भीतर परमात्मा पल रहा है, जिसके
अंतर में एक बार भी परमात्मा के लिए प्रेम जगा है मानो उसने उसे धारण कर लिया. अब
जब तक परमात्मा बाहर प्रकट नहीं हो सकेगा वह चैन से नहीं बैठ सकता. दुःख इसलिए
नहीं है कि कोई परमात्मा से दूर है, वरन् इसलिए कि वह भीतर ही है और वह उसे खिलने
नहीं दे पा रहे. कली जो फूल बनना चाहती है पर बन नहीं पाती, कितनी पीड़ा झेलती
होगी. वे भी जो अहंकार, मान, मोह, लोभ, और कामनाओं द्वारा दंश खाते हैं, इसलिए कि आनन्द,
शांति, प्रेम और सुख जो भीतर ही है पर ढक गया है. लेकिन एक गर्भिणी स्त्री जिस तरह
अपने बच्चे की रक्षा करती है वैसे ही उन्हें अपने भीतर उस ज्योति की रक्षा करनी
है. एक न एक दिन उसे जन्म देना ही है. उनकी चाल-ढाल, रहन-सहन, खान-पान ऐसा होना
चाहिए मानो एक कोमल, निष्पाप शिशु उनके साथ-साथ जगता सोता है. उनकी भाषा उनके
विचार ऐसे हों कि उसे चोट न पहुंचे क्योंकि उसका निवास तो मन में है. भीतर जो
कभी-कभी असीम शांति का अनुभव होता है वह उसी की कृपा है और वह परमात्मा उन्हें
चुपचाप देखा करता है. उनके एक-एक पल की खबर रखता है. वह स्वयं बाहर आना चाहता है,
पर उनकी तैयारी ही नहीं है. उसका तेज सह पाने की तैयारी तो होनी ही चाहिए. वह भीतर
से पुकार लगाता है, कभी वे सुनते हैं कभी दुनिया के शोरगुल में वह आवाज छुप जाती
है.
जून आजकल कुछ चिंतन में लगे हैं. क्रोध उनके स्वभाव में था, पर अब वह इससे
मुक्त होना चाहते हैं. वह अपने मन के विचारों को संयित करना चाहते हैं. वह ध्यान करना
सीख रहे हैं. अंततः यही एक मार्ग है. हर संवेदनशील व्यक्ति को एक न एक दिन खुद को
पहचानने की यात्रा शुरू करनी होगी. सद्गुरु उन्हें भीतर जाने को कहते हैं. भीतर
जाकर ही ज्ञान होता है कि बाहर कुछ भी पकड़ने को नहीं है. दूसरे से सुख मिल सकता है
ऐसी कामना ही व्यर्थ है, दूसरे से न कभी कुछ मिला है न मिलेगा. यह जानना ही भीतर
के खजाने से परिचय करा देता है. प्रेम ही एकमात्र दौलत है जो उनके पास है. उसे
जितना बांटें वह बढ़ता ही जाता है. यह संसार जो पहले कारागार लगता था अब वह सुंदर
आश्रय स्थल बन जाता है.
आज उसने सुंदर वचन सुने, तन मिट्टी से बना है, मन ज्योति से बना है. मन को
भरना इस संसार से सम्भव नहीं हो सकता. वह विराट चाहता है. अनंत ही उसकी प्यास बुझा
सकता है. मन जब मूलरूप को पहचान लेता है, घर लौट आता है तो उसका आचरण, उसका बाहरी
दुनिया से सम्पर्क का तौर-तरीका ही बदल जाता है. प्रेम, शांति और अपनापन वह
परमात्मा से पाता है, सो बाहर लुटाता है, जितना वह लुटाता है उतना-उतना परमात्मा इसे
भरता ही जाता है. स्वयं की पहचान उसे सभी मानवों से जोड़ती है सभी जैसे उसी के भाग
हैं, कोई पृथक नहीं, सभी का भला ही उसकी एकमात्र चाह रह जाती है. उसके जीवन में
मानो फूल ही फूल खिल जाते हैं !
सद्गुरु कहते हैं, कीचड़ में कमल की सम्भावना है, पैर रहें जमीन पर सिर रहे
आकाश में तो उनके भीतर एक सुंदर कमल खिलता है. उन्होंने यदि सद्गुरु के ज्ञान के
बीज को अपने हृदय में धारण किया, सींचा और पलना की तो भीतर एक कमल खिलता है !
जागना उनके हाथ में है, प्रेम उनके भीतर है अगर अपनी पीड़ा से अभी तक घबरा नहीं गये
तो बात और है लेकिन यदि भीतर का खालीपन खलने लगा है तो खिलने दें कमल को !
पुराने संस्कारों से छुटकारा पाना कितना कठिन होता है, लेकिन भीतर प्रेम जगाना
जरा भी कठिन नहीं, प्रेम की बाढ़ भीतर आ जाये तो सारे विकार बह जाते हैं. इस दुनिया
में प्रेम की भाषा पढने वाले कोई बिरले ही होते हैं. सच्चा प्रेम हो, जैसे सद्गुरु
का.. उसे तो हर कोई पढ़ लेता है. वह तो प्रेम ही हो गये हैं और वे अपने छोटे-छोटे
स्वार्थों की पूर्ति में खोये रहकर थोडा बहुत प्रेम जो भीतर पाते हैं उसे भी
बांटने से डरते हैं. वे प्रेम भी करते हैं तो पात्र देखकर, छानबीन करके. वह तो
प्रेम नहीं हुआ सौदा हो गया. लेकिन.. उन्हें अपनी आजादी तो कायम रखनी होगी. यह बात
दिखाती है कि अभी अहंकार बचा हुआ है.
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