Monday, July 29, 2013

अनुभव-एक यादगार फिल्म


आज मन शांत है, कल की उदासी के बादल छंट गये हैं, हर रात के बाद सबेरा आता है. लेकिन जब कोई परेशान या दुखी हो तो यह बात भूल जाता है. कल शाम उसने माँ-पापा से बात की, बहुत अच्छा लगा, वाकई उन्होंने बहुत असर नहीं लिया है चोरी की इस घटना का, अब वह भी सुख-दुःख, हानि-लाभ में समभाव रखने का प्रयत्न करेगी. जून कल कोलकाता जा रहे हैं, वहाँ से मद्रास जायेंगे. मौसम इस नये साल में अच्छा रहा है अब तक, खिली हुई धूप, चिड़ियों और दूसरे कई पंछियों की अलग-अलग आवाजों के बीच-बीच में गाय के रम्भाने की आवाज और लॉन के खिले हुए फूलों के बीच बैठकर लिखना उसे अच्छा  लग रहा है. दोपहर को दो लडकियाँ हिंदी पढने आ गयीं, अच्छा लगा, उन्हें ‘प्रबोध’ से पढ़ा रही है. शाम को जून और वह टहलने गये तो मार्च में की जाने वाली यात्रा के बारे में बात करते रहे. इस बार उनका जाना ज्यादा खल रहा है, यह उनके प्रति प्रेम की वजह से है या उनके बिना अकेले रहने के भय के कारण, पता नहीं. शायद दोनों के कारण, भय सिर्फ अकेलेपन का है और किसी बात से उसे डर नहीं लगता. उसने सोचा, अकेलेपन का इलाज है टीवी और उसकी परिचित महिलाएं, किसी के भी पास जा सकती है, नन्हे के स्कूल से आ जाने के बाद तो पढ़ते-पढाते, खेलते ही समय गुजर जायेगा.
जून के जाने के बाद वह कुछ देर एक पत्रिका पढ़ती रही, स्वेटर बनाया, शाम को बगीचे में कुछ देर काम किया. देर शाम को एक मित्र परिवार आ गया. कल क्लब मीट का अंतिम दिन है, वे लोग दोपहर लंच के लिए जायेंगे.
आज जून से फोन पर बात हो गयी, उसकी बैक डोर पड़ोसिन ने जब उसे बुलाया तो मन ख़ुशी से भर गया, पूरी लेन में सिर्फ उनके यहाँ ‘पी एंड टी’ फोन है, और फिर उनकी आवाज आयी, वह ठीक से मद्रास पहुंच गये. उसने सोचा है इन दिनों का उपयोग घर की अच्छी तरह सफाई करने में करेगी, मच्छरदानी धुलवाई और रजाइयों के कवर भी, तीनो अलमारियां व सारी दराजें कल से साफ करेगी. फ़िलहाल तो खतों के जवाब देने हैं.
आज जून को गये चौथा दिन है, दोपहर को पीटीवी पर उसने एक नया धारावाहिक देखा, ज्यादा अच्छा नहीं था पर पता नहीं क्यों शायद पिछले जन्म की कोई याद है जो उसे इन किरदारों से जोडती है. नन्हा आज देर से आया, उसकी असमिया क्लास थी. कल रात उसका गृह कार्य खत्म होने में नौ बज गये, तब उन्होंने खाना खाया, जून होते तो सब काम समय पर हुआ होता.

सुबह से बारिश हो रही है, उसने सोचा, मद्रास में तो धूप निकली होगी, शाम को वे क्लब गये लाइब्रेरी, वहाँ बीहू के त्यौहार की तयारी शुरू हो गयी है. लाइब्रेरी में उसने धर्मयुग पढ़ा, उसे पढना हमेशा ही अच्छा लगता है. आदर्शोन्मुख लेख, मार्मिक कहानियाँ और सीधी सारी कविताएँ, चिन्तन या दर्शन पर लेख सभी कुछ प्रेरणास्पद है, लेकिन कुछ देर पढ़कर महसूस कर लेने से क्या कर्त्तव्य की इतिश्री हो जाती है. दुनिया में करने को कितना कुछ है पर इसके लिए चाहिए दृढ इच्छा शक्ति, लगन और सेवा की भावना. वे लोग किसी और ही मिट्टी के बने होते हैं, जो कुछ करके इस दुनिया से जाते हैं. वह इन विचारों में खोयी थी कि नन्हे ने कहा असमिया आंटी ने कहा है की ‘एल’ देखे, यानि टीवी का एल चैनल और विचारों का तारतम्य टूट सा गया है.

‘फिर कहीं कोई फूल खिला चाहत न कहो इसको
फिर कहीं कोई दीप जला मंजिल न कहो इसको’

आज वर्षों बाद अनुभव देखी, ‘पराग’ में एक बार अनुभव, सारा आकाश, भुवन शोम जैसी फिल्मों के नाम पढ़े थे, तभी से मन में एक छोटी सी इच्छा थी इसे देखने की. संजीव कुमार और तनुजा की यह फिल्म उसे गहरे तक छू गयी है. जून होते तो साथ-साथ वे इसे देखते. उसने डायरी उठा ली मन के उन भावों को उतारने के लिए जो इस फिल्म ने उभार दिए हैं, ढेर सा प्यार और बहुत गहरा विश्वास, किसी के इतने करीब आने का अहसास कि गुजर सके न दरम्यां से हवा  !

जब दिल के नजदीक किसी कली के चटकने की आवाज आयी
और दरख्त से कोई पत्ता हवा में लहराता हुआ घास से टकराया
 ओस की बूंद किरन से ले गर्माहट बादल बन गयी
 मन्दिर में जलता दिया बुझने से पहले फड़फड़ाया  
 शाम से रात होने में जब एक पल बाकी था
हर उस घड़ी एक याद उसके साथ थी
गहरी धड़कन जो विश्वास में सम रहती है
शांत बहती नदी की धारा की तरह
है आँखों में चमक दोस्ती की
जो सम्भालती है हर ऊँचे नीचे रस्ते और ऊबड़ खाबड़ जमीन पर कदमों को
तुम जीवन की आस ही नहीं, उसका सत्व हो ! जीवन का तत्व !







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