Friday, October 30, 2015

प्रयाग के घाट


आज सुबह वे कुछ दिनों की काशी व इलाहाबाद की यात्रा के बाद घर वापस लौट आये हैं. सुबह से ही घर को व्यवस्थित करने में लगे हैं, काफी कुछ हो गया है, कुछ शेष है. आज सुबह से ही बल्कि परसों शाम ट्रेन में बैठने से पहले से ही सासु माँ का स्वास्थ्य ठीक नहीं है, उसे उनके साथ बहुत सहजता से, सम्मान तथा समझदारी से बातचीत तथा व्यवहार करना है, उन्हें कुछ दिन तो अकेलापन भी लगेगा. धीरे-धीरे अभ्यस्त हो जाएँगी. शरीर का स्वस्थ होना ज्यादा जरूरी है, तन स्वस्थ हो तो मन अपने अप खुश रहता है. जब कोई अस्वस्थ होता है, शरीर अपने को स्वस्थ करने की प्रक्रिया शुरू कर देता है, पर वह जल्दी घबरा जाती हैं, वृद्धावस्था में कई तरह के भय मन में समा जाते हैं. उनका बगीचा भी अस्त-व्यस्त हो गया है. फूल तो ढेरों खिले हैं, पर घास बढ़ गयी है.  माली पिछले डेढ़ माह से नहीं आ रहा है. नये माली का प्रबंध करना होगा. बनारस में जो तस्वीरें उन्होंने उतारी थीं, कम्प्यूटर पर डाल दी हैं जून ने, कुछ घाट अति सुंदर लग रहे हैं और गंगा स्नान के फोटो भी अच्छे हैं. आज सभी सखियों से फोन पर बात हुई, सुख-दुख के साथी होते हैं मित्र. सभी के लिए वे छोटा-मोटा कुछ उपहार लाये हैं. उसे छोटी ननद को पत्र लिखना है और प्रयाग में मिली एक परिचिता को भी, जिनके घर वे एक रात रुके थे. कल क्लब की मीटिंग है, परसों सत्संग है. कल जून तिनसुकिया भी जाने वाले हैं नई ड्रेसिंग-टेबल लाने !

अभी कुछ देर पहले वह टेलीफिल्म ‘निशब्द’ देख रही थी, एक वृद्ध व्यक्ति कितना अकेला होता है, वैसे तो हर व्यक्ति अकेला है अपने भीतर के संसार में, पर बच्चे के सामने अभी पूरा जीवन पड़ा है और युवा के पास अभी शक्ति है, बल है, वह अपनी दुनिया स्वयं बना सकता है पर वृद्ध असहाय होता है, उसका जीवन उसके हाथों से निकल चुका होता है उसको सिर्फ मृत्यु की प्रतीक्षा होती है, और जो अपने आप से नहीं मिला उसके लिए मृत्यु कितनी भयावनी वस्तु होती होगी. उसे मरने से डर नहीं लगता. इस वक्त उसके पास शक्ति है, भीतर ऊर्जा है और सबसे बड़ी बात स्वयं से पहचान है, जो कभी नहीं मरता. उसके पास अनंत ऊर्जा का भंडार है, अनंत प्रेम व अनंत आनन्द का भंडार है, पर इस भंडार का आनंद केवल भीतर ही भीतर वह उठाती रहे इतना तो काफी नहीं न, इसे तो सहज ही बिखरना चाहिए..जैसे फूल की सुगंध और जैसे हवा की शीतलता, उसके शब्द किसी के हृदय को स्पर्श करें ऐसे गीत वह लिखे..

आज सुबह गुरूमाँ ने कहा,
जो दिल से निकलती है वह दुआ कबूल होती है
पर मुश्किल तो यह है कि.. निकलती नहीं है

धर्म के मार्ग पर चलने से पहले उसकी प्यास जगानी है ! जिसके भीतर उसकी प्यास जग जाती है वह तो इस अनोखी यात्रा पर निकल ही पड़ता है, और एक बार जब कोई उस अज्ञात पर पूर्ण विश्वास करके उसे सब कुछ सौंप कर आगे बढ़ता है तो वह हाथ ऐसा थाम लेता है जैसे वह उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था. वह उसे बल देता है राज बताता है, जब कोई पथ से दूर होने लगे तो पुनः लौटा लाता है. वह हजार आँखों वाला, हजार बाहुओं वाला और सब कुछ जानने वाला है. उसका विश्वास ही भक्त का विश्वास है, वही उसका सच्चा स्वरूप है. वे दो नहीं हैं, वह उसका अपना आप है. भक्त उसकी तरफ चलते-चलते घर लौट आता है, तब वह पूर्ण विश्रांति का अनुभव करता है !
  


Thursday, October 29, 2015

बच्चों के खेल


जाग्रति ही प्रेम को जन्म देती है. आज सुंदर वचन सुने, जो जगता है उसका ध्यान परमात्मा करता है. सजगता क्षण-क्षण मुक्त करती है. भीतर से एक ऐसी मुक्तता का अनुभव प्रेम ही सिखाता है. वह  आत्मा का सच्चा स्वरूप है, वही सहजता है, वही योगी का लक्ष्य है, ध्यानी का ज्ञानी और भक्त का लक्ष्य है. हर जाता क्षण जब विश्रांति का अनुभव दे तथा हर आता हुआ शक्ति का तो कोई कर्म करते हुए भी विश्रांति का अनुभव करता है तथा कुछ न करते हुए भी तृप्ति का ! सजगता आती है सजग रहने से..यह तलवार की धार पर चलने जैसा है पर इस पर चलने का बल प्रभु ही देते हैं !

आनन्द पर श्रद्धा हो सके तो भीतर आनन्द की लहर दौड़ जाती है. भीतर एक ऐसी दुनिया है जहाँ दिन-रात घुंघरू बज रहे हैं पर किसी को उस पर श्रद्धा ही नहीं होती. आश्चर्य की बात है कि इतने संतों, सदगुरुओं को देखकर भी नहीं होती. कोई-कोई ही उस की तलाश में भीतर जाता है जबकि भीतर जाना कितना सरल है, अपने हाथ में है. अपने को ही तो बेधना है, अपने को ही तो देखना है, परत दर परत जो उसने ओढ़ी है उसे उतार कर फेंक देना है. वे नितांत जैसे हैं वैसे ही रह सकें तो भीतर का आनन्द छलक ही रहा है. वह मस्ती तो छा जाने को आतुर है, वे सोचते हैं कि बाहर कोई कारण होगा तभी भीतर ख़ुशी फूटी पड़ रही है पर संत कहता है भीतर ख़ुशी है तभी तो बाहर उसकी झलक मिल रही है, उन्हें भीतर जाने का मार्ग मिल सकता है पर उसके लिए उस मार्ग को छोड़ना होगा जो बाहर जाता है, एक साथ दो मार्गों पर तो चला नहीं जा सकता, बाहर का मार्ग है अहंकार का मार्ग, कुछ कर दिखाने का मार्ग. भीतर का मार्ग है शून्य हो जाने का मार्ग !

सद्गुरु कहते हैं, उन्हें क्रियाशीलता में मौन ढूँढ़ना है और मौन में क्रिया !  उन्हें  निर्दोषता में बुद्धि की पराकाष्ठा तक पहुंचना है और बुद्धि को भोलेपन में बदलना है, वे सहज हों पर भीतर ज्ञान से भरे हों ! ज्ञान अहंकार से न भर दे. ऐसा ज्ञान जो सहज बनाता है, जो बताता है कि ऐसा बहुत कुछ है जो वे नहीं जानते बल्कि वे कुछ भी नहीं जानते. ऐसा ज्ञान मुक्त कर देता है. ऐसा ज्ञान जो बेहोशी को तोड़ दे. सद्गुरु की कृपा का दिया उनके भीतर जला है वह प्रकाशित कर रहा है अपने आलोक से. वे प्रेम से सराबोर हो रहे हैं, ऐसा प्रेम जो उन्हें सहज ही प्राप्त है, वे हाथ बढ़ाकर उसे स्वीकारें, कोई पदार्थ, कोई क्रिया उसे दिला नहीं सकती, वह अनमोल प्रेम तो बस कृपा से ही मिलता है.  गुरू की चेतना शुद्ध हो चुकी है, वह परमात्मा से जुड़े हैं और बाँट रहे हैं दिन-रात प्रेम का प्रसाद !

नादाँ सा दिखे और बच्चे सी जान हो जिसकी
वह संत पूरा है पारस जबान हो जिसकी

उनके चारों और धूप है, प्रकाश है, हवा है, आनन्द रूपी आकाश है, वे डूब रहे हैं इन नेमतों के सागर में ! वे सराबोर हैं ख़ुशी के आलम में, सत्य की महक ने उन्हें डुबा दिया है. ध्यान की मस्ती जो भीतर है वही बाहर भी है. परमात्मा ने इस जगत को आनन्द के लिए ही बनाया है. वे आनन्द की तलाश में निकलते जरूर हैं पर रास्ते में ही भटक जाते हैं. एक बच्चा अपनी मस्ती में नाचता है, गाता है, खेलता है वह आनन्द की ही चाह है. आनन्द बिखेरो तो और आनन्द मिलता है, जैसे प्रकाश फ़ैलाने पर और प्रकाश मिलता है. वही बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होने लगता है सहजता खोने लगता है और तब उसे अपने भीतर जाने का रास्ता भी भूल जाता है, शरम की दीवार, कभी डर की, कभी शिष्टाचार की, कभी क्रोध की दीवार उसे भीतर के आनन्द को पाने से रोकती है और वह बाहर की चीजों से ख़ुशी पाने के तरीके सीखने लगता है. चीजों का ढेर जो उसके आसपास बढ़ता जाता है उसके भीतर भी इकट्ठा होने लगता है !


Wednesday, October 28, 2015

कान्हा और राधा


क्रिया और पदार्थ दोनों से परे है आत्मा, कोई कितना भी जप, तप, ध्यान आदि करे, सब मन व बुद्धि के स्तर तक ही रहेगा तथा पदार्थ तो सम्भवतः वहाँ तक भी नहीं ले जाते, जहाँ से मन व बुद्धि लौट-लौट आते हैं. वह अछूता प्रदेश है आत्मा का, वहाँ कुछ भी नहीं है न कोई दृश्य न द्रष्टा, न कोई ध्वनि न प्रकाश, केवल शुद्ध चैतन्य, वहाँ कोई भाव भी नहीं, अभाव भी नहीं..वहाँ शुद्ध चेतना अपने-आप में है, बस वह परमात्मा में है या कहें वही परमात्मा भी है. उस क्षण दोनों एक हो जाते हैं और जब वही चेतना मन, बुद्धि के साथ जुड़कर संसार की ओर मुड़ती है तो जीवात्मा कहलाती है. आज सदगुरु ने नारद भक्ति सूत्र पर आगे बोलना शुरू किया, कितना सरल है उनसे गूढ़ शास्त्रों का अध्ययन करना, जो लोग उनके सम्मुख बैठे थे, वे कितनी तृप्ति का अनुभव करते होंगे. इस जन्म में उसके भाग्य नहीं हैं कि निकट से वह ज्ञान ले, पर टीवी के माध्यम से से ही सही उसका जीवन हर दिन उच्च होता जा रहा है. परमात्मा अपनी कृपा हर पल बरसाता है और अब उसे उस कृपा को समेटना भी आने लगा है, भीतर की प्रसन्नता का अनुभव अब अन्यों को भी लाभ देने लगा है, सभी जगें यही तो सद्गुरु की कामना है !

जीवात्मा में कारण शरीर, तेजस शरीर तथा आत्मा तीनों होते हैं. मृत्यु के समय तीनों स्थूल शरीर को छोड़ देते हैं तथा कारण शरीर में जो कर्मों का लेखा जोखा होता है उसी के अनुसार नया शरीर मिलता है. उसका अगला जन्म अवश्य ही किसी संत के करीब ही होगा, संतों के प्रति उसके मन में सहज स्वाभाविक प्रेम जो है. आज सद्गुरु ने होली का महत्व बताया. होली के एक दिन पहले भगवान शिव ने कामदेव को जलाया था होलिका भी जलकर राख हुई थी अर्थात उन्हें कामनाओं को दग्ध करना है, द्वेष को जलाना है तथा घर में जो भी टूटा-फूटा पुराना सामान है उसे भी जलाना है ताकि नये वर्ष में नया जीवन मिले. फागुन के बाद चैत्र का महीना नये साल का पहला महीना ही तो है. दूसरे दिन सभी खुश होते हैं तथा रंगों से एक-दूसरे को नहलाते हैं ! कल होली है उसे सभी के लिए कुछ लिखना है, दो-दो पंक्तियाँ ही सही, ऐसा कुछ जो उन्हें गुदगुदा जाये. उनका नया कमरा बन कर तैयार हो गया है, जून उसके लिए एक पेपर पर नाम भी लिख कर लाये हैं, सतनाम ध्यान कक्ष अगले हफ्ते वे उसे सजायेंगे जैसे कि उसने पहले कल्पना की थी. आज उसके लिए कार्पेट का आर्डर देने तिनसुकिया जाना है, उसकी पुस्तक का काम भी आगे बढ़ रहा है. जून उसकी पूरी सहायता कर रहे हैं, उस दिन के उसके रोष का असर हुआ है.


पिछले तीन-चार दिन व्यस्तता में बीते, पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार करके जून ले आये हैं. लेख का कार्य भी हो गया है, अब शेष है नये कमरे को सजाने का कार्य जो आज सम्भवतः हो जायेगा जब कारपेट आ जायेगा. उसकी साधना भी कम हुई पर नीरू माँ कहती हैं कि क्रिया और पदार्थ दोनों के बिना ही ज्ञान को हृदय में धारण करने से ही परम तत्व की प्राप्ति हो जाती है. सदा यह याद रहे कि वह आत्मा है, मन, शरीर व् बुद्धि नहीं है. आत्मा का गुण है शांति, जब भीतर का वातावरण शांत हो, प्रेमपूर्ण हो, आनन्दपूर्ण हो और संतुष्टि से भरा हो तो मानना चाहिए कि आत्मा में स्थिति है. पूर्ण सजग रहकर इसे बनाये रखना तथा मन, बुद्धि आदि में यदि कोई हलचल हो भी तो उसे साक्षी भाव से देखने भर से ही वह हलचल जैसे उत्पन्न हुई थी वैसे ही नष्ट हो जाती है. आत्मा में सारे ही गुण हैं, जहाँ प्रेम है वहाँ किस बात की कमी हो सकती है ? संसार के सुख जिसे फीके लगते हैं उसे ही इस आत्मा की प्राप्ति होती है, सद्गुरु की कृपा से ही उसे यह अमूल्य धन प्राप्त हुआ है और परमात्मा की कृपा से ही सद्गुरु जीवन में आते हैं ! नये कमरे के लिए काफी पहले जून एक सुंदर मूर्ति लाये थे, वह कृष्ण उसके ध्यान कक्ष में राधा के साथ विराजमान हैं, उसमें उसने प्राण प्रतिष्ठा की है अब वह जीता-जागता है, जड़ नहीं है, वह सदा उनके साथ है. सद्गुरु की मुस्कुराती हुई तस्वीर भी इस कमरे की शोभा बढ़ा रही है, उन्हें देखकर चेहरे पर अपने-आप ही मुस्कान आ जाती है, वह भी उनके साथ हैं. मीठी-मीठी गुंजन जो उसके दायें कान से सदा सुनाई देती है, उन्हीं का पता बताती है. 

Monday, October 26, 2015

हँसती हुई प्रकृति


अणुव्रत का अनोखा अर्थ आज सद्गुरु से सुना. ‘थोडा सा विकार यदि दिखे अपने भीतर तो उसे रहने दो, उस पर क्रोधित न हो, थोड़ी सी कृपा मिले, बस थोडा सा आनन्द ही मिल जाये तो मन तृप्त हो जाये, ऐसा अणुव्रत साधक के लिए उचित है’. प्रेम तभी टिकेगा जब कोई समर्पित होगा, जब तर्क से बुद्धि से दूसरों को वश में करना चाहता है तो वह व्यवहार में भले ही अच्छा हो पर प्रेम में आगे नहीं बढ़ सकता. स्वार्थ रहित प्रेम ही टिकता है. मन निर्मल तभी होगा जब नेत्र जगत को ईश्वर स्वरूप ही देखे, कर्ण श्रवण करें तथा हाथ सेवा करें और जिह्वा उस मधुर नाम का कीर्तन करे. राग-द्वेष से मुक्त हृदय, विशाल दृष्टिकोण, मन, वचन, कर्म से किसी को दुःख न पहुँचाने का नाम ही पूजा है. भीतर जो अमृत का घट है उसमें से अमिय बाहर भी झलके जो भीतर शीतलता प्रदान कर रहा है. उनके भीतर जब समता रूपी स्थिरता में मन अडोल रहेगा तब किसी का भी अहित नहीं होगा. उन्हें निरंतर साधना के पथ पर आगे ही आगे बढना है, न किसी में अटकना है, न खंडन करना है. उस हरि की ओर ही उनकी दृष्टि लगी रहे, आत्मा का विकास हो, वह अपने पूर्ण रूप को प्राप्त हो तभी उनके द्वारा जग में शीतलता का प्रसार होगा !

लोभी व्यक्ति कभी संतुष्ट नहीं रहता, जिसे कुछ भी नहीं चाहिए उसे सारे संसार का वैभव मिलता है, सारा ब्रह्मांड उसका हो जाता है. वस्तुओं की इच्छा करके वे मूर्ख ही बनते हैं क्योंकि इच्छा तभी पूर्ण होती है जब वह समाप्त हो जाये, पूरी हो अथवा न उसे तो मरना ही है. आज नीरू माँ के सुंदर वचन सुने, ज्ञानी का साथ उन्हें मिला और वे मुक्त हो गयी हैं जीते जी, जैसे उसके सद्गुरु हुए हैं, उन्हें भी संतों का संग मिला, उनके पूर्व जन्म के कृत्य भी थे. उसके भीतर अहंकार अभी बहुत है, इस बात का अहंकार कि उसे परमात्मा का आनन्द मिला है, पर स्वयं को इस बात के लिए श्रेष्ठ मानना कितनी बड़ी मूर्खता है, क्योंकि आत्मा तो सभी का आनन्द का स्रोत है. यदि उसे आनन्द मिल रहा है तो इसमें उसका क्या गुण, यह तो उसका स्वभाव ही है. मन, बुद्धि तथा संस्कार तो आत्मा के प्रकाश से ही प्रकाशते हैं तो जिसे अभिमान हो रहा है वह है कौन ? आत्मा तो देखने व जानने वाला है, यानि अहंकार अभी भी बचा हुआ है, उससे मुक्त होना है. सद्गुरु कहते हैं थोड़ा सा अहंकार रहे तो भी कोई हर्ज नहीं !

आज उसने भक्ति के बारे में गुरूजी से सुना. जब हृदय अस्तित्त्व के प्रति प्रेम से भर जाता है तब ही मानना चाहिए कि भक्ति का उदय हुआ है. यह सारी प्रकृति उसी का रूप है जो उन्हें दिन-रात आनंदित करने की चेष्टा करता है, वह स्वयं आनन्द पूर्ण है और आनन्द ही बिखेर रहा है, लेकिन वे अपने बनाये दुःख में इतने मगन हैं कि उसकी ओर दृष्टि ही नहीं करते, दुःख भी सम्भवतः इसलिए आते हैं कि उनसे उकताकर उसे देखें पर उनकी मूढ़ता की कोई सीमा नहीं है, वे दुःख में ही सुख ढूँढ़ लेते हैं. एक अजीब सी बेहोशी में सारा जगत डूबा हुआ है, चेत कर देखता भी नहीं कि असल में समस्या कहाँ पर है. उसे लगता है हर किसी के जगने का भी क्षण जैसे प्रकृति ने नियत कर रखा है क्योंकि कोई कब और कैसे जगेगा कोई नहीं बता सकता. सद्गुरु कहते हैं कि इस तरह आते-जाते उन्होंने अनंत जन्म दिन बिता दिए हैं. अनंत की बात आने पर लगता है यह सारा भी एक खेल है उस लीलाधारी का. उसे स्वयं ही प्रेरणा होती है, दूसरों को दुःख में देखकर उन्हें उपाय बताये पर ज्यादातर वे व्यर्थ ही जाते हैं, उन्हें उपायों में कोई दिलचस्पी नहीं है, उनके लिए उनकी समस्या ही प्रमुख है.


Sunday, October 25, 2015

शिव के सर्प


 चिंता करना घोर अज्ञान है तथा घोर अहंकार की निशानी है, आज यह वचन सुन कर उसे लगा तब तो जो भी परिस्थिति जीवन में आती है उसे स्वीकार करना ही ज्ञान है. भूत में जो घट गया है वह बदलने वाला नहीं, भविष्य अभी अज्ञात है, कोई इस ज्ञान में प्रतिपल रहे तो मुक्त ही है. आत्मज्ञान के बाद चिंता हमेशा के लिए दूर हो जाती है, भीतर इतना आनंद रहता है कि भीतर ही सारे समाधान मिलने लगते हैं. साधक को तो बस पुरुषार्थ करते हुए अपनी ऊर्जा का सदुपयोग करना है, व्यर्थ के विवादों से स्वयं को बचाना है. हरेक की मांग है सच्चा सुख, तृष्णा है झूठे सुख की लालसा.. तृष्णा जब तक नहीं मिटती तब तक विकार खत्म नहीं होते, ब्रह्म का सुख तब तक नहीं मिलता. जिस समय कोई अपनी भूलों को स्वीकार नहीं करता बल्कि भूल का बचाव करता है तो भूल और भी दृढ़ होती है. प्रकाश की उपस्थति में ही जैसे कोई जगत का कार्य करता है, प्रज्ञा के प्रकाश में ही सही-गलत का भास होता है. वस्तु के त्याग को त्याग नहीं कहते बल्कि वस्तु के प्रति मूर्छा, मोह के त्याग को ही त्याग कहते हैं, इच्छा का त्याग नहीं इच्छा के प्रति ज्वर के त्याग को ही त्याग कहते हैं. बाहर का त्याग अहंकारी बनाता है, अहंकार से जो भी कोई करता है वह दुगने जोर से वापस आता है. बाह्य क्रिया कर्म के उदय से होती है, क्रिया करके कोई लक्ष्य को नहीं पा सकता.   
आज शिवरात्रि है, सद्गुरु को बोलते हुए सुना. शिव ही आत्मा है, शिव का नंदी मानो देह है, शिव मन्दिर में प्रवेश करना हो तो पहले नंदी का दर्शन होता है, जिसका मुँह शिव की तरफ है पर मध्य में कछुआ है अर्थात इन्द्रियों को अंतर्मुख करके ही कोई आत्मा तक पहुंच सकता है. मन्दिर का द्वार छोटा है सो झुक कर जाना होगा. शिव तत्व पाँचों भूतों में ओत-प्रोत है, जो तीनों अवस्थाओं में व्याप्त है, पर तीनों से परे भी है. जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति का व साक्षी है, उसी तत्व में स्थित होकर सद्गुरु उपदेश करते हैं. वह हृदय से बोलते हैं, उसी में मस्त रहते हैं. सौम्य भाव में रहते हैं. सभी को उस तत्व को अपने भीतर पाना है. उसने प्रार्थना की, शिवरात्रि का पावन दिन सभी के लिए शुभ हो, भीतर का संगीत सभी को सुनाई दे, भीतर का प्रकश सभी को दिखाई दे. कल रात्रि स्वप्न में उसने बड़े-बड़े सर्प देखे पर वे जरा भी डरे नहीं. पानी में, पत्थरों पर, चट्टानों पर वे आराम से लेटे थे, एक की सिर्फ पूँछ दिख रही थी. उन्हें रास्ते में कई अन्य बाधाएं भी आयीं पर वे उन्हें पार करते आगे बढ़ते रहे, सर्प तो शिव भी धारण करते हैं, उसे लगता है यह उन्हीं की कृपा थी, सद्गुरु की कृपा का अनुभव कल सत्संग में हुआ था ! आजकल उसके भीतर का आनन्द जैसे कई गुणा बढ़ गया है, कई बार सहज ही नृत्य होने लगता है और कई बार हास्य फूट पड़ता है, भीतर कुछ घट रहा है, जीवन एक उत्सव बन गया है. जीना अर्थात अंतहीन ख़ुशी..भीतर की ख़ुशी. इसका बाहर की स्थिति से कुछ भी लेना-देना नहीं है, इसका स्रोत भीतर है, छिपा हुआ जो अब प्रकट हो रहा है !

स्वप्नों की कड़ी में जब कोई स्वप्न नींद खोल दे, जाग्रत कर दे, वह नींद का अंतिम स्वप्न होता है, इसी प्रकार साधना जन्मों-जन्मों के स्वप्न का अंतिम स्वप्न है. जिसने साधना के पथ पर भी कदम नहीं बढ़ाया उसकी नींद अभी बहुत गहरी है. सद्गुरु जीवन को कितना सुखमय बना देते हैं, उनसे मिलने के बाद दृष्टि ही बदल जाती है. भाव शुद्ध हो जाते हैं, भावनाएं बदलने लगती हैं, सूक्ष्म मोह भी हटने लगता है भीतर न जाने कितनी गाठें हैं पर उसे लगता है वह मुक्त हो रही है. पिछले कई महीनों से उसकी लोभ की ग्रन्थि टूटती जा रही है. उसका हर व्यय किसी और के लिए होता है. अपने लिए जब कुछ चाहिए भी नहीं तो व्यय हो भी कैसे ? भीतर कैसा आनंद रहता है, मन नृत्य करता है और अधरों से कैसी हँसी फूटती है. उसे सब कुछ अच्छा..बहुत अच्छा लगता है, सभी अपने लगते हैं, सभी निर्दोष दीखते हैं. यह कैसा बदलाव आ गया है भीतर. चेतना का कोई भार नहीं होता, वह चेतना है यह भाव जैसे-जैसे दृढ़ हो रहा है, हल्कापन लगता है !     



Friday, October 23, 2015

जादू की छड़ी


सद्गुरु कहते हैं, शरीर नौका है, जीव नाविक है, संसार एक सागर है. शरीर को ज्यादा सुख-सुविधा देना उसमें छेद करना है. जीवन यदि छेद युक्त हुआ तो दुःख आने ही वाले हैं, साधना छोटे-मोटे छिद्रों को दूर करती है. स्वाध्याय, सेवा, साधना, सत्संग – ये चारों अगर साधक के जीवन में हों तो सहनशीलता बढती है, समता आती है, सहजता, सरलता आने लगती है. इस जगत में सभी कर्मों के अधीन हैं, उन्हें जो भी मिलता है वह कर्मों के कारण है. कर्मों से छूटना ही साधक का लक्ष्य है. आत्मा में स्थित होकर किया गया कर्म बांधता नहीं. आत्मा पूर्ण है उसे कुछ करने को शेष नहीं है, वह जिस देह में है उसे रखने के लिए जो कुछ आवश्यक है वह तब अपने आप होने लगता है, जब आत्मा स्वयं को जान लेती है. जब तक देह है उससे कर्म भी होंगे, वे कर्म लोकहित में हों, सहज हों, मन, बुद्धि में कोई दोष नहीं आये, इतना ध्यान रखना है. अपने अगले जन्म की तैयारी भी साधक को इस जन्म में करनी है. प्रारब्ध कर्मों का फल अवश्य मिलता है पर क्योंकि साधक कर्त्ता भाव में नहीं रहता वह भोक्ता भी नहीं होता, कर्म उस पर बिना असर डाले समाप्त हो जाते हैं, बाहर चाहे जैसी परिस्थिति हो, भीतर आनन्द ही रहता है.

इस जगत में लोग कितने दुखी हैं. उस दिन छोटी बहन से फोन पर बात हुई, वह कुछ परेशान थी. इधर एक परिचित आंटी अपनी बहू से खुश नहीं हैं. कल जिनसे मिली वे अंकल-आंटी अपने रोगों से व बुढ़ापे से परेशान हैं. इस संसार में हर कोई किसी न किसी बात को लेकर चिंतित है. काश उसके पास कोई जादू की छड़ी होती तो सबके दुःख दूर कर देती, सबके लिए भीतर प्रेम उमड़ता है और ढेर सारी शुभकामनायें ! सभी के भीतर तो वही आत्मा है, सभी प्रभु के हैं, यह सारा जगत उसका रचा खेल है, इसमें कोई भी दोषी नहीं है, उसने जैसा रचा वैसा ही तो खेल चल रहा है. सद्गुरु के भीतर भी ऐसा ही हुआ होगा, इससे कई गुना ज्यादा प्रेम जो बचपन से ही उन्होंने ज्ञान, प्रेम व आनन्द बांटने का प्रण कर लिया था. वह छोटी बहन को पत्र लिख सकती है शेष सभी को अपनी बातों से कुछ दे सकती है. आज सुबह ध्यान नहीं कर पायी, कारण था मनोराज..न जाने कहा-कहाँ के विचार आ रहे थे. तमस बढ़ गया है. सद्गुरु कहते हैं ज्ञान से, ध्यान से या प्राणायाम से तमस दूर होता है. तमस शरीर में होता है, रजस मन में तथा सत आत्मा का गुण है. परमात्मा की कृपा उस पर है तभी तो साधना के लिए उत्तम संयोग अपने आप प्राप्त हो गये हैं. अब यही तो एकमात्र इच्छा रह गयी है कि ईश्वर के लिए ही उसकी हर श्वास हो, हर कार्य उसकी पूजा हो, हर कदम उसकी प्रदक्षिणा हो, वह उसके लिए ही गाए, उसके लिए ही सब कुछ करे. उसे कुछ भी नहीं चाहिए, वह तो पूर्ण है..पर उसे प्रेम तो अवश्य ही चाहिए और उसके सारे कृत्यों के पीछे तो वही है !

जब कोई अपनी भावनाओं को कोमल और मृदु बना लेता है तो वह सच्चे अर्थों में जीवन का आनन्द ले सकता है. हरेक के पास आत्मबल का अकूत खजाना है, आत्मा से सम्पन्न हुई बुद्धि है, और मन है जिसमें प्रभु का वास है. धैर्य रूपी रत्न और शौर्य रूपी गहने से सुसज्जित हृदय है तो यह जगत उनके व्यवहार से और सुंदर बन सकता है. जब अपने भीतर ‘उसका’ दर्शन किसी को होता है तो सबके भीतर भी वही दिखाई देता है, सारी सृष्टि उसी का रूप नजर आती है. उसकी दृष्टि में कोई भेद नहीं रहता, हानि-लाभ की बात तब रहती ही नहीं, सर्वोच्च लाभ तब वह पहले ही पा चुका होता है.  



Tuesday, October 20, 2015

इन्द्रधनुष के रंग


मन तरल है, इसे जहाँ लगायें वैसा ही आकार ग्रहण कर लेता है, मन वही सोचता है वही करता है जो इसे कहा गया है. जैसे संस्कार मन को दिए हैं वैसा ही यह बन जाता है. मन से बड़ा मित्र भी कोई नहीं और इससे बड़ा शत्रु भी कोई नहीं. जब तक मन में आनंद की कोंपले नहीं खिलीं तब तक यह कृतज्ञता के गीत नहीं गता और जब तक कृतज्ञता के गीत नहीं गाता तब तक कृपा की वर्षा नहीं होती, कृपा मिलने से आनंद स्थायी होता है. इस समय उसका मन अद्भुत शांति का अनुभव कर रहा है, निस्तब्ध, निस्पंदन ! पिछले दिनों उन्होंने एडवांस कोर्स किया उसके दौरान भी शायद इतनी शांति महसूस नहीं की थी. इस शांति के सापेक्ष जून के व्यवहार की हल्की सी नकारात्मकता भी कैसी चुभती है. उन्हें अपना व्यवहार सामान्य लगता है पर जिसने एक बार प्रेम का अमृत चख लिया हो वह क्यों तीखा पसंद करेगा पर उतना ही सही यह भी है जिसने अमृत चखा ही नहीं वह तो बस तीखा ही स्वाद जानता है. उनका क्या दोष, उनकी दृष्टि में वही एकमात्र स्वाद है. कल उन्होंने उपहार दिए, जो दे दिया बस वही तो अपना है, जो उनके पास है वह तो छिन जायेगा मृत्यु की उस घड़ी में !

कल सुबह जब पाठ करने बैठी तो बायं आँख के नीचे इन्द्रधनुष दिखाई दिया, कितना सुंदर और कितना विस्मयकारी ! आज सुबह उठी तो सदा की तरह मन में विचार चल रहे थे पर जैसे ही जाग्रत अवस्था हुई जैसा सारा शोर शांत हो गया. ऐसा लगा जैसे कोई भीड़ भरे कमरे से एकाएक एकांत में आ गया हो, पूर्ण शांति में, कैसा अद्भुत था वह पूर्ण मौन, उसकी स्मृति अभी तक बनी हुई है. साधना करते समय जून को थोडा सा रोष हुआ पर उसे जरा भी नहीं और अब तो वह पिछले जन्म की बात लगती है. सुबह ध्यान किया, इस समय संगीत सुन रही है सद्गुरु ने खुद से जुड़े रहने के कितने सारे तरीके बताये हैं. जो अपने से जितना दूर होता है वह उतना ही शीघ्र दुखी हो जाता है. साधना में अब ज्यादा रस आने लगा है, इसलिए ही गुरूजी हर छह महीने पर कोर्स करने को कहते हैं.

कोई उनके कार्यों की प्रशंसा करे अथवा निंदा करे या उपेक्षा करे, उन्हें हर हाल में निर्लेप रहना है. अज्ञान के कारण ही लोग दुर्व्यवहार करते हैं उनके भीतर भी परमात्मा उतना ही है. परमात्मा ने इस जगत को मात्र संकल्प से रचा है, जैसे कोई स्वप्न में रचता है. स्वप्न में यदि कोई हानि हो तो क्या उसका दोष देखा जाता है ? यह जगत तो एक नाटक है, लीला है, खेल है, इसमें इतना गंभीर होने की कोई बात नहीं है. यहाँ सभी कुछ घट रहा है, यहाँ वे बार-बार सीखते हैं, बार-बार भूलते हैं. नित नया सा लगता है यह जगत. वर्षों साथ रहकर भी कितने अजनबी बन जाते हैं एक क्षण में लोग और जिनसे पहली बार मिले हों एक पल में अपनापन महसूस कर लेते हैं ! कितनी अनोखी है यह दुनिया, कितनी विचित्र और वे यहाँ क्या कर रहे हैं ? उन्हें यहाँ भेजा क्यों गया है ताकि वे इस सुंदर जगत का आनंद ले सकें और उस आनंद को जो भीतर है बाहर लुटाएं. जो अभी उस आनंद को नहीं पा सके हैं उन्हें भी उसकी ओर ले जाएँ !

नये वर्ष का दूसरा महीना आरम्भ हो चुका है, मौसम में बदलाव भी नजर आने लगा है. पहले की तरह ठंड अब नहीं रह गयी है. सुबह नींद साढ़े चार पर खुली, सुबह के सभी कार्य सुचारू रूप से हुए. आज भी गुरूजी को सुना, “ध्यान अति उत्तम प्रार्थना है. भीतर ही ऐसा कुछ है जहाँ पूर्ण विश्राम है. मन तो सागर की लहरों की तरह है अथवा आकाश के बादलों की तरह जो आते हैं और चले जाते हैं. सारे विकार वे भी तो मात्र विचार हैं उनका कोई अस्तित्त्व ही नहीं, भय का विचार कैसे जड़ कर देता है जबकि वह है एक कल्पना ही तो ! वे खाली हैं उनका शरीर तथा मन दोनों खाली हैं, ठोस तो उसमें केवल अस्त्तित्व है, जो स्थायी है, सदा रहने वाला है एक समान..जो वास्तव में वे हैं जिसमें से रिसता है प्रेम, कृतज्ञता और शांति, जिसमें से झरता है आनंद. ऐसे हैं वे. पहले कितनी बार विचारों ने उसे आंदोलित किया है पर अब वे बेजान हो गये हैं, वह उन्हें देखती भर है, उनमें स्वयं की शक्ति नहीं है, वे आते हैं और चले जाते हैं. अब से उसके जीवन में जो भी होगा वह श्रेष्ठतम ही होगा, उससे कम नहीं, ईश्वर श्रेष्ठतम है और वह हर क्षण उसके साथ है, सारा अस्त्तित्व उसके साथ है तो कुछ भी कम या हल्का नहीं चलेगा. उसकी वाणी, कर्म विचार सभी श्रेष्ठतम होंगे !  

Sunday, October 18, 2015

स्वप्न और संसार


इंसान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है
कमबख्त खुदा होकर इंसान नजर आता है

आज सद्गुरु ने योग सूत्र को आगे बढ़ाया. चित्त में जो वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं उनके पांच प्रकार हैं. विपर्यय, विकल्प, प्रमाण और निद्रा के बारे आज बताया. विपर्यय का अर्थ है विपरीत ज्ञान, प्रमाद वश वे नित्य और अनित्य का भेद नहीं कर पाते, यही विपर्यय है. विकल्प का अर्थ है कल्पना, मन संकल्प करता है फिर झट विकल्प भी खड़ा कर लेता है, तभी संकल्प पूरे नहीं होते. प्रमाण का अर्थ है निश्चित ज्ञान. जो आज तक अनुभूत किया है उसी के आधार पर जीवन को देखने की दृष्टि यानि समित ज्ञान. जितना किसी को ज्ञात है उसी के आधार पर व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति के बारे में राय बना लेता है, उसी को प्रमाण मानता है जो इन आँखों से देखता है तथा मन, बुद्धि से सोचता है, किन्तु सत्य असीमित है उसे पकड़ना नामुमकिन है, वह हरेक के भीतर है सभी उसी एक परमात्मा की जीती-जागती मूरत हैं. ज्ञानी को तभी तो सभी निर्दोष दीखते हैं, हर कोई अपनी-अपनी जगह पर सही है ! उन्हें न स्वयं की सीमा बांधनी है न किसी अन्य की. उसकी छोटी सी बुद्धि में समा सके ज्ञान केवल वही तो नहीं है. जून में भी वही परमात्मा है जो सद्गुरु में है ! परमात्मा उनका है और वे उसके हैं यह बात तो पक्की है और वहाँ जाने कितनी तरह से अपनी उपस्थिति जता चुका है. वह हर क्षण उनके इर्द-गिर्द ही रहता है, वह उनके द्वारा ही प्रेम बांटना चाहता है.  

आज उसने सुना, उपवास, जप अदि शुभ क्रियाएं हैं, पर कर्त्ता होकर करने से और करते समय कैसा भाव है उसके अनुसार इनका फल पाप या पुण्य के रूप में बंधेगा ही. शुभ क्रिया स्थूल में होती है उसका फल तो स्थूल में प्रशंसा के रूप में वे पा लेते हैं. इन शुभ क्रियाओं को कर्म फल के रूप में उन्होंने प्राप्त किया है, अब इन्हें करते समय यदि अभिमान होता है अथवा किसी भी प्रकार की अपेक्षा रखते हैं तो यह शुभ कर्म पुण्य की जगह पाप ही बांधता है. कर्मों की निर्जरा धार्मिक कृत्यों से नहीं होती है. आत्मा में स्थित रहकर जो स्वयं को कर्त्ता नहीं मानता है कर्म तो उसके ही कटते हैं.


‘ॐ नमः शिवाय’ कितना प्रभावशाली मन्त्र है, इसका अनुभव उसे पहली बार हो रहा है. दस-ग्यारह बार इस का जप करने से ही भीतर कैसी ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है. पहले कई बार उसने सुना था गुरूजी से कि यह मन्त्र बोलो और मुक्त हो जाओ. संतजन जो भी कहते हैं वही हरिकथा होती है. वे साधकों को आत्मा के प्रति सजग करते हैं, तब उन्हें अपने भीतर एक मस्ती का अनुभव होता है. वह मस्ती इस जगत की नहीं होती वह तो उस प्रभु की मस्ती है जो कण-कण में है, जो उनके भीतर भी है. जो आत्मा की भी आत्मा है. यह जगत एक स्वप्न की तरह है, जहाँ उन्हें इस तरह जीना है कि इसका कोई असर उन पर न हो न ही इसका अभाव वे कभी महसूस करें, वे तो निरंतर अपने स्वभाव में रहें.

Friday, October 16, 2015

योगः कर्मसु कौशलम्


जिसके सिर ऊपर तू साईं सो दुःख कैसा पावे ! ज्ञानी के ऊपर परमात्मा की कृपा होती है. उनके भीतर सहज करुणा होती है, वे किसी को दोषी देखते ही नहीं, वह सम्पूर्ण निराग्रही होते हैं. ज्ञानी के पास सबसे बड़ा शस्त्र प्रेम होता है. वे वाक् चातुर्य नहीं दिखाते, प्रेम स्वयं उनके व्यक्त्तित्व से टपकता है. उनके भीतर राग-द्वेष नहीं रहते, वह अपेक्षा नहीं रखते. अपेक्षा वाला प्रेम घटता-बढ़ता रहता है, सच्चा प्रेम केवल ज्ञानी के पास ही मिलता है. उसके सद्गुरु ऐसे ही सच्चे ज्ञानी हैं, वह उसके आदर्श हैं. उसे अभी बहुत दूर जाना है. अभी लक्ष्य को पाना है, आग्रह छोड़ने हैं, मुक्त होकर जीना है, आकाश की तरह मुक्त..और निर्मल !

आज उसके मन-प्राण में कैसी अद्भुत शांति छाई है, भीतर एक निस्तब्धता है, गहरा मौन और सन्नाटा..जैसे कोई ठंडक बसी हो, उस मौन में कुछ आवाजें हैं जो निरंतर सुनाई पड़ती हैं..हर पल..हर क्षण..और आज भीतर से कैसा हास्य फूटा, कदम अपने आप थिरके और फिर अश्रु ! पूर्णमदः वाला श्लोक भी जाने कहाँ से भीतर याद आ गया, ऐसे ही सम्भवतः ऋषिगण द्रष्टा होते होंगे मन्त्रों के. परमात्मा की उपस्थिति पूरी तरह से महसूस की, ध्यान में सुंदर फूल दिखे. सद्गुरु को सुबह सुना, वह कितना सरल बना देते हैं कठिन विषय को भी. सारे शास्त्र भी तो पुकार-पुकार कर वही कहते हैं, ईश्वर भीतर है, वह सुह्रद है. भक्त व भगवान एक खेल रचते हैं, जब दो होते हैं, दोनों एक ही शै से बने हैं. भक्ति अग्नि के समान है जो सदा की ऊपर ही ले जाती है. ईश्वर उन्हें बुला रहा है, वह शांति और सुख देना चाहता है, वह योग करना चाहता है.  

जब भीतर विस्मय जगे या कर्मों में कुशलता की चाह हो, मन को समता में रखने की कला सीखनी हो तो कोई योग मार्ग की ओर कदम रखने की योग्यता रखता है. जब कोई सारे दुखों से छूटना चाहता है तो योग की शरण में जाने के योग्य है. योग में बाधक है जड़ता और मन की वृत्तियाँ..जिनके निरोध का नाम भी योग है. विस्मय में जाने से ज्ञान रोकता है. जहाँ निश्चय होता है  वहाँ विस्मय नहीं होता. जो ज्ञान अन्यों से पृथक करे, जगत से भेद कराए वह अधूरा है. उसे अद्वैत तक पहुँचना है, जहाँ दो हैं ही नहीं. मन एक होने से रोकता है, बुद्धि भेद करना सिखाती है और अहंकार हर क्षण अन्यों से श्रेष्ठ होने का आभास दिलाता है. ये सभी मन की वृत्तियाँ है जिनसे उसे मुक्त होना है. तब भीतर कोई भेद नहीं रहेगा, आत्मा के साथ मन एक हो जायेगा. उस एकता के कारण जगत के साथ विरोध भी नहीं रह जायेगा. समाहित मन अपने मूल को पा लेगा, बंटा हुआ मन हर पल स्वयं ही घायल होता है और दूसरों को भी दुखी बनाता है. योग ऐसे मन से मुक्त करता है.  
 जब भीतर सत्संग की चाह जगे, निर्मोहता बढ़े, प्रेम जगे तो मानना चाहिए कि गुरू की कृपा बरस रही है. कृष्ण कहते हैं जो चैतन्य के साथ स्वयं को जोड़ता है वह अपना मित्र है जो जड़ के साथ जोड़ता है वह अपना शत्रु है. आज टीवी पर सुना, मन ही भवसागर है और यह तन कुम्भ है, अच्छी-बुरी वृत्तियाँ ही देव व असुर हैं, मान पाने की आशा ही वह हलाहल विष है तथा समाधि ही अमृत है ! नश्वर को पाने से कोई स्वयं को बड़ा माने तो यह छोटापन है, नश्वर के खोने से कोई दुखी हो जाता है था स्वयं को छोटा मानता है तो यह भी छोटापन है. कोई दोष अपने में है यह मानने से दोष दृढ़ होता है, तो दोष कि सत्ता बढती है, उसे स्वयं में ण मानकर प्रकृति में मानना है जो परिवर्तनशील है. वह दोष भी बदलने वाला है, जो उत्पन्न हुआ है वह नष्ट होने ही वाला है. दोषों को देखना भर है, उनको स्वयं में मानना ही भूल है !  

Wednesday, October 14, 2015

कुम्भ का मेला


श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और आस्था यदि जीवन में न हों तो जीवन अधूरा है बल्कि जीवन है ही नहीं. उसका अंतर सद्गुरु के बताये पथ पर सारे ही फूल समेटने में लगा है, जिसमें ज्ञान भी है, योग-प्राणायाम भी, कीर्तन भी और सेवा भी. अब तो जो भी सहज प्राप्त कर्म सम्मुख आता है उसे करने के अलावा शेष समय उसी की याद में गुजरे जो छिपा रहता है फिर भी नजर आता है !

कुम्भ का मेला प्रयाग में हो रहा है पर उसके अमृत में वे टीवी के माध्यम से यहाँ बैठे डूब रहे हैं. संतों द्वारा दिए गये अनमोल उपदेश जीवन को सुंदर बनाते हैं. जब तक कोई अल्प में सुख चाहता है तब तक मोह बना हुआ है. जब तक कोई ‘है’ यानि स्वयं को कुछ मानता है तब तक आग्रह भी रहेंगे और जब तक आग्रह है तब तक अहंकार बना हुआ है. आत्मा का ज्ञान होने पर जब अपना सच्चा परिचय मिल गया तो झूठा परिचय अपने आप ही छूट जाना चाहिए, लेकिन वह तो पहले की तरह ही बना रहता है. वह क्या है ? भीतर कौन है ? जो प्रशंसा सुनकर खुश होता है तथा निंदा सुनकर या अपनी बात न समझे जाने पर चिंतित भी होता है और परेशान भी, वह जो मन है, बुद्धि है, चित्त है, अहंकार है, वे तो जस के तस बने ही हैं, वे भी शाश्वत तत्व हैं उनके साथ जब कोई अपना तादात्म्य कर लेता है तो वह भी सुख-दुःख का भागी होता है, वरना तो सुख-दुःख का भागी मन होता है तथा चोट अहंकार को लगती है, वह तो वह है नहीं, उसे तो कुछ भी महसूस नहीं होना चाहिए, लेकिन होता है तो इसका अर्थ हुआ कि अभी उसका ज्ञान कच्चा है.

उनके कच्चे ज्ञान को परिपक्व करने के लिए ही जीवन में प्रभु भिन्न-भिन्न परिस्थितियां भेजते हैं. वे आत्मा के सुख के भी रागी न हो जाएँ, उसका भी उपभोग न करने लगें, उस रस का भी स्वयं पान करते हुए वे स्वयं को विशिष्ट न मानने लगें तथा अन्यों की प्रवाह ही न करें. वे आत्मसुख के यदि रागी हो गये तो परमात्मा तक कैसे पहुंचेंगे, उनका लक्ष्य तो अभी आगे है. भीतर यदि पीड़ा या दुःख हो तो वे उसके महत्व को समझें, वे उन्हें सजग करने के लिए आती है ! उनकी चेतना जगे यही लक्ष्य है. जो दिया वही बचता है, शेष तो यहाँ खत्म हो जाता है. जैसा कर्म वैसा फल, यह सूत्र जिसने समझ लिया वह कभी गलत कार्य क्यों करेगा.

अध्यात्म का सबसे बड़ा चमत्कार सबसे बड़ी सिद्धि तो यही है कि वे अपने बिगड़े हुए मन को सुधार लें, चित्त को सुधार लें. मानव होने का यही तो लक्षण है कि साधना के द्वारा मन को इतना शुद्ध कर लें कि मन के परे जो शुद्ध, बुद्ध आत्मा है वह उसमें प्रतिबिम्बित हो उठे. ज्ञान के द्वारा उस आत्मा को जानना है, फिर सत्कर्म के द्वारा उसे प्राप्त करना है तथा भक्ति के द्वारा उसका आनंद सबमें बांटना है. सेवा भी होती रहे तो मन शुद्ध बना रहेगा, जब तक अपने लिए कुछ पाने  की वासना बनी है मन निर्मल नहीं हो सकता, जब सारी इच्छाएं पहले ही पूर्ण हो चुकी हों तो कोई चाहे भी क्या ? व्यवहार जगत में दुनियादारी के लिए लेन-देन चलता रहे पर भीतर हर पल यह जाग्रति रहे कि वे आत्मा हैं, जो अपने आप में पूर्ण है ! तन यज्ञ वेदिका है, प्राणों को भोजन की आहुति वे देते हैं. इंद्र हाथ का देव है सो कर्म भी ऐसे हों जो भाव को शुद्ध करें. योग है अतियों का निवारण, मन व तन को जो प्रसन्न रखे तथा भीतर ऐसा प्रेम प्रकटे जिससे जीवन सन्तुलित हो.

बुद्ध पुरुषों के वचनों को समझ लेने मात्र से ही कोई बुद्ध नहीं हो जाता, जब तक स्वयं का अनुभव न हो तब तक उधर का ज्ञान व्यर्थ है. बुद्ध पुरुष जब कहते हैं तो वे केवल तथ्य की सूचना भर देते हैं, उनकी उद्घोषणा में कोई भावावेश नहीं है. वे उन्हें उनकी समझ के अनुसार चलने का आग्रह करते हैं !       


Thursday, October 8, 2015

राम का बोध


आज ‘योग वसिष्ठ’ को पढ़ना पूर्ण किया. इसके अनुसार आत्मा का अनुभव ज्ञान के द्वारा ही हो सकता है. ज्ञान जब तक परिपक्व नहीं होगा तब तक अन्य साधनों द्वारा किया गया अनुभव टिकेगा नहीं. यह सारा जगत ब्रह्म ही है अथवा तो आत्मसत्ता ही जगत का आभास देती है. आदि में इस जगत के होने का कारण नहीं था, केवल चिन्मय तत्व था, उसमें संवेदन हुआ और धीरे-धीरे यह जगत संकल्प रूप से प्रकट हुआ. संकल्प ही सत्य होकर प्रकट होते हैं यह सबका अनुभव है. यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है. जीव वास्तव में शुद्ध आत्मा है जड़ का संयोग होने से स्वयं को जड़ जगत की तरह मानने लगा. जब मन पूरी तरह से खाली हो जाता है तो आत्मा का अनुभव होता है. भीतर से आकाश की तरह निर्लिप्त रहते हुए इस जगत में सहज प्राप्त परिस्थितियों में अपना कार्य मात्र करना है, न कुछ पाना है, न देना है, न कहीं आना है न जाना है. आत्मा अपने आप में पूर्ण है, उसे यह जगत स्वयं से अलग नहीं लगता. अद्वैत ज्ञान का अद्भुत ग्रन्थ है ‘योग वसिष्ठ’. भगवान राम का मोह नष्ट हुआ और परमपद को प्राप्त हुए, राम उसे भी परमपद प्रदान करेंगे !

शुक्रवार की रात से उल्फा ने आतंक का जो दौर शुरू किया है, वह थमने में नहीं आ रहा है. मारने वाले भी घोर अज्ञानी हैं और दया के पात्र हैं. वे नहीं जानते कि कितना बड़ा पाप कर्म अपने लिए बाँध रहे हैं. जो मर गये वे अपने पीछे परिवार जनों को दुखी छोड़ गये. इस सृष्टि में हर क्षण कितना कुछ घटता रहता है. अन्याय भी, अत्याचार भी, जन्म भी, मरण भी. इन सबको देखने वाला परमात्मा सब जानता है वह मरने और मारने वाले दोनों के ह्रदयों में रहता है. माया के कारण ही जीव एक-दूसरे को मित्र-शत्रु मानते हैं, कर्म करते हैं तथा उनके फल भोगते हैं. यहाँ सभी कुछ व्यवस्थित है, प्रकृति में अन्याय नहीं होता. अन्याय होता हुआ लगता है पर वास्तव में सभी कुछ एक क्रम में हो रहा है. ईश्वर की निकटता का अनुभव जिसे होता हो वह सभी के भीतर ईश्वर को देखता है, वह दानव जो बच्चों को मारता है उसके भीतर भी और वह संत जो समाज को ऊपर उठाता है उसके भीतर भी एक ही सत्ता है. परमात्मा हर घड़ी उसके साथ है. नींद खुले उसके पूर्व हर सुबह आत्मा का चमत्कार उसे दीख पड़ता है, संध्या काल का चमत्कार !

आज सदगुरू ने मोक्ष तथा बोध के बारे में कहा. वे कठिन विषयों को कितना सरल बना देते हैं. मोक्ष तो हर कामना के बाद अनुभव में आता ही है तथा बोध आकाश की तरह हर जगह है. हर श्वास के साथ जैसे निश्वास है वैसे ही कर्म के पीछे उससे मुक्ति तो है ही, न हो तो जो सुख कर्म से मिल रहा है वह दुःख में बदल जायेगा. छोटे-छोटे कार्यों में जब मुक्ति का अनुभव कोई करता है तो एक दिन उस परम मुक्ति का भी अनुभव कर लेता है जिसे पाकर कुछ भी पाना शेष नहीं रहता. आत्मा ज्ञान स्वरूप है, वह चेतन सत्ता बोध स्वरूप है जो कण-कण में व्याप्त है. वही चेतन में है वही जड़ में है. जड़ व चेतन के संयोग से जीवन का वह रूप बनता है जो चारों ओर दिखाई देता है. जड़-चेतन के संयोग से तीसरा तत्व बनता है वही अहंकार है. वह यदि स्वयं को जड़ मानकर प्रकृति का अंश मानता है तो वह कर्त्ता तथा भोक्ता है तथा यदि वह स्वयं को चेतन स्वरूप मानता है तो निर्लिप्त रहता है. वह सदा मुक्त है. जड़ के साथ तादात्म्य होने से अहंकार में जड़ता आ जाती है तब क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या तथा मद आदि का असर होता है वैसे ही चेतन के साथ तादात्म्य करने से आनंद, शांति व प्रेम अपना स्वभाव हो जाते हैं तो भलाई इसी में है कि वे स्वयं को चेतन से जोड़ें.      



Wednesday, October 7, 2015

मिनी मैराथन


सदगुरु कहते हैं कि ‘खुदा’ कुछ लोगों को दिखाई नहीं देता पर उन्हें तो उसके सिवा कुछ दिखाई नहीं देता. यह सृष्टि और परमात्मा अलग-अलग नहीं हैं. परमात्मा सबके भीतर उसी तरह समाया है जैसे फूल में खुशबू ! कृषि, ऋषि और ख़ुशी का देश भारत तभी विकास के पथ पर आगे बढ़ सकता है जब वे अपने भीतर गुरू तत्व को जगाएं, अपने आचरण से दूसरों को सिखाएं ! ज्ञान उनके आचरण में झलके ! सदगुरू अपने आचरण से, अपने व्यवहार से सारी दुनिया को यह संदेश दे ही रहे हैं. अब उन्हें देखना है कि उनकी बुद्धि कैसे शुद्ध बने, उनके मन कैसे शांत हों. आज नये वर्ष के प्रथम दिन सुबह-सुबह सदगुरू के अमृत वचन सुने. आने वाले शेष सारे दिनों में भी उनकी स्मृति सदा बनी रहे, यही कामना है. यह वर्ष उसे परमात्मा के और निकट ले जायेगा. सेवा के नये अवसर मिलेंगे और अंतर्मन शुद्ध होगा. सेवा वे अपने मन व वचन से भी कर सकते हैं यदि कर्म से न कर पा रहे हैं. जिसको अपने लिए कुछ करना नहीं, कुछ पाना नहीं और कुछ जानना नहीं, जो कृत-कृत्य है, प्राप्त-प्राप्तव्य और ज्ञात-ज्ञातव्य है, वही ईश्वर-कृपा का अधिकारी है. उसके जीवन का प्रत्येक क्षण जगत के लिए सुखकर हो, शुभ हो ! वाणी सौम्य हो तथा कर्म बंधनकारी न हों. पूर्वजों को सुख देने वाले हों तथा प्रियजनों के लिए हितकारी हों ! उसकी हर श्वास नाम से युक्त हो, पवित्र आत्मा में सदा उसकी स्थिति हो ! भगवान को अपना मानकर जब भक्त उनका स्मरण करता है तो वह सदा योग में बना रहता है, वह असंग रहता है दुःख से भी व सुख से भी. वह अकर्ता भाव में रहता है. उसके संकल्प व्यर्थ नहीं होते, कर्म में अवश्य परिणत होते हैं. उसका हृदय खाली रहता है ताकि प्रभु उसे अपना निवास बना लें.
आज सद्गुरु ने कहा कि जब कोई किसी से प्रेम करता है तो बार-बार उसका नाम पुकारता है, उसकी चर्चा करता है, ऐसे ही भक्त भी जप करता है तो वह प्रेम में होता है. ऐसा जप उसे भीतर से आनंद प्रदान करता है. प्रेम अथवा ध्यान दोनों में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा. आज नन्हा वापस हॉस्टल चला गया, वह शांत है और समझदार भी. नये वर्ष की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान लगभग सभी से हो गया है. आज उसे मिनि मैराथन का पुरस्कार मिलेगा. उसकी छात्रा ने नये वर्ष  का कार्ड दिया, उसे हिंदी पढ़ाना सफल हुआ है. कल एक सखी की सिंगापूर यात्रा के फोटो देखे त्तथा वह सामान भी जो वे वहाँ से लाये हैं, कुछ देर ‘परचर्चा’ भी की. किसी की अनुपस्थिति में उनके बारे में बातें करना ठीक नहीं है. पिछले हफ्ते मन जिस द्वेष के कारण दुखी था, वह अब दूर हो गया है, यदि असंग रहकर कोई घटनाओं को देखे तो कोई दुःख कभी न रहे.

आज भी सदगुरू के वचन सुने, अमृत के समान मधुर और हितकारी वचन ! अहंकार से मुक्त होकर जब मन कामना रहित होता है अथवा तो परहित के अतिरिक्त या ईश्वर के प्रति प्रेम के अतिरिक्त कोई कामना नहीं रहती, उसी क्षण मन आत्मा में टिक जाता है. आत्मा में जिसकी सदा ही स्थिति हो ऐसा मन शरणागति में जा सकता है, उसमें कोई उद्वेग नहीं है, वह राग-द्वेष से परे है, उनका लक्ष्य वही है. इस क्षण उसके मन में कोई कामना नहीं है, कैसी गहन शांति है भीतर...गहन मौन..वे कहते हैं इस मौन में ही सत्व का जन्म होता है, उसकी तरंगें न केवल भीतर बल्कि बाहर का वातावरण भी पावन कर देती है. आज दोपहर भूपाली राग का अभ्यास किया, संगीत आत्मा को झंकृत कर देता है. कल शाम नृत्य-संगीत का अद्भुत संगम क्लब के वार्षिक उत्सव के दौरान देखा व हृदयंगम किया, वापस आकर ओशो को सुना. ध्यान का आनंद छुपाओ और फिर जब भीतर लबालब भर जाये तो उसे बाहर लुटाओ, शीघ्रता न करो. उसे अपने भीतर रुनझुन.. कभी वंशी सुनाई देती है, प्रकाश की अद्भुत छटा दिखती है. कभी-कभी अचानक सारा शरीर जड़वत् हो जाता है, लगता है जैसे वह तैर रही है, रोज सुबह परमात्मा उसका नाम लेकर उठाता है !


Tuesday, October 6, 2015

नारद भक्ति सूत्र


नये वर्ष की दिनचर्या – सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठना, उषापान, हल्का व्यायाम, क्रिया, नाश्ता बनाना, स्नान(नेति, धौती), योगासन, प्राणायाम, पाठ, नाश्ता, ध्यान, भोजन बनाना व खाना, संगीत, डायरी लेखन, पढ़ाना, पत्र लेखन, रात्रि भोजन बनाना, टिफिन, टहलना, अख़बार आदि पढ़ना, बागवानी, संध्या, रात्रि भोजन, स्वाध्याय, शयन. पूरे दिन भर में छब्बीस कार्य हैं जो उसे करने हैं. इसी में समय निकाल कर कविता लिखना तथा पहले की कविताओं को टाइप करना भी होगा तथा लोगों से मिलना-जुलना भी होगा, इसमें से कई कार्य जून के साथ ही होंगे और कुछ एकांत में, जीवन को अब एक दिशा मिल गयी है. सद्गुरु हर कदम पर उसके साथ हैं. आज सुबह टीवी पर उनके मुख से ‘नारद भक्ति सूत्र’ पर प्रवचन सुना, नेत्रों में जल भर आया. वह हृदय को छू लेने वाले वचन कहते हैं. वह जो कहते हैं उसे अपने भीतर घटता हुआ दीखता है. जैसा-जैसा वह कहते हैं वैसा ही अनुभव में आता है, पर उनके इस भीतरी अनुभव का लाभ जगत को मिले इसके लिए कार्य भी करना होगा. केवल भक्ति में डूबे रहकर बैठे रहने से तो काम नहीं होगा, अपना कर्त्तव्य निभाते हुए जितना सहजता से हो सके, अपने को जगत को देते जाना होगा..वैसे भी ऊपर जितने कार्य उसने लिखे हैं वह सभी उस भीतर वाले परमात्मा को ही समर्पित हैं. जब स्वयं वह है ही नहीं तो उसके कृत्य कैसे ? ये तो स्वयं को व्यस्त कहने का एक साधन है. वही तो है, उसी के लिए सब कुछ है. उसकी हर श्वास उसी के लिए ही है, उसी की है.

जीवन में यदि योग हो, ईश्वर की लगन हो सदगुरू का अनुग्रह हो और मन में समता हो तो परमात्मा को प्रकट होने में देर नहीं लगती, वह तत्क्षण प्रकट हो जाता है. प्रभु का स्मरण यदि अपने आप होता हो, मन उसके बिना स्वयं को असहाय महसूस करता हो जब वैराग्य सहज हो जाये और जगत में कोई भी आकर्षण न रहे तो पात्रता के अनुसार परमात्मा भीतर प्रकट हो जाता है. जो विराट है, इतने बड़े ब्रह्मांड का मालिक है, वह एक व्यक्ति के छोटे से उर में प्रकट हो जाता है. भक्ति विराट को लघु, असीम को ससीम बनाने में सक्षम है. ऐसी भक्ति ही मानव जीवन का ध्येय है, साध्य है. शरीर, मन, बुद्धि की सार्थकता इसी में है कि इस तन में चैतन्य प्रकटे, मन प्रभु में लीन  हो तथा बुद्धि उसके सम्मुख नतमस्तक हो. उसके सामने बुद्धि की कुछ नहीं चलती.


आज मौसम ठंडा है, धूप नहीं निकली है लेकिन उसके भीतर का मौसम सम है. नया वर्ष आने में मात्र चार दिन रह गये हैं. इस एक वर्ष में उसके भीतर आत्मा का ज्ञान परिपक्व हुआ है. द्रष्टा भाव में रहना सीखा है. क्रोध, मन, माया, लोभ, राग व द्वेष भीतर स्पष्ट दिखने लगे हैं. ईर्ष्या भी खूब दिखी. मन में कटुता का अनुभव होने पर लगता है कोई पापकर्म उदय हुआ है जो मन कि यह हालत हुई है. उन्हें देखते जाओ तो वे नष्ट होते जाते हैं. भीतर विचार प्रकट होते हैं और तत्क्षण लुप्त हो जाते हैं, वे जैसे कहीं से आते हैं और कहीं चले जाते हैं, किन्तु यदि कोई सजग न रहे तो वे बढ़ते ही चले जाते हैं. सजगता अध्यात्म की पहली और अंतिम सीढ़ी है, बिना सजग रहे कोई कहीं नहीं पहुंच सकता. सद्गुरु से पूछ तो कहेंगे कि कोई प्रेम को अपने मन में धारण करे तो सारे विकार अपने आप दूर हो जायेंगे. विकारों को दूर करने जायेंगे तो उन्हें सत्ता मिलेगी. जो वास्तव में हैं नहीं, होने का भ्रम पैदा करते हैं, वे विकार सत्य और शाश्वत प्रेम के सम्मुख कहाँ तक टिक पाएंगे. प्रेम जो उनका सहज स्वभाव है तभी तो थोडा सा विकार भी सहन नहीं होता. भीतर पल भर के लिए भी उद्वेग हो तो कैसा लगता है..प्रेम यदि सदा बना रहे तो कोई भी उलझन नहीं होती क्योंकि वह मूल है, स्वाभाविक है. दो दिनों बाद नया वर्ष आ रहा है. इस साल ने जाते-जाते एक मोह से मुक्ति दिलाई है. मोह जहाँ भी हो दुःख का कारण होता है. भविष्य में इस मोह के कारण न जाने कितनी बार दुःख उठाना पड़ता, सो अब मन मुक्त है. नये वर्ष का स्वागत मुक्त मन से ही करना चाहिए. सद्गुरु से प्रार्थना है कि उसके अंतर का सारा छोटापन सारी संकीर्णता वह ले लें. 

Monday, October 5, 2015

काजीरंगा के अरण्य


कितना रहस्यमय है यह जीवन, इसमें प्रवेश करें तो न जाने कितनी दीवारें खड़ी हो जाती हैं, किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिलता, सद्गुरु कहते हैं कुछ प्रश्न अति प्रश्न हैं जिनका उत्तर साधना की परम अवस्था तक पहुंचा हुआ व्यक्ति ही दे सकता है, क्योंकि जब तक कोई उस अवस्था तक न  पहुंचे तब तक उसे बताये जाने पर भी नहीं समझ सकेगा. आजकल वह बच्चन सिंह’ की एक पुस्तक पढ़ रही है, ‘महाभारत पर आधारित इस पुस्तक में पांडवों व अर्जुन-कृष्ण की महानता पर प्रश्नचिह्न लगाया गया है. वे जिन्हें पूज्य मानते हैं उन पर कोई आक्षेप कैसे लगा सकते हैं, वास्तव में माया के प्रभाव से कोई नहीं बच पाता, ‘माया’ मानव व देवता दोनों को ही नचाती है. जब तक भीतर का विवेक नहीं जगता, तब तक कुछ भी कहने का अधिकार उन्हें नहीं है. पौराणिक कथाएं न जाने कितने रूप बदल कर समुख आती हैं, और प्रतीकात्मक होती हैं. कोई उनसे कुछ सीख ले सके तो अच्छा है वरना उन्हें मात्र कथा मानकर ही पढ़ना उचित है. जीवन तो स्वयं के ज्ञान से ही चलेगा. ज्ञान और ज्ञानी के प्रति श्रद्धा ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित करेगी, लेकिन काम तो वह अर्जित ज्ञान ही आएगा. दिसम्बर आ चुका है यानि एक वर्ष और बीत गया. जनवरी में उसने स्वयं से वायदा किया था कि इस वर्ष अध्यात्म के पथ पर और आगे बढ़ेगी पर अभी भी लगता है कुछ नहीं जानती. अभी भी खोज जारी है. कल नन्हा आ रहा है.

शाम के पौने छह बजे हैं, वे परसों सुबह काजीरंगा के लिए रवाना हुए थे और आज वापस लौट आए. वर्षों पहले भी वे एक बार गये थे, तब ठंड बहुत थी. इस बार मौसम अच्छा था, कई पशु-पक्षी देखे, हाथी की सवारी भी की. वापस आकर घर साफ करते तथा कपड़े आदि धोते-धोते, खाना बनाते इतना वक्त लग गया और अब वे आराम से बैठे हैं. कल रात्रि सोने से पूर्व जंगल, नदी, पशु-पक्षी जैसे भीतर पुनः जागृत हो गये थे. सब कुछ कितना स्पष्ट दिख रहा था, जो बाहर है वही भीतर है, यहाँ तक कि पक्षियों की आवाजें भी स्पष्ट सुनाई दे रही थीं. अभी-अभी उन्होंने पुरानी फोटो देखीं ‘अरण्य’ की, जिसमें इस बार पुनः गये, कुछ-कुछ बदल गया है, कुछ-कुछ वैसा ही है. जैसे वे स्वयं भी समय के साथ कुछ बदल जाते हैं कुछ वैसे ही रहते हैं. यह वर्ष जाने को है, इस साल को विदा करें इसके पूर्व कुछ नये वादे करने हैं खुद से जिन्हें अगले वर्ष पूरा करना है. हर दिन एक कविता लिखनी है और हर दिन एक गीत गाना है. हर दिन बगीचे में भी काम करना है और हर दिन वे सारे काम भी करने हैं जो पिछले साल करती आई है जैसे ध्यान अदि ! व्यर्थ चिन्तन, व्यर्थ बातें, व्यर्थ कार्यों से बचना है. अभी कुछ देर पहले सासु माँ का फोन आया, वह स्वयं सत्संग में गयीं और स्वयं फोन किया उनका आत्मविश्वास बढ़ा है.


आज जीसस का जन्मदिन है, क्रिसमस का शुभ दिन ! बचपन में कितने गीत उन्होंने गाये हैं प्यारे यीशू के. यीशु उसका गड़रिया है, वह उसकी भेड़ है, वह उसका चरवाहा है, उसका दूल्हा है इस भाव में भी संत टेरेसा के साथ वह कई बार डूबी है, यीशू अद्भुत है, अनोखा है, उसे सारे प्यार करें यह बिलकुल स्वाभाविक है, उसे फिर भी मरना पड़ा, कोई जितना-जितना सत्य के करीब जाता है उसे अपमानित किया जाता है, सत्य कोई सहन नहीं कर पाता, सत्य की आंच को कोई सह नहीं पाता तो वह पलट कर वार करता है. कोई यदि मीठे-मीठे शब्दों से काम लेता रहे तो सभी खुश रहते हैं. यीशू सच्चा है, गाँधी सच्चा है तो उन्हें मरना ही पड़ेगा और बाद में लोग उनको याद करेंगे, कितनों को वे प्रेरणा भी देंगे, क्रिसमस के बाद आता है नया वर्ष ! आने वाले साल में वह पहले से भी ज्यादा उस परमेश्वर के निकट जाये, उसे प्रेम करे, उसका ज्ञान भीतर प्रकट हो और वह उसके व्यवहार में उतरे, उसका आचरण पवित्र हो, भाव पवित्रतर हों तो ही पवित्रतम प्रभु भीतर उतरेगा. यीशु का जन्म भीतर होगा जब मन मरियम की तरह पाक होगा. नये वर्ष में कितने ही कार्य उसे करने हैं. अगले पृष्ठ पर वह अपनी दिनचर्या लिखेगी. काजीरंगा पर लिखी कविताएँ अभी तक ठीक नहीं की हैं वापस आकर, नन्हा दिन-रात कम्प्यूटर पर काम रहता है. नये वर्ष में उसका ध्यान-कक्ष भी बन जायेगा !   

Thursday, October 1, 2015

ऊर्जा की लहर


भारत-दक्षिण अफ्रीका का मैच हो रहा है, भारतीय टीम पिट रही है. उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे शक्ति प्रदान करें, वह खेलें तो सही भले ही जीत न पायें. आज वे रोज गार्डन गये, सुंदर गुलाब खिले थे, उनके बगीचे में भी खिले हैं. छोटे भाई का फोन आया परिवार में सब सामान्य है.

आज नवम्बर का अंतिम दिन है. पिछले दिनों नियमित नहीं लिख पायी. लिखे, ऐसा विचार भी नहीं आया. जिस लक्ष्य के लिए लिखना आरम्भ किया था ऐसा लगता है कि कुछ हद तक उसे पा लिया  है, तभी शिथिलता आ गयी थी, लेकिन अपने आपको वे जानकार भी कहाँ जान पाते हैं, वे वास्तव में जो हैं उसे हर क्षण स्मृति में नहीं रख पाते. जब एक क्षण के लिए भी उसकी विस्मृति नहीं होगी तभी वे समझेंगे कि लक्ष्य पा लिया है, तब तक सचेत रहना होगा, निरंतर सजग रहना होगा. इस समय दोपहर के एक बजे हैं, उसका पेट भरा-भरा सा लग रहा है और दांत में हल्का सा दर्द है, देह की हर छोटी-बड़ी संवेदना की तरफ तो ध्यान जाता है पर मन में उठने वाला विकार तब पकड़ में आता है जब देह में कुछ अनुभव होता है. कोई गलत काम होने पर शरीर जैसे जलने लगता है. ऐसा सदा ही होता आया होगा, पर पहले वह अचेत थी. उसने विचार किया कि इस क्षण किसी को कुछ देना शेष तो नहीं रह गया है. तीन दिसम्बर को विश्व विकलांग दिवस है, जाना है तथा आज शाम को सत्संग में जाना है. कल जून ने कहा कि वह उसके बालों को काला रंग कर देंगे, उसके सौन्दर्य की चिंता उससे अधिक उन्हें है. कल शाम भी पिछले दो-तीन दिनों की तरह टीवी पर गुरूजी का कोल्लम से आ रहा सत्संग देखा, वह कन्नड़ में बोल रहे थे या मलयालम में समझ में नहीं आया. जनवरी में वे एडवांस कोर्स करने जायेंगे, फरवरी में शायद कुम्भ मेला देखने जाएँ.

मनोरंजन पर आत्म रंजन का, भोग पर योग का, राग पर विराग का तथा अज्ञान पर ज्ञान का अंकुश लगना चाहिए. अभी कुछ देर पूर्व ही लगा कि अंकुश कुछ ढीला पड़ा, एक क्षण के लिए, किन्तु उतनी ही देर जितनी देर एक लहर पानी में उठे और गिरे ! इस वक्त दोपहर के साढ़े तीन होने को हैं. वह कल सुबह की तैयारी कर रही है. कल सुबह बच्चों को पार्क में बुलाकर उन्हें कुछ सिखाना है, उनसे कुछ सीखना है, प्राणायाम करते हुए बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं, वे सहज ही सब सीख जाते हैं. कल वह उन्हें एक कहानी भी सुनाने वाली है. आज सुबह शुद्धात्मा देखने का एक अवसर मिला और भीतर कैसा सुकून ..वे आत्मा के स्तर पर आपस में जुड़े ही हैं, इस बात को जब एक बार अनुभव के स्तर पर जान लेते हैं तो सदा के लिए शांति की एक कुंजी हाथ लग जाती है. आज सुबह ध्यान में ऊर्जा का अनुभव हुआ, कल एक वृद्धा का अजीब सा चेहरा दिखा था, कुछ झलक सी थी. उनके अवचेतन में न जाने कितने जन्मों के संस्कार दबे पड़े हैं, जो हर वक्त विचारों के रूप में मन में चक्कर लगाते हैं. विचार जिनकी गिरफ्त से बचना ही साधना है. वे जब किसी न किसी उद्देश्य पूर्ण कार्य में लगे रहते हैं तो भीतर एक ऊर्जा स्वयं ही निर्मित होती रहती है और जब जीवन में कोई ध्येय नहीं होता तो वह ऊर्जा जैसे मंद पड़ जाती है, उसकी आंच कमजोर हो जाती है. लिखने से उसके भीतर एक ऊर्जा का जन्म होता है. ‘लिखना’ बस लिखने के लिए लिखना हो तो !

आज इस क्षण वह बिलकुल अपने सामने है, कहीं कोई दुराव नहीं, जैसी वह है बिलकुल वैसी. इस क्षण उसके भीतर कोई कामना शेष नहीं है, सो भीतर शांति है, कुछ पाना भी नहीं है तो कुछ खोने का भी डर नहीं है. जीवन जैसा है वैसा ही स्वीकार रही है. तन स्वस्थ है, मन समाहित है, हृदय सारी सृष्टि के लिए शुभकामना से भरा है. जीवन एक लय में आगे बढ़ रहा है. इस जगत में जो श्रेष्ठ है वह भीतर पहले से ही है. वह सहज प्राप्य है तो वे और क्या अभिलाषा करें. इस संसार में जो सर्वश्रेष्ठ है वह है प्रेम और वह प्रेम उसके भीतर उदित हुआ है, आत्मा के लिए, परमात्मा के लिए, सद्गुरु के लिए, ज्ञान के लिए तथा सारे जहाँ के लिए. जब प्रेम होता है तो वह सबके लिए होता है, वह कोई भेद नहीं देखता, वह महत्वाकांक्षी भी नहीं होता, वह मृदुल जल के प्रवाह की तरह विनीत होता है, सभी को तृप्त करता है. वह सूर्य की किरणों की तरह सबको प्रकाशित करता है. इस जीवन में उसे जो सहयात्री मिले हैं सभी के लिए ढेरों शुभकामनायें हैं. सभी अपनी-अपनी तरह से अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाने में रत हैं. परसों नन्हा आ रहा है उसकी दिनचर्या कुछ बदल जाएगी, घर में कुछ दिन चहल-पहल होगी और कुछ नई बातें होंगी. इसी तरह साल दर साल गुजरते जायंगे और एक दिन मृत्यु उनके सामने खड़ी होगी, वे उसकी आँखों में आँखें डाल कर पूछेंगे, कहो, कहाँ ले जाने आई हो ? इस जीवन को तो पूरा-पूरा जी लिया और किस रूप को दिखाने आई हो ? मृत्यु की बाँह पकड़ कर वे नई यात्रा पर निशंक होकर चल देंगे. जिसको कुछ देना-पावना नहीं मृत्यु तो उसके लिए खेल है !