Monday, July 22, 2013

जंगल का फूल


आज सुबह पता नहीं किस ख्याल में वह सब्जी में नमक डालना ही भूल गयी, नन्हे को टिफिन में वही सब्जी दी है, पर जून के आने पर उसे नमक वाली सब्जी भेजनी होगी, अन्यथा वह भोजन नहीं कर पायेगा. उसने माली को डहेलिया की क्यारी साफ करने को कहा, उसमें पहला फूल अगले हफ्ते खिल जायेगा, चन्द्र मल्लिका पहले ही खिल चुकी है., सफेद, बैंगनी, पीले, गुलाबी और मैरून फूल ! जून कल शाम खेल न पा सकने के कारण बेहद परेशान लग रहे थे, उनके बैडमिन्टन के पार्टनर के पैर में चोट लग गयी है, अभी कुछ दिन और वह नहीं खेल पाएंगे, क्विज में भी वह उनकी सहायता नहीं कर पा रहे हैं.

आज सुबह जून से जब उसने होमियोपैथी डॉक्टर को दिखाने की बात कही तो उनका रेस्पॉंस वही था उदासीनता भरा, कल रात भी यही हुआ, हो सकता है वह भी उनकी परेशानियों के प्रति उदासीनता का प्रदर्शन करती रही हो. उसकी समस्या तो समझ से बाहर है, इस बार बैंडेज करने पर शायद ठीक हो जाये. यूँ उसके कारण उसे फ़िलहाल तो कोई परेशानी नहीं है पर भविष्य में क्या होगा कहना मुश्किल है, लगता है धोबी आया है, कैसा भी मौसम हो वह नियमित रूप से अपने निर्धारित समय पर आता है. कल दोपहर वह एक परिचित के यहाँ गयी, जो असमिया में लिखती हैं, साहित्य के बारे में कुछ चर्चा हुई, आते-आते पौने तीन बज गये. जून ने कुछ देर पूर्व फोन करके हिंदी सप्ताह के लिए स्वागत भाषण लिखने को कहा था उसने ड्राफ्ट लिखा तो है उन्हें दिखाकर फिर से लिखना ठीक रहेगा. आज उनके यहाँ क्विज है, उसने मन ही न उन्हें शुभकामनायें दीं. आज नन्हे के स्कूल में भी इंस्पेक्शन है, कब्स की ड्रेस पहन कर गया है, आज सुबह जल्दी उठ गया था, सारे काम भी समय पर कर लिये जबकि परसों इतवार को आर्ट स्कूल के लिए तैयार होने में पूरे दो घंटे लगाये. उस दिन पहली बार इतना रोया था बाथरूम में नहाते हुए, और कल शाम को उसके इतना कहने पर कि उसका रजिस्टर किसी को दे दिया, आँखें भर लाया, शायद उसकी drawings थीं उसमें, लेकिन जल्दी ही संभल गया. he is growing up fast.

माह का अंतिम दिन, कल जून ने उसे दो अच्छे समाचार दिए, पहला था उसकी कविता के लिए पुरस्कार और दूसरा उसकी बंगाली सखी का भेजा पत्र और उपहार. आज नन्हे का स्कूल बंद है, उसकी पड़ोसिन अपने पति के साथ कोलकाता जा रही है, हृदय रोग का परिक्षण कराने.

आज उसके भीतर का कवि जाग उठा है...
अनगिनत अफसाने, हजारों कविताएँ लिखी जा चुकी हैं कबीर के जिस ढाई आखर वाले प्रेम पर और जो आज भी उतना ही अछूता है उतना ही कोमल और  नई दुल्हन सा सजीला, उसी को शब्दों में बाँधने का प्रयास है यह रचना-

दूर कहीं उजाला फैलाता
एक नन्हा सा दिया माटी का
जैसे दिल के आंगन में प्यार की लौ
जो आस्था, विश्वास और श्रद्धा के अमृत से जलती है
लौ जो चिरन्तन है, जिसे आंधी, पानियों का कोई खौफ नहीं

दूर कहीं जंगल में खिला एक अकेला फूल
जैसे दिल के आंगन में प्यार की खुशबू
जो युगों से कस्तूरी सी बिखेर रही है सुगंध
जिसे बन्धनों और दीवारों का कोई भय नहीं

सुदूर पहाड़ी से उतरती जलधार
जैसे दिल के रास्तों पर प्यार की ठंडक
जो युगों से प्रवाहित है अविरत
जिसे जंगलों और बीहड़ों दोनों को खिलाना है






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