड़ित कर गया. वह बहुत परेशान हुए लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक हो गया और कई दिनों के बाद वे रात भर ठीक से सोये. जून और उसका जीवन इतना मिला हुआ है कि थोड़ी सी भी दूरी बेचैनी पैदा कर देती है. उसे विवाह के फौरन बाद के दिन याद आने लगे हैं, किसी ने ठीक कहा था विवाह बार-बार किसी के प्रेम में पड़ने का नाम है...पति-पत्नी निकटतर से निकटतम होते हैं फिर दूर हो जाते हैं, पुनः निकट आते हैं..ऐसे ही उनकी जीवन यात्रा चलती है, भीतर प्रेम जगा हो तो कोई भी संबंध मधुर बन जाता है..उसे उनके रिश्ते में एक सुखद नवीनता का अहसास हो रहा है. जून नितांत पारिवारिक व्यक्ति हैं, उनके लिए घर ही सारे कर्मों का आश्रय स्थल है अर्थात उनके कर्म घर के लिए हैं..वही उनका विश्राम स्थल भी है और वही उनका साध्य भी, एक व्यक्ति जो मन के अनुसार जीता है, जो कभी सुखी होता है तो कभी दुखी..जिसको अभी मन के पार की खबर नहीं हुई है. सद्गुरू की कृपा से उसे अपने भीतर एक ऐसा ख़ुशी का स्रोत मिल गया है कि सारे कार्य उसके लिए समान हैं..लेकिन इस ज्ञान ने इतनी समझ तो दी है कि अपने आस-पास के लोगों के मन को समझकर उनके अनुकूल व्यवहार कर सके..वह जानती है, उसकी वाणी कठोर है..न जाने कितने नश्तर चुभोये हैं इस वाणी ने..कितने दिलों में..सबसे ज्यादा जून के दिल में..जो उसके लिए प्रेम से भरा है..वह उसे सम्पूर्ण पाना चाहते हैं..उसका मन व आत्मा तक को..कुछ भी उसके भीतर ऐसा न हो जो उनकी पहुंच से दूर हो..और वह ..उसने अपने मन को जान लिया तो मानो सबके मनों को जानने की कुंजी मिल गयी..आत्मा सबकी एक सी है.


आज ध्यान में अनोखा अनुभव हुआ. उसके बाद किया ‘पाठ’ भी विशेष समझ में आया. विवेक जागृत रहे तो जीवन कितना सुंदर हो जाता है. विवेक को सजग रखने के लिए ध्यान कितना जरूरी है, इसीलिए सभी संत ध्यान पर इतना जोर देते हैं. सुबह टहलने गये, पांच बजे लौटे तो सूर्य देव काफी ऊपर आ चुके थे. टीवी पर मुरारीबापू गुजरती में रामकथा कह रहे हैं. ‘श्रवणं कीर्त्तनं विष्णु पादसेवनं अर्चनं वन्दनं दास्यम सख्यम् आत्मनिवेदनं’ यह नौ प्रकार की भक्ति है. जिसको सामाजिक सन्दर्भ में समझाने का प्रयास बापू कर रहे हैं. आज उनके यहाँ सत्संग है, अगले हफ्ते गुरूजी का जन्मदिवस है, तब भी सेंटर पर कार्यक्रम होगा. आज फिर बदली छायी है. कल शाम वे एक परिचित के यहाँ गये, उन्हें स्पाईनल कार्ड में हुई एक ग्रोथ के कारण दर्द था. 

Wednesday, June 15, 2016

जन्मदिन की कविता


अक्तूबर का अंतिम दिन, श्रीमती गाँधी की पच्चीसवीं पुण्यतिथि ! अभी कुछ देर पहले दीदी से बात की. छोटा भांजा स्वीडन से स्वाइन फ्लू जैसे लक्षण लेकर लौटा है. बड़ी भांजी को सासूजी तथा माँ दोनों ने कहा था कि शुरू के तीन महीनों में ज्यादा घूमना-फिरना ठीक नहीं है पर वे पहले से ही टिकट कटा चुके थे, जो डर था वह सही निकला. दीदी ने पिताजी, छोटे भाई, बहन सभी की बातें बतायीं. पिताजी ने उन्हें मेल भेजा है इस उम्र में वे भी कम्प्यूटर से परिचित हो रहे हैं. उन्होंने उसे भी अवश्य भेजा होगा.
उसकी एक सखी का जन्मदिन इसी महीने है, उसके लिए एक कविता लिखनी है. वह अपने बेटी की चिंता करती है, सास की फ़िक्र करती है. घर की चिंता करती है. सबकी सेहत का ध्यान रखती है, घर की सजावट का ध्यान रखती है. ये सोचते ही उसने लिखना शुरू किया-

धूप गुनगुनी हवा में ठंडक
फूलों वाला आया मौसम,
जन्मदिवस के लिए खुशनुमा
मंजर लेकर आया मौसम !

दिन का चैन रात की नींदें
जिस चिंता में उड़ गयीं अपनी,
उस चिंता को भूल हँसी का
जश्न मनाने आया मौसम !

घंटों लगें रसोईघर में
सेहत सबकी ठीक रहे,
गोभी, मटर, सलाद सभी को
खौलाने का आया मौसम !

रंगों से सज गयीं दीवारें
दरवाजे भी चमक उठे अब
कांच के बर्तन धो-पोंछकर
चमकाने का आया मौसम !

इसकी चिंता, उसकी चिंता
दुनिया भर की सिर पे चिंता
जन्मदिवस का पा तोहफा
मुस्काने का आया मौसम !

नवम्बर का आरम्भ हुए छह दिन हो गये हैं. आज पहली बार डायरी खोली है. परसों मृणाल ज्योति गयी थी, एक अध्यापिका ने कहा बच्चों की पुरानी साइकिलें यदि मिल सकें तो अच्छा है. क्लब के बुलेटिन में लिखने के लिए सेक्रेटरी को संदेश भिजवा दिया है उसने. क्लब के कार्यक्रम में वह उसकी कविता ‘तुम्हारे कारण’ पढ़वाना चाहती हैं. एक कविता उसे पत्रिका में छपने के लिए भी देनी है.


कल छोटी भांजी, चचेरी बहन व एक सखी की बिटिया से बात की तीनों कितनी भिन्न हैं पर तीनों ही एक सूत्र में बंधी हैं, वह सूत्र है सुख-दुःख का सूत्र, देखा जाये तो वे सभी आपस में ऐसे ही बंधे हैं ! छोटी ननद का फोन आया है, वह अस्वस्थ है, घबराहट होती है तथा कमजोरी है. रक्तचाप भी घटता-बढ़ता रहता है, डाक्टर ने थायराइड का टेस्ट बताया है. अपने तन को स्वस्थ रखना कभी-कभी बहुत कठिन हो जाता है. सब कुछ सामान्य होते हुए भी कोई अस्वस्थ हो सकता है. उसकी सखी ने कहा उसके जन्मदिन पर जो कविता उसने लिखी थी, वह सभी रिश्तेदारों को भेज दी थी, सभी ने तारीफ़ की है. लिख रही थी कि जून आ गये, शाम को क्लब में फिल्म है, उसका पोस्टर लाये थे, ‘लाइफ पार्टनर’ वे शाम को गये, पूरी फिल्म नहीं देख पाए, शेष भाग पड़ोसिन को फोन करके पूछा.  उसने अपने बगीचे के (कोल) केले भिजवाये हैं. दो तीन दिन पूर्व उनके यहाँ भी एक गुच्छा तोड़ा गया था, पक जाने पर भिजवायेगी. 

Monday, January 5, 2015

स्वामी योगानन्द की पुस्तक


कण-कण में ईश्वर व्याप्त है, उसके प्रति भक्ति सदा भीतर है. उस पर कामनाओं और वासनाओं का आवरण चढ़ा होता है. हर पल चेतन रहकर मन को शुद्ध करना है, जैसे-जैसे मन शुद्द होता जायेगा भक्ति अपने आप प्रकट होती जाएगी. कुछ करना नहीं होता अपने आप ही ईश्वर प्रेम प्रकट होता है जब अंतर उसके लायक होता है. अंतर में प्यार छलकता हो असीम शांति हो और परमानन्द का स्रोत मिल जाये तो ईश्वर की शक्ति दिनों-दिन प्रकट होती जाएगी. तब मन संशय मुक्त हो जाता है. सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी, मान-अपमान, अच्छा-बुरा के द्वैतों से प्रभावित होना छोड़ देता है. संशय विहीन मन ही श्रद्धावान होता है. श्रद्धा ही परम लक्ष्य तक ले जाती है. ऊंच-नीच, शत्रुता-मित्रता की भावना से रहित होकर यदि मन का एकमात्र लक्ष्य दूसरों की सुख-सुविधा का ध्यान रखते हुए सेवा करना है तो ईश्वर वहाँ प्रकट होता है. परनिंदा और असूया पतन की ओर ले जाने वाली है. यदि हृदय में प्रेम होगा तो वह सूर्य की भांति हर एक पर अपनी ऊष्मा बिखेरेगा. वह हरेक के लिए समान रूप से होगा. विशेष श्रद्धा का पात्र तो मात्र एक वही है और वह तो जड़-चेतन बन हर ओर व्यक्त हो रहा है. उसकी छवि हरेक में देखनी है और उसमें हरेक को देखना है तभी द्वैत भाव मिट जायेगा और उस एक के सिवाय कुछ नजर नहीं आएगा. अज सुबह ध्यान में उसे कुछ पलों के लिए दिव्य अनुभव हुआ, लेकिन वह टिकता नहीं, अभी बहुत दूर जाना है. गुरू उसके पथप्रदर्शक हैं, मंजिल एक न एक दिन मिलेगी !

उन्हें मुक्त होना है और शरण में जाते ही वे एक क्षण में मुक्त हो जाते हैं. जो भी विकार भीतर हैं वे बाह्य हैं, जिन्हें निकाल सकते हैं अथवा आने से रोक सकते हैं. कल शाम को अंततः लाइब्रेरी से वह पुस्तक Man's Eternal Quest जो स्वामी योगानन्द जी की लिखी हुई है मिल ही गयी. पहले दो अध्याय पढ़े और रात भर मन कृष्ण भाव में रहा. ईश्वर उसके अंतर्मन में प्रकट हुए हैं यह भाव ही कितना प्रिय है. आज सुबह खिड़की खोलने का अनुरोध जब जून ने नहीं माना तो थोड़ा सा क्रोध का भाव एकाध क्षण के लिए हफ्तों बाद आया पर सचेत थी. अष्टांग योग के बारे में आत्मा में बताया जा रहा है. कृष्ण ने भगवद गीता में एक श्लोक में ही बहिरंग योग का वर्णन किया है, जिसपर न जाने कितनी कितनी पुस्तकें लिखी गयी हैं. आज भी कल की तरह बदली है, गोभी और टमाटर के पौधे धूप से बच रहे हैं, ईश्वर हर वक्त उनके साथ है. इच्छा, मोह, भय, काम, लोभ को त्याग कर ही वे मुक्त हो सकते हैं. ईश वर्णन वह अमृत है जो मुक्ति के मार्ग पर ले जाता है. मन को शांत रखना योग में आरूढ़ होने के लिए आवश्यक है. आसक्ति के कारण किया गया कर्म बाँधता है, शुद्ध सात्विक कर्म ही मुक्त करते हैं. शांत मन ही शुद्ध कृष्ण प्रेम रूपी प्रकाश फैलाता है. पल-पल सजग रहकर ही अध्यात्म के पथ पर आगे जाया जा सकता है. तब मानसिक सुख व संतोष इतना प्रबल व स्वाभाविक हो जाता है कि साधक क्षण प्रतिक्षण परमात्म भाव में समाहित हो जाता है.

Wednesday, November 12, 2014

सोलर कुकर का मॉडल


जब चित्त में संसार का कोई भी ख्याल नहीं उठता है तब मन ठहर जाता है, भीतर परम मौन उभरता है और उसी शांति में परमात्मा की झलक दिखाई देती है. ध्यान करते करते जब प्राणायाम की विधि, मन्त्रजप व सारी चेष्टाएँ अपने आप छूट जाएँ तभी ऐसी स्थिति आती है ! जितना सच्चाई भरा व्यवहार होगा उतना अंतःकरण शुद्ध होगा और उतना ही ध्यान टिकेगा, मन में कोई उहापोह न हो कोई द्वेष की भावना न हो, अपने प्रति व दूसरों के प्रति ईमानदार रहें, ईश्वरीय आदर्शों की और जाने की आकांक्षा हो तो जीवन में सहजता आने लगेगी. आज सुबह जो सुना था उसमें से ये बातें उसे याद रह गयी हैं. अभी-अभी छोटी बहन से बात की, कह रही थी सभी को उसकी फ़िक्र है जानकर अच्छा लगा. कल रात को वर्षा हुई सो धूप तो अब नहीं है पर उमस बरकरार है. नन्हा स्कूल से आया तो वह रिहर्सल पर चली गयी वापस आयी तो नन्हा और जून दोनों अपना-अपना कम कर रहे थे. जून का मूड कुछ देर के लिए जरूर बिगड़ा पर उन्होंने अपने को फिर संयत कर लिया. वह चाहे कितनी देर बाहर रहें पर उसका बाहर रहना उन्हें खलता है, इसके पीछे क्या है यह तो वही जानते हैं. दीदी को मेल लिखे चार दिन हो गये हैं पर भेज नहीं पा रही है, जून से कहेगी ऑफिस से ही भेज दें, उन्हें प्रतीक्षा होगी. कल बंगाली सखी का जवाब भी आ गया अभी तक पढ़ा नहीं है.

उसके गले में दर्द है, पिछले दिनों ठंडा पेय पीया, शायद इसी कारण. शनिवार को नाटक है तब तक सभी को सेहत ठीकठाक रखनी है. आज से ठंडा पानी पीना बंद. जब वे स्वस्थ होते हैं तो देह की तरफ ध्यान भी जाता, अस्वस्थता जितनी विवश कर देती है पर बाबाजी के अनुयायियों को विवश होने की क्या आवश्यकता है, वह देह नहीं है, न ही मन या बुद्धि, बल्कि मुक्त, पवित्र, शुद्ध आत्मा है, इन छोटे-छोटे या बड़े भी दुखों का उस पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. कल दोपहर बाद तेज वर्षा हुई, बिजली भी चली गयी, उन्होंने अँधेरे में ही भोजन बनाने की तैयारी की तो पता चला अँधेरे में उनके रसोईघर में किन्हीं और प्राणियों का राज है. नन्हे ने कितनों को भगाया, आज नैनी पूरा किचन धो-पोंछकर साफ कर रही है. उसका काम बढ़ गया है, सो उसने कपड़े धोने के लिए मशीन लगाने का निश्चय किया. वाजपेयी जी के घुटने का सफल आपरेशन हो गया है, ईश्वर उन्हें दीर्घायु दे, देश को चलाने का जो बीड़ा उन्होंने उठाया है उसे पूरा कर सकें, पाकिस्तान के साथ समझौता करने में सफल हों ! आज नन्हा प्रोजेक्ट के लिए बनाया ‘सोलर कुकर’ ले गया है.

“ईश्वर का स्मरण करने से अहम् विसर्जित होता जाता है, राग-द्वेष संसार की चर्चा करने से होता है लेकिन ईश्वरीय चर्चा यदि मन में चलती रहे तो ये नष्ट हो जाते हैं तथा मानसिक दुःख से भी निवृत्ति होती है, एहिक सुखों और सुविधाओं में डूबा हुआ मन विपत्ति आने पर तिलमिला उठता है किन्तु ईश्वरीय भाव में युक्त मन चट्टान की तरह दृढ़ होता है, छोटे-मोटे दुःख वह साक्षी भाव से सहता है ऐसे ही सुख भी उसे प्रभावित नहीं करता वह शांत भाव से नश्वर सुख-दुःख को सहता है. ईश्वर असीम बल से परिपूर्ण करता है, क्योंकि वह पूर्णकाम है, कुछ पाना उसे शेष नहीं है. जितना सुखद जीवन है, उतनी ही सुखद मृत्यु भी है. मृत्यु एक पड़ाव है, नये सफर पर जाने से पहले की विश्रांति है. कर्मों का फल हर किसी को भुगतना पड़ता है. नये कर्म करने की आकांक्षा न रहे और पुराने कर्मों के बंधन काटते चलें तो मुक्त कहे जा सकते हैं”. आज बाबाजी ने उपरोक्त विचार कहे. यह बिलकुल सही बात है और उसे कई बार इसका अनुभव भी हुआ है जब वह ईश्वरीय विचार से दूर चली जाती है स्फूर्ति का अनुभव नहीं करती. सत्कर्म करने के लिए सद्प्रेरणा और सद्गुण उसे उन आदर्शों का सदा स्मरण रखने से ही मिल सकती है. संसार नीचे गिराता है और मन नीचे के केन्द्रों में जाकर तामसिक वृत्ति धारण कर लेता है. सात्विक भाव बने रहें इसके लिए प्रतिपल सजग रहना होगा. ईश्वर की अखंड अचल मूर्ति सदा सर्वदा आँखों के सम्मुख रखनी होगी जो प्रेरित करती रहे. उन का बल, शक्ति और आशर्वाद मिलता रहे, उनका स्नेह मिलता रहे और वह तभी सम्भव होगा जब वह उन्हें दिल से चाहेगी !


Saturday, November 8, 2014

रंगरेज का काज



आज बाबाजी का प्रवचन बहुत प्रभावशाली था, सुबह गुरु माँ ने भी वही बात कही थी कि जिस तरह एक के भीतर परमात्मा का नाम है, वह भला बनने की चाह रखता है, किसी के अपशब्द या दिया गया अन्य कोई कष्ट उसे सुख-दुःख का अनुभव कराता है, उसी तरह दूसरा भी (जिससे उसका संबंध है, या व्यवहार है) उसी पथ का राही है. किसी के लिए परायेपन की भावना नहीं आनी चाहिए, जो एक के लिए अप्रिय है वही दूसरे के लिए भी अप्रिय है, जो एक को सुखकर है वही दूसरे के लिए भी सुख का कारण है. एक बात बाबाजी ने जोड़ दी, अपने साथ न्याय का व्यवहार करना चाहिए और दूसरे के साथ उदारता का. आज सुबह वे उठे तो धूप बहुत तेज थी पर अब बादल आ गये हैं. कल सुबह वे चार बजे उठे और पाँच बजे क्लब पहुंच गये पर वहाँ इक्का-दुक्का लोग ही थे. फिर वर्षा भी शुरू हो गयी, कुछ देर और प्रतीक्षा करने के बाद वह वापस आ गयी, रेस देर से शुरू हुई होगी. जून को उसका दुबारा वहाँ जाना पसंद नहीं आया, शायद उसके लिए यही उचित रहा हो.

जब तक मन पर रंग नहीं चढ़ा है तब तक ही करना शेष है, रंग मैले कपड़े पर नहीं चढ़ता, गुरु रंगरेज होता है जो मन की चादर को धोकर साफ करता है, फिर प्रेम के रंग से रंगता है. “राम पदार्थ पाय के कबिरा गाँठ न खोल, नहीं पतन नहीं पारखी नहीं ग्राहक नहीं मोल” आज गुरु माँ ने रंगरेज का उदाहरण देते हुए समझाया. उसे लगा यह तो सम्भव जान नहीं पड़ता, वह तो गले तक संसार में डूबी हुई है फिर क्योंकर इससे मुक्त हो सकती है और यही कारण है कि कुछ दिनों तक तो ऐसा लगता है कि आध्यात्मिक ऊँचाई तक पहुंचने के मार्ग पर कदम बढ़ रहे हैं पर फिर दुनियादारी के कार्यों में मन ऐसा रम जाता है कि ईश्वर उससे दूर चला जाता है. आज एक सखी का जन्मदिन है उसने छह बजे बुलाया है, अम्बियाँ मंगाई हैं, सुबह उससे बात करके अच्छा लगा, वह स्वयं तो कभी फोन नहीं करती, बेहद व्यस्त रहती है. आज बाबाजी के प्रवचन में काश्मीर के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला भी आये हैं, उनके कहने पर सभी काश्मीर की शांति की प्रार्थना कर रहे हैं. अपने दिव्य संकल्प की शक्ति पर उन्हें विश्वास है. कल शाम बहुत दिनों के बाद उसने कुछ नया लिखने का प्रयास किया, कुछ पुरानी कविताएँ पढ़ीं, कुछ अच्छी भी लगीं. उसकी किताब इस माह के अंत तक छप जानी चाहिए थी पर प्रकाशकों के वादों पर भरोसा करना ? उचित नहीं है. अगले हफ्ते नन्हे का स्कूल भी खुल रहा है, उसे लिखने का ज्यादा वक्त मिलेगा, वैसे तो यह पूरा वर्ष ही उन्हें व्यस्त रहना है उसके साथ-साथ.

मन में छोटे-छोटे सुखों-दुखों की कहानी चलती रहती है और प्रेम की आग इन को जलाकर भस्म कर देती है, प्रेम ईश्वर का, सच्चाई का पीड़ा भी देता है पर उस पीड़ा में भी आनंद है, सद्गुरु ही यह आग दिलों में जगाता है, हृदय में श्रद्धा उत्पन्न होती है, मन उड़ना भूल जाता है, स्थिर हो जाता है ! लेकिन सन्त का सान्निध्य इस जन्म में उसे मिलना बहुत कठिन है, निकट भविष्य में यह सम्भव नहीं दीख पड़ता, कुछ वर्षों बाद क्या होता है, कौन कह सकता है ! यह आवश्यक भी नहीं कि मात्र गुरू के दर्शन से ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है. आज उन्हें अपना गुरु स्वयं बनना है, उनके भीतर ही ईश्वरीय प्रेरणा विद्यमान है, देर-सबेर जो मंजिल तक पहुंचाएगी ही, कभी-कभी रास्ता भटक गये हैं ऐसा लगता है. कई-कई दिन एक ही जगह खड़े निकल जाते हैं लेकिन उस वक्त भी मन को कोई कचोटता तो रहता है. आज भी पिछले तीन दिनों की तरह तेज धूप निकली है, नैनी ने आम के पेड़ से आम तोड़ दिए हैं, अचार बनाने के लिए जून से मसाले भी मंगाने हैं. कल दीदी व बंगाली सखी को इमेल भेजे. कल उस सखी के यहाँ खाना स्वादिष्ट था, वैसे भी बहुत दिनों के बाद वहाँ जाकर अच्छा लगा.