Wednesday, May 25, 2016

नयी कोंपलें


कल रात भर माँ अस्पताल में नहीं सोयीं, नन्हा भी उनके सामने कुर्सी पर बैठा रहा. इतनी कम उम्र में इतनी समझ और सेवा का भाव है उसमें. घर आकर भी सो नहीं पा रहा था, जब फोन करके पता किया दादीजी सो गयी हैं, तो ही सोया है. कल जून का गला खराब लग रहा था. पिछले एक महीने से वे दिन में कई बार अस्पताल में आना-जाना कर रहे हैं. उसके बाएं गाल में थोडा दर्द है आखिरी दांत के पास. सभी के मनों में एक प्रश्न है क्या माँ एक बार पुनः स्वस्थ हो पाएंगी. उत्तर अज्ञात है. शुरू-शरू में उन्हें देखने कई लोग आये धीरे-धीरे संख्या कम होती जा रही है. उसकी दो सखियाँ यहाँ हैं नहीं. कल उनमें से एक का जन्मदिन है, वह खुश रहे, स्वस्थ रहे उसके सभी स्वप्न साकार हों यही शुभकामना उसके दिल से हर वक्त निकलती रहे. आत्मस्मृति में रहकर तो प्रेम ही बरसाया जा सकता है. अनंत, अपार प्रेम..वे आत्मा ही तो हैं जिसने अपने पूर्व कर्मों का हिसाब चुकाने के लिए शरीर धारण किया है. इस जन्म में कोई कर्म बंधन का कारण न बने ऐसा प्रयास उन्हें करना है !

 माँ घर आ गई हैं, पहले से बेहतर हैं. कल उनके कमरे के लिए नया टीवी आया है. एयर टेल का नया कनेक्शन भी, जिसमें ‘संस्कार’ शामिल है. आज महीनों बाद पुनः संस्कार पर सद्गुरु को देखा, सुना. मनसा, वाचा, कर्मणा तीनों पर ध्यान देना होगा ऐसा गुरूजी ने कहा. उसे अपनी भाषा पर ध्यान देना होगा, बिना सोचे-समझे कुछ भी बोल देना ठीक नहीं है. नींद पर भी ध्यान देना होगा, स्वप्नावस्था पर भी, जो जगते समय भी जारी रहती है, दिन में भीतर जो विचार चलते हैं वही तो रात्रि को स्वप्न बन जाते हैं, नींद टूटी भी नहीं कि मन स्वप्न में डूब जाता है, बल्कि डूबा ही रहता है. क्रोध, हिंसा, अभिमान तथा लोभ के विचार तथा व्यर्थ के संकल्प भी. जीवन भर जिस सत्य को पाने की आकांक्षा भीतर रही है, वह जैसे भूलती जा रही है. जो वे इकट्ठा कर रहे हैं, वह जीवन के विकास के लिए जरा भी आवश्यक नहीं है. समय और परिस्थितियों के गुलाम बनकर उन्हें जीना है या सत्य को जानने के लिए बने एक अमिट व्यक्तित्त्व बनकर ? भीतर का द्वंद्व जो समाप्त हो गया सा लगता रहा है, आज पुनः इकट्ठा हो गया है. जीवन में कोई सचेतन लक्ष्य न हो तो जीवन एक सूखे पत्ते की तरह हवा के झोंके से इधर-उधर डोलता रहता है, सो पुनः स्वयं को चिन्तन के द्वारा सचेत करना है, सजग होना है.

आज पुनः भीतर लिखने की प्रेरणा हुई है. सद्गुरु की कृपा का बादल भीतर बरसा है और मन की धरती को हरा-भरा कर अंकुआ गया है, भाव उठने लगे हैं, विचारों की कोंपलें लगने लगी हैं, ज्ञान जो सुप्त प्रायः हो गया था, जागृत होने लगा है. जड़ता जो घर करती जा रही थी, अब चेतना में बदल रही है. जीवन कितना सुंदर है, प्रकृति आजकल अपने सुन्दरतम रूप में नजर आ रही है. चारों ओर हरियाली, शीतलता तथा स्वच्छता. पौधे धुले-धुले से नजर आते हैं. मानव कृत गंदगी तो बरसात में बढ़ जाती है पर उस ओर उसकी नजर ही नहीं जाती, आकाश से दृष्टि हटे तब तो धरा पर जाये. ‘गुरू पूर्णिमा’ आने वाली है. आत्मा गुरू का सान्निध्य दिन भर तो कमोबेश रहता है पर रात्रि को निद्रा और स्वप्नावस्था प्रगाढ़ हो गये हैं. स्वप्न में भी यह भान रहे कि वह पृथक है और जो स्वप्न देख रहा है वह मन है, नींद में भी जगे-जगे से रहे, ऐसा अब नहीं होता. खजाना भीतर है ही यदि कोई उसका उपयोग न करे तो दोष किसका है ? 

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