“तुम
जमाने की राह से आए
वरना सीधा था दिल का रास्ता”
नजरें झुकाईं और नमन हो गया, पलक झपकने से भी कम समय में दिल में बैठे
परमात्मा से मुलाकात हो सकती है पर उनकी आदत है लम्बे रास्तों से चलकर आने की. वे
किताबें पढ़ते हैं, ध्यान की नई-नई विधियाँ सीखते हैं. पूजा-अर्चना करते हैं और न
जाने क्या-क्या करते रहते हैं. परमात्मा उस सारे वक्त उन्हें देखता रहता है, वे
उसके सामने से गुजर जाते हैं, बार-बार उसे अनदेखा कर उसी को खोजने का दम भरते हैं.
वे प्रेम को छोड़कर ईर्ष्या को चुनते हैं ! प्रशंसा को छोड़ निंदा को चुनते हैं.
सहानुभूति को छोड़ क्रोध को चुनते हैं, शांति को छोड़ शोर को चुनते हैं, वे एकांत को
छोड़ भीड़ को चुनते हैं, सहजता को छोड़ दिखावे को चुनते हैं ! वह सब करते हैं जो
परमात्मा से दूर ले जाता है और उम्मीद करते हैं कि उनका पाठ, जप-तप परमात्मा के
निकट ले जायेगा, ये तो ऊपरी वस्तुएं हैं. परमात्मा को जिस मन से पाना है जहाँ उसका
आगमन होना है, उस मन में सब नकारात्मक है, ‘नहीं’ है, निषेध है, उसमें स्वार्थ है,
नकार है तो वहाँ वह कैस आएगा, जो सबसे बड़ी ‘हाँ’ है, जो है, जो वास्तविक है, सत्य है,
प्रेम है, शांति है, आनंद है. उनका चुनाव ही भटकाता है. जीवन हर कदम पर उन्हें
निमन्त्रण देता है, झूमने का, गाने का और प्रसन्नता बिखराने का, सहज होकर रहने का,
पर वे उसे गंवाने की कसम खा कर बैठे हैं !
पिछले दिनों मन बिखरा-बिखरा सा रहा, अभी नया-नया केन्द्रित हुआ है, थोड़ी सी
प्रवृत्ति उसे हिला देती है. मन को पहचानना उसकी आदतों को जानना कितना कठिन है,
कभी-कभी लगता है सब कुछ हाथ पर रखे आंवले की भांति स्पष्ट है पर जब आशा के विपरीत कुछ घट जाता है
तो भीतर कैसा द्वंद्व मच जाता है. जब उसके मन की यह हालत है तो जून के मन की क्या
होती होगी, वह कल्पना ही कर सकती है. मृणाल ज्योति गयी थी, उन्होंने बच्चों के कुछ
फोटो खींचने को कहा, जो उससे नहीं हो सका, सो दुबारा आने की बात कह कर लौट आई, पर
दुबारा इतनी जल्दी जाना सम्भव नहीं था. सो मन पर जैसे कोई बोझ था. सेवा का कार्य
भी पीड़ा का कारण बन सकता है, आश्चर्य हुआ. जागृति भी हुई कि सेवा का कार्य जब तक
आनंद का सुख का कारण बना रहेगा तब तक दुःख की गुंजाइश बनी ही रहेगी. सेवा भी
अनासक्त होकर करनी है ऐसे कि उसमें कर्ताभाव ही न रहे. सेवा से अहंकार की पुष्टि
होती हो तो न करना ही ठीक होगा. अहंकार न जाने कितने रूपों में भीतर छिपा रहता है.
स्वयं को शुद्ध चैतन्य जानना ही शांति का एकमात्र उपाय है. मन तब केन्द्रित रहता
है, उसकी धारा एक ओर बहती है, मन अनुशासित रहता है. तमोगुण से मुक्त हुआ मन रजोगुण
से भी मुक्त हो रहा है पर सतोगुण की अदृश्य जंजीरें उसे बांधे हुए हैं ! अभी उन्हें
भी तोड़ना है कुछ न होना ही साधक का लक्ष्य है, दुःख से पूर्ण मुक्ति तभी सम्भव है.
परमात्मा के प्रति प्रेम तो गौण हो जाता है सभी दुखों से मुक्त होना चाहते हैं.
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