Sunday, October 18, 2015

स्वप्न और संसार


इंसान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है
कमबख्त खुदा होकर इंसान नजर आता है

आज सद्गुरु ने योग सूत्र को आगे बढ़ाया. चित्त में जो वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं उनके पांच प्रकार हैं. विपर्यय, विकल्प, प्रमाण और निद्रा के बारे आज बताया. विपर्यय का अर्थ है विपरीत ज्ञान, प्रमाद वश वे नित्य और अनित्य का भेद नहीं कर पाते, यही विपर्यय है. विकल्प का अर्थ है कल्पना, मन संकल्प करता है फिर झट विकल्प भी खड़ा कर लेता है, तभी संकल्प पूरे नहीं होते. प्रमाण का अर्थ है निश्चित ज्ञान. जो आज तक अनुभूत किया है उसी के आधार पर जीवन को देखने की दृष्टि यानि समित ज्ञान. जितना किसी को ज्ञात है उसी के आधार पर व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति के बारे में राय बना लेता है, उसी को प्रमाण मानता है जो इन आँखों से देखता है तथा मन, बुद्धि से सोचता है, किन्तु सत्य असीमित है उसे पकड़ना नामुमकिन है, वह हरेक के भीतर है सभी उसी एक परमात्मा की जीती-जागती मूरत हैं. ज्ञानी को तभी तो सभी निर्दोष दीखते हैं, हर कोई अपनी-अपनी जगह पर सही है ! उन्हें न स्वयं की सीमा बांधनी है न किसी अन्य की. उसकी छोटी सी बुद्धि में समा सके ज्ञान केवल वही तो नहीं है. जून में भी वही परमात्मा है जो सद्गुरु में है ! परमात्मा उनका है और वे उसके हैं यह बात तो पक्की है और वहाँ जाने कितनी तरह से अपनी उपस्थिति जता चुका है. वह हर क्षण उनके इर्द-गिर्द ही रहता है, वह उनके द्वारा ही प्रेम बांटना चाहता है.  

आज उसने सुना, उपवास, जप अदि शुभ क्रियाएं हैं, पर कर्त्ता होकर करने से और करते समय कैसा भाव है उसके अनुसार इनका फल पाप या पुण्य के रूप में बंधेगा ही. शुभ क्रिया स्थूल में होती है उसका फल तो स्थूल में प्रशंसा के रूप में वे पा लेते हैं. इन शुभ क्रियाओं को कर्म फल के रूप में उन्होंने प्राप्त किया है, अब इन्हें करते समय यदि अभिमान होता है अथवा किसी भी प्रकार की अपेक्षा रखते हैं तो यह शुभ कर्म पुण्य की जगह पाप ही बांधता है. कर्मों की निर्जरा धार्मिक कृत्यों से नहीं होती है. आत्मा में स्थित रहकर जो स्वयं को कर्त्ता नहीं मानता है कर्म तो उसके ही कटते हैं.


‘ॐ नमः शिवाय’ कितना प्रभावशाली मन्त्र है, इसका अनुभव उसे पहली बार हो रहा है. दस-ग्यारह बार इस का जप करने से ही भीतर कैसी ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है. पहले कई बार उसने सुना था गुरूजी से कि यह मन्त्र बोलो और मुक्त हो जाओ. संतजन जो भी कहते हैं वही हरिकथा होती है. वे साधकों को आत्मा के प्रति सजग करते हैं, तब उन्हें अपने भीतर एक मस्ती का अनुभव होता है. वह मस्ती इस जगत की नहीं होती वह तो उस प्रभु की मस्ती है जो कण-कण में है, जो उनके भीतर भी है. जो आत्मा की भी आत्मा है. यह जगत एक स्वप्न की तरह है, जहाँ उन्हें इस तरह जीना है कि इसका कोई असर उन पर न हो न ही इसका अभाव वे कभी महसूस करें, वे तो निरंतर अपने स्वभाव में रहें.

No comments:

Post a Comment