पहले-पहल इस बात का अनुभव हुआ जब
विवाह के बाद आर्यसमाज परिवार में नियमित हवन करने लगी, अग्नि के सामने बैठे श्लोक
उच्चारण करते-करते मन जब शांत हो जाता तो भीतर एक नये तत्व का जन्म होता हुआ लगता.
बचपन में माँ-पिता को बृहस्पतिवार का व्रत करते देखा था, स्वयं भी कितने सोलह
शुक्रवार किये, पर उससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ सिवाय स्वादिष्ट भोजन के जो व्रत
के बाद मिलता था, लेकिन विवाह के बाद धर्म का वास्तविक रूप समझ में आया. चार बच्चे
हुए सभी को अच्छे संस्कार दिए. सदा डाक्टर पति का साथ व सहयोग मिला. जीवन अपनी गति
से चल रहा था कि मायके में हुई छोटे भाई की दुखद मृत्यु ने हिला कर रख दिया. भाई
की उम्र ही क्या थी, उसका पुत्र अभी मात्र चार वर्ष का हुआ था. माता-पिता भी जवान
बेटे की मौत से दुखी थे. उसे दुगना दुःख हुआ, भाई का व माता-पिता का. उसने अपना
ध्यान रखना छोड़ दिया, किडनी की समस्या शुरू हो चुकी थी, भीतर ही भीतर वह जड़ पकड़
रही थी पर बाहर के दुःख में उस पर ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं थी. भाई की मृत्यु
का दर्द अभी कम भी नहीं हुआ था कि पिता भी चल बसे. अब वह बिलकुल ही टूट गयी. माँ
ने ही उसे हिम्मत बंधाई. माँ का दुःख उसके दुःख से बड़ा था पर वह बड़ी जीवट वाली
स्त्री है. वह अपने बड़े पुत्र का परिवार देखकर जीने का अम्बल पा रही थी. वह सच्चाई
को स्वीकार रही थी. जीवन अपनी रफ्तार से आगे चलता रहता है, जाने वालों के साथ थम नहीं जाता.
अस्ताल के इस कमरे में
लेटे-लेटे वह स्मृतियों में खो जाती है. कितने हफ्तों से यहाँ आ रही है, यहाँ सभी
को पहचानने लगी है. बच्चे, बूढ़े, जवान सभी को यहाँ आते देखा है. मृत्यु को नजदीक
से देखा है. एक दिन वह उसका भी द्वार खटखटाएगी, पर तब तो जी ले. मृत्यु से पहले क्या
मरना, शरीर में जब तक प्राण हैं तब तक इस सुंदर सृष्टि को रचने वाले परमात्मा की
शक्ति का अपमान क्यों करे. वही तो है जो धडकनें चला रहा है, वह जब चाहेगा तब विदा
हो जाएगी और खत्म हो जाएगी एक कहानी जो बरसों पहले शुरू हुई थी. माँ की उम्र अभी सोलह
भी पार नहीं हुई थी जब उसने बिटिया को जन्म दिया. बालिका माँ ने उसे कैसे पाला होगा,
सुना है वह खूब रोती थी, दुबली भी थी. जाने कब देश में बालिका वधु की प्रथा खत्म
होगी. माँ गोरी थी, वह सांवली तो बचपन में माँ रगड़-रगड़ कर नहलाती थी, पैर लाल हो
जाते थे पर वह उन भाई-बहन को रुलाते हुए भी खूब साबुन मल-मल कर नहलाती. पिता सेना में
थे, कभी-कभी आते तो बहुत दुलार करते. कभी वे सब साथ रहते, नये- नये शहरों में पढ़ाई
हुई. असम, बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश कई प्रदेशों में बचपन बीता. पढ़ाई के लिए
डांट भी खूब पडती थी पर स्नेह भी उतना ही मिलता था. बचपन में तैयार होकर चचेरे
भाइयों को राखी बाँधने जाती थी, उनकी कोई बहन नहीं थी, सो पांच भाइयों की वह
इकलौती बहन थी. बचपन कब बीता पता भी नहीं चला.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " आत्मबल की शक्ति - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteस्वागत व बहुत बहुत आभार शिवम जी !
Deleteहवनकुण्ड का प्रकाश और उसकी अग्नि और धुआं भी ऊर्जा श्रोत होता है । सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteसही कहा है आपने, स्वागत व आभार सुशील जी !
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