Monday, January 12, 2015

ब्रोकोली की पौध


भक्ति मुक्ति की सीढ़ी है, भक्ति हृदय में उत्पन्न हो तो ईश्वर की सत्ता, प्रेम और माधुर्य स्वतः प्रकटते हैं. ईश्वर के लिए यदि भाव दृढ़ हो तो वह उससे अनभिज्ञ नहीं रह सकता. उसके सारे कार्य वही तो संवारता है, बचपन से आजतक ईश्वरीय कृपा का सदैव अनुभव किया है. सुमिरन का भाव अंतर को पवित्र करता है अन्यथा मन इतना वेगवान है कि कोई आश्रय न मिले तो तो व्यर्थ इधर-उधर भटकता फिरेगा. बाबाजी कहते हैं, श्वास रूपी खंभे पर ऊपर-नीचे उतरने का कार्य इस मन रूपी सेवक को सौंप दे तभी कोई मुक्त रह सकता है अन्यथा यह भरमाता है. चित्त की झील यदि शांत होगी तो ही परमात्मा का प्रतिबिम्ब उसमें झलकेगा. सतत् जागरूक रहकर ही इसे अनुभव किया जा सकता है. शास्त्र कहते हैं वह निकट से भी निकट है और दूर से भी दूर है. देखा जाये तो हर दिन मानव का एक नया जन्म होता है हर रात एक छोटी मृत्यु होती है, एक दिन एक रात ऐसी भी आएगी जिसकी सुबह परिचित माहौल में नहीं होगी, उस वक्त ज्ञान और ईश्वर ही साथ होंगे.

आज गुरुनानक जयंती है, पूर्णिमा का दिन , पिता का जन्मदिन भी, सुबह उनसे बात की. मौसम बेहद ठंडा है, धूप में जरा भी तेजी नहीं है. नींद कुछ देर से खुली, रात को ठंड की वजह से नीद में खलल पड़ा था, शायद यही कारण रहा हो, पर आजकल उसके स्वप्न बहुत सुखद हो गये हैं. आज ध्यान में मन्त्र अपने आप छूट गया और मन सिर्फ एक भाव में स्थित हो गया. अद्भुत अनुभव था. साढ़े दस बजे वह गुरुद्वारे भी गयी, वहाँ अखंड पाठ का भोग लग रहा था. गुरुनानक वाणी सुनी, ज्ञान की वह गंगा जो हिंदू धर्म ग्रन्थों में भी है. जून तब ब्रोकोली की पौध लेने गये थे, बाद में उसने स्वयं ही लगाई. कल मूली के बीज डाले थे, अगले तीन महीनों में इसकी फसल तैयार होगी. खतों के जवाब लिखने का आज अच्छा अवसर है. जून ने जो दो लेख लिखने को कहा था वह सम्भव नहीं हो पाया है, गद्य लिखना ज्यादा कठिन है, कठिन कार्य से वह घबराती नहीं है पर लिखने के लिए मौलिक विचार भी होने चाहियें, इधर-उधर से पढ़ी-सुनी बातों को नीरस भाषा में लिख देने से तो बेहतर न लिखना ही होगा ! कविता लिखना उसके लिए सहज है हालाँकि पिछले दो-तीन महीनों से वह भी नहीं लिखी है, जून ने कहा है किताब छप कर  आने वाली है.

उसने मन में उठने वाले विचारों को क्रम बद्ध किया..मानव का मूल तो वही है, वही उन्हें पोषता है. सारी कलाओं का स्रोत भी वही है. वह बेहद निकट है पर उन्होंने खुद पर न जाने कितने लेप चढ़ा रखे हैं. मन में हजार तरह के संकल्प-विकल्प उठते हैं. कल्पना की दुनिया में विचरने वाला मन खुद से तो दूर है ही, परमात्मा से भी दूर चला जाता है. पर एक क्षण में ही यदि वह यह मुल्लमा उतार फेंके तो वही क्षण मिलन का होगा. एक पुकार यदि दिल से उठे तो वह सारे पर्दे खोलकर अपनी झलक दिखाता है. वह हितैषी हर पल बाट जोहता है कि कब भूला भटका कोई घर लौट आये. घर लौटना मानो जीवन में उत्सव का प्रवेश होना है !




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