Monday, May 30, 2016

जीवन स्मृति - टैगोर की यादें


जीवन इतना बहुमूल्य है... यह जगत इतना सुंदर है ! सृष्टि का यह क्रम इतना पावन है और इस व्यक्त के पीछे अव्यक्त की झलक इतनी मोहक है किन्तु वे तुच्छ के पीछे अनमोल को गंवाए चले जाते हैं, मन को व्यर्थ के जंजालों से भरे चले जाते हैं. खाली मन में न जाने कहाँ से शांति और सुकून भरने लगता है और भीतर का वही उजाला बाहर फैलता चला जाता है. कल-कल करती नदी  का स्वर, पंछियों की चहचहाहट, हवा की मर्मर ध्वनि, आकाश की असीमता और धरा की कोख से उपजे हरे-हरे वृक्ष ! सभी उस अव्यक्त की पहचान कराते से लगते हैं. पिछले दो-तीन दिनों से विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की आत्मकथा पढ़ रही थी. ‘जीवन स्मृति’ अनोखी पुस्तक है, कवि का हृदय कितना कोमल होता है. गीत, संगीत और प्रकृति के सौन्दर्य से ओत-प्रोत ! पुस्तक की भाषा कमनीय है. उनके बचपन के संस्मरण, विदेश के अनुभव तथा लिखने की शुरुआत के विवरण, सभी कुछ अनूठा है. उसका हृदय भी उसी आश्चर्य और रहस्य से भर गया है. बचपन की कितनी ही यादें मुखर हो उठीं, वर्षा की फुहार में भीगना तथा कमल कुंड पर वृक्ष के तने का सहारा लेकर लिखना, हवा में ठंड में गोल-गोल घूमना, हरी घास पर चुपचाप लेटे रहकर आकाश को तकना और स्वयं को प्रकृति के निकटतम महसूस करना ! परमात्मा कितने रूपों में आकर्षित कर रहा था !

जून आज कोलकाता गये हैं. मोबाइल भूल से छोड़ गये थे फिर किसी के द्वारा मंगवा लिया. भोजन के बाद वह विश्राम कर रही थी कि नन्हे ने फोन करके उसे जगा दिया. अब इस नये कमरे में वर्षा की बूंदों की आवाज सुनते हुए बैठना अच्छा लग रहा है. माँ-पिताजी सो रहे हैं. दोपहर के एक बजे हैं, एक सखी को राखी बनवाने आना था पर वर्षा उसे आने नहीं देगी.

कल राखी का त्योहार है ! श्रवण की पूर्णिमा, प्रेम भरी भावनाओं की अभिव्यक्ति का दिन ! उसे एक अच्छा सा sms लिखना है, जो छोटा भी हो और संदेश भी देता हो !

सावन सूखा हो या भीगा
पूनम रस की धार बहाए,
रंग बिरंगे धागों में बंध
कोमल अंतर प्यार जगाए !

कल वे मृणाल ज्योति गये थे, दो सखियाँ उसके साथ थीं. रक्षा बंधन का उत्सव मनाया. शाम को एक सखी भी घर पर आयी. वातावरण प्रेमपूर्ण था. उसके भीतर के विकार धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं. ईर्ष्या, लोभ, क्रोध, अहंकार तथा मोह ये विकार ही भावों की दूषित कर देते हैं. लोभ, मोह और अहंकार तो पहले भी घटे थे पर शेष सूक्ष्मरूप से बने ही थे. भीतर कितनी शांति है, परमात्मा भी यही चाहता है, वह उसके चारों ओर कैसे अद्भुत साधन जुटा रहा है. विपश्यना का प्रवचन सुनते-सुनते ध्यान गहरा गया था आज. वर्तमान पर ध्यान करते-करते कैसी तैल धारवत् वृत्ति हो गयी थी. सद्गुरु उसे पथ दिखा रहे हैं. ज्ञान के मोती उनके चारों ओर बिखरे ही हुए हैं पर वे अज्ञान को ही चुनते हैं. विचार अज्ञान की ही उपज है ऐसा विचार जो व्यर्थ ही भीतर चलता रहता है जो भीतर का संगीत सुनने नहीं देता. खाली मन तन को भी कितना हल्का बना देता है. इस क्षण कितना सुकून है भीतर, जैसे सब ठहर गया है ! आज सुबह उठी तो शरीर एकदम हल्का था. दरअसल भार शरीर का नहीं होता, मन का होता है !


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