संत कहते हैं, पत्थर, वनस्पति, पशुओं की दुनिया को पार कर वे मानव
बने हैं. मानव के पास मन है, वाणी है ! वाणी से ही मनुष्य की पहचान होती है.
परमात्मा भी शब्द के माध्यम से प्रकट हुआ है. इस शब्द को जब कोई भीतर सुनता है तो
मानो परमात्मा के द्वार पर ही पहुंच गया है. संगीतमयी वह धुन अनवरत भीतर गूँज रही
है. बाहर का संगीत भी भीतर से ही उपजा है. भीतर अमृत के झरने बह रहे हैं. मनुष्य
का जन्म इसी को सुनने के लिए हुआ है. मनुष्य परमात्मा से ही जन्मता है, उसमें ही
जीता है व विलीन होता है, लेकिन वह जानता नहीं. वह सोचता है जैसे सांसारिक वस्तुएं
बाहर से मिली हैं वैसे ही परमात्मा भी बाहर कहीं मिलेगा. हर मानव एक खजाना अपने
भीतर छुपाये है. अभी वह सोया है, स्वप्न में भिखारी हो गया है ! अभी मन का एक
हिस्सा जगा है नौ भाग सोया है. जागा हुआ एक भाग हार जाता है नौ भाग जीत जाते हैं.
जप करके अपने मन को जगाया जा सकता है. मानव का मन विकसित हुआ है तभी विज्ञान इतना
आगे बढ़ा है किन्तु उसका अचेतन मन अभी भी पाशविक वृत्तियों का शिकार बना है. भक्त
अपने मन के भीतर परमात्मा को प्रकट करता है. अनगढ़ा मन भगवान नहीं है, जैसे-जैसे मन
जगता जायेगा परमात्मा प्रकट होता जायेगा ! जैसे एक संगतराश अनगढ़ पत्थर में से एक
सुंदर मूर्ति को गढ़ता है वैसे ही भक्त या साधक अपने मन में से एक प्रकाशपूर्ण
ज्योतिस्वरूप परमात्मा को गढ़ता है. मन को मथ कर वह अमृत कुम्भ प्रकट करता है.
शरीर का सुख प्रकृति को अपने
अनुकूल बनाने करने पर निर्भर करता है पर मन की शांति बाहरी पदार्थों पर निर्भर
नहीं कर सकती ! मन तो तभी आनंदित होता है जब वह स्वयं को परमात्मा के अनुकूल बना
लेता है, अर्थात अपने स्वभाव में टिकता है. निज स्वभाव में रहना मानो धर्म को धारण
करना है. मन ही जीवन का आधार है, मन के स्वास्थ्य पर ही तन का स्वास्थ्य टिका है.
मन की पवित्रता पर ही आत्मा की सबलता निर्भर करती है. मन यदि शांत है तो कर्म भी
पुण्यशाली होंगे, स्थिर है तो संबंध भी दृढ़ होंगे, समता में है तो उसकी शक्तियों
का उपयोग जगत के लाभ के लिए होगा और परमात्मा को उसके माध्यम से प्रकट होने का
अवसर मिलेगा. परमात्मा को उन हाथों की तलाश है जो उसका काम करें, उन पावों की तलाश
है जो उसके पाँव बनें !
आज मौसम बहुत ठंडा है, परमात्मा का
जहाँ वास हो वह स्थान बहुत मनोरम हो जाता है. टीवी पर राम कथा आ रही है, कई बार
सुनी है पर हर बार नई लगती है. वह रसपूर्ण परमात्मा भी तो नित नूतन रस बरसाता है.
वह अनंत है, अपार है ! जिस दिन कोई आँख उठाकर परमात्मा को देखता है तो अपने को ही
देखना होता है. बुद्धि जब थक कर चुप हो जाती है तो भीतर की शांति प्रकट होती है.
एकांत में उसके पास एक गहन शांति के अलावा कोई दूसरा नहीं होता, भीड़ में वह कभी
इधर-उधर हो जाती है और जिस क्षण मन किसी कामना से भर जाता है या बुद्धि वाद-विवाद
में उलझ जाती है तो शांति कहीं छिप जाती है. परमात्मा एकछत्र राज्य करता है, उसके
सामने कोई अन्य नहीं रह सकता. ‘प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समायें’
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