Thursday, October 29, 2015

बच्चों के खेल


जाग्रति ही प्रेम को जन्म देती है. आज सुंदर वचन सुने, जो जगता है उसका ध्यान परमात्मा करता है. सजगता क्षण-क्षण मुक्त करती है. भीतर से एक ऐसी मुक्तता का अनुभव प्रेम ही सिखाता है. वह  आत्मा का सच्चा स्वरूप है, वही सहजता है, वही योगी का लक्ष्य है, ध्यानी का ज्ञानी और भक्त का लक्ष्य है. हर जाता क्षण जब विश्रांति का अनुभव दे तथा हर आता हुआ शक्ति का तो कोई कर्म करते हुए भी विश्रांति का अनुभव करता है तथा कुछ न करते हुए भी तृप्ति का ! सजगता आती है सजग रहने से..यह तलवार की धार पर चलने जैसा है पर इस पर चलने का बल प्रभु ही देते हैं !

आनन्द पर श्रद्धा हो सके तो भीतर आनन्द की लहर दौड़ जाती है. भीतर एक ऐसी दुनिया है जहाँ दिन-रात घुंघरू बज रहे हैं पर किसी को उस पर श्रद्धा ही नहीं होती. आश्चर्य की बात है कि इतने संतों, सदगुरुओं को देखकर भी नहीं होती. कोई-कोई ही उस की तलाश में भीतर जाता है जबकि भीतर जाना कितना सरल है, अपने हाथ में है. अपने को ही तो बेधना है, अपने को ही तो देखना है, परत दर परत जो उसने ओढ़ी है उसे उतार कर फेंक देना है. वे नितांत जैसे हैं वैसे ही रह सकें तो भीतर का आनन्द छलक ही रहा है. वह मस्ती तो छा जाने को आतुर है, वे सोचते हैं कि बाहर कोई कारण होगा तभी भीतर ख़ुशी फूटी पड़ रही है पर संत कहता है भीतर ख़ुशी है तभी तो बाहर उसकी झलक मिल रही है, उन्हें भीतर जाने का मार्ग मिल सकता है पर उसके लिए उस मार्ग को छोड़ना होगा जो बाहर जाता है, एक साथ दो मार्गों पर तो चला नहीं जा सकता, बाहर का मार्ग है अहंकार का मार्ग, कुछ कर दिखाने का मार्ग. भीतर का मार्ग है शून्य हो जाने का मार्ग !

सद्गुरु कहते हैं, उन्हें क्रियाशीलता में मौन ढूँढ़ना है और मौन में क्रिया !  उन्हें  निर्दोषता में बुद्धि की पराकाष्ठा तक पहुंचना है और बुद्धि को भोलेपन में बदलना है, वे सहज हों पर भीतर ज्ञान से भरे हों ! ज्ञान अहंकार से न भर दे. ऐसा ज्ञान जो सहज बनाता है, जो बताता है कि ऐसा बहुत कुछ है जो वे नहीं जानते बल्कि वे कुछ भी नहीं जानते. ऐसा ज्ञान मुक्त कर देता है. ऐसा ज्ञान जो बेहोशी को तोड़ दे. सद्गुरु की कृपा का दिया उनके भीतर जला है वह प्रकाशित कर रहा है अपने आलोक से. वे प्रेम से सराबोर हो रहे हैं, ऐसा प्रेम जो उन्हें सहज ही प्राप्त है, वे हाथ बढ़ाकर उसे स्वीकारें, कोई पदार्थ, कोई क्रिया उसे दिला नहीं सकती, वह अनमोल प्रेम तो बस कृपा से ही मिलता है.  गुरू की चेतना शुद्ध हो चुकी है, वह परमात्मा से जुड़े हैं और बाँट रहे हैं दिन-रात प्रेम का प्रसाद !

नादाँ सा दिखे और बच्चे सी जान हो जिसकी
वह संत पूरा है पारस जबान हो जिसकी

उनके चारों और धूप है, प्रकाश है, हवा है, आनन्द रूपी आकाश है, वे डूब रहे हैं इन नेमतों के सागर में ! वे सराबोर हैं ख़ुशी के आलम में, सत्य की महक ने उन्हें डुबा दिया है. ध्यान की मस्ती जो भीतर है वही बाहर भी है. परमात्मा ने इस जगत को आनन्द के लिए ही बनाया है. वे आनन्द की तलाश में निकलते जरूर हैं पर रास्ते में ही भटक जाते हैं. एक बच्चा अपनी मस्ती में नाचता है, गाता है, खेलता है वह आनन्द की ही चाह है. आनन्द बिखेरो तो और आनन्द मिलता है, जैसे प्रकाश फ़ैलाने पर और प्रकाश मिलता है. वही बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होने लगता है सहजता खोने लगता है और तब उसे अपने भीतर जाने का रास्ता भी भूल जाता है, शरम की दीवार, कभी डर की, कभी शिष्टाचार की, कभी क्रोध की दीवार उसे भीतर के आनन्द को पाने से रोकती है और वह बाहर की चीजों से ख़ुशी पाने के तरीके सीखने लगता है. चीजों का ढेर जो उसके आसपास बढ़ता जाता है उसके भीतर भी इकट्ठा होने लगता है !


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